जब मृत्यु से पहले दिए बयान एक से अधिक हों तो किसे माना जाए ? सुप्रीम कोर्ट ने ' मुश्किल सवाल' का जवाब दिया
सुप्रीम कोर्ट ने मृत्यु से पहले दिए परस्पर विरोधी बयानों के मामले में मृतक के स्वास्थ्य के संबंध में चिकित्सकीय परीक्षण (medical examination) के बाद दर्ज किए गए बयानों पर भरोसा किया।
न्यायालय ने अपने सामने "कठिन प्रश्न" को इस प्रकार समझाया:
"मौजूदा मामले में हम मृत्यु से पहले दिए दो बयानों (dying declarations) का सामना कर रहे हैं, जो पूरी तरह से असंगत और एक-दूसरे के विरोधाभासी हैं। दोनों न्यायिक मजिस्ट्रेटों द्वारा दर्ज किए गए हैं। एक कठिन प्रश्न जिसका हमें उत्तर देना है, वह यह है कि मृत्यु से पहले दिए बयानों में से किस पर विश्वास किया जाए। "
जस्टिस बी आर गवई और जस्टिस पीएस नरसिम्हा की पीठ ने कहा कि अदालत को इस बात की जांच करने की आवश्यकता है कि क्या मृत्यु से पहले दिया गया बयान सही और विश्वसनीय था; कि क्या यह उस समय किसी व्यक्ति द्वारा दर्ज किया गया था जब मृतक बयान देने के लिए शारीरिक और मानसिक रूप से स्वस्थ थी और क्या यह बयान किसी सिखावे/ दबाव / प्रोत्साहन के तहत दिया गया था।
इस मामले में अपीलकर्ता ने पंजाब एंंड हरियाणा हाईकोर्ट के एक फैसले के खिलाफ अदालत का दरवाजा खटखटाया जिसमें हाईकोर्ट ने भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 304-बी के तहत दंडनीय अपराध में अपीलकर्ता के खिलाफ निचली अदालत के फैसले और दोषसिद्धि के आदेश के साथ सहमति व्यक्त की।
अभियोजन पक्ष के अनुसार अपीलार्थी की प्रताड़ना और दहेज की लगातार मांग से तंग आकर आरोपी-अपीलकर्ता की पत्नी ने 21 अप्रैल 1998 को जहरीला पदार्थ खा लिया और उसकी मौत हो गई।
मामले में जो मुद्दा उठा, वह यह था कि मृतक द्वारा मृत्यु से पहले दो बयान दर्ज किए गए थे। प्रथम मृत्यु से पहले बयान वाणी गोपाल शर्मा, न्यायिक दंडाधिकारी, प्रथम श्रेणी, कुरुक्षेत्र द्वारा दर्ज किया गया था। इस बयान में मृतका ने बताया कि उसे बुखार था और अंगीठी पर कई दवाएं पड़ी थीं, इसलिए गलती से उसने हरे रंग की दवा ले ली। हालांकि, बयान दर्ज होने के एक दिन बाद, मृतका मंजीत कौर के माता-पिता अस्पताल पहुंचे और मृतका मंजीत कौर का बयान सीआरपीसी की धारा 164 के तहत दर्ज करने का अनुरोध किया। ऐसे अनुरोध पर कुरुक्षेत्र की न्यायिक दंडाधिकारी कंचन नरियाला ने मृतका मंजीत कौर का बयान दर्ज किया। इस दूसरे मृत्यु से पहले बयान के अनुसार, मृतका ने कहा कि उसके पति ने अमेरिका जाने के लिए 6 लाख रुपये की मांग की थी और अपीलकर्ता के साथ-साथ उसके माता-पिता ने उसे एक जहरीला पदार्थ पिलाया।
दूसरे मृत्यु से पहले बयान के आधार पर एफआईआर दर्ज की गई। आईपीसी की धारा 304-बी के तहत दंडनीय अपराध के लिए आरोप तय किए गए। ट्रायल के समापन पर, ट्रायल कोर्ट ने अपीलकर्ता को आईपीसी की धारा 304-बी के तहत दोषी ठहराया। हालांकि, ट्रायल कोर्ट ने पाया कि अन्य दो आरोपी, यानी अपीलकर्ता के माता-पिता संदेह का लाभ पाने के हकदार थे और उन्हें बरी कर दिया। अपीलार्थी को 10 वर्ष के कठोर कारावास की सजा सुनाई गई। हाईकोर्ट के समक्ष अपीलकर्ता द्वारा दायर एक अपील में, हाईकोर्ट ने आईपीसी की धारा 304-बी के तहत दोषसिद्धि की पुष्टि तो की, इसने दी गई सजा को घटाकर 7 साल कर दिया। इसके बाद याचिकाकर्ता ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया।
यहां, अदालत ने कहा कि यह जांच करने की आवश्यकता है कि क्या मृत्यु से पहले बयान सही और विश्वसनीय था; कि क्या यह उस समय किसी व्यक्ति द्वारा दर्ज किया गया था जब मृतक घोषणा करने के लिए शारीरिक और मानसिक रूप से स्वस्थ थी और; क्या यह किसी सिखावे / दबाव / प्रोत्साहन के तहत किया गया था। इसने नोट किया कि दोषसिद्धि दर्ज करने के लिए मृत्यु से पहले बयान एकमात्र आधार हो सकता है और यदि इसे विश्वसनीय और भरोसेमंद पाया जाता है, तो किसी पुष्टि की आवश्यकता नहीं है।
अदालत ने आगे कहा कि यदि मृत्यु से पहले कई बयान हैं और उनके बीच विसंगतियां मौजूद हैं तो मजिस्ट्रेट जैसे उच्च अधिकारी द्वारा दर्ज किए गए मृत्यु से पहले बयान पर भरोसा किया जा सकता है। हालांकि, यह इस शर्त के साथ है कि कोई भी परिस्थिति इसकी सत्यता के बारे में किसी भी संदेह को जन्म न दे। अदालत ने कहा कि अगर ऐसी परिस्थितियां हैं जिनमें बयान स्वेच्छा से नहीं दिए गए थे और किसी अन्य सबूत द्वारा समर्थित नहीं है तो अदालत को व्यक्तिगत मामले के तथ्यों की बहुत सावधानी से जांच करने और यह निर्णय लेने की आवश्यकता है कि इनमें से कौन सा बयान भरोसा करने लायक है।
वर्तमान मामले में अदालत ने कहा कि मृत्यु से पहले कई बयान हैं जो पूरी तरह से असंगत और एक-दूसरे के विरोधाभासी हैं और दोनों न्यायिक मजिस्ट्रेटों द्वारा दर्ज किए गए थे। हालांकि, यह पाया गया कि मृत्यु से पहले दूसरे बयान की एक डॉक्टर द्वारा जांच की गई थी ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि वह बयान देने के लिए विवेक और सचेत स्थिति में है और उसकी जांच कर रहे डॉक्टर द्वारा भी समर्थन किया गया था, दूसरे बयान के साथ ऐसा नहीं था। दूसरा बयान मृतका की फिटनेस के संबंध में एक डॉक्टर द्वारा जांच किए बिना दर्ज किया गया था। साथ ही मृत्यु से पहले दूसरे बयान की रिकॉर्डिंग के दौरान मृतका के पिता और बहन अस्पताल में मौजूद थे। इस प्रकार, अदालत ने कहा कि मृत्यु से पहले दूसरे बयान की संभावना मृतका के परिजनों द्वारा सिखाने- पढ़ाने से दिए जाने से इंकार नहीं किया जा सकता है।
तदनुसार, अदालत का मत था कि वर्तमान मामले के तथ्यों और परिस्थितियों में, मृत्यु से पहले दिए पहले बयान को दूसरे की तुलना में अधिक विश्वसनीय और भरोसेमंद माना जाना चाहिए।
कोर्ट ने आगे कहा कि-
"इसके अलावा, यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि ट्रायल कोर्ट ने उसी सबूत के आधार पर, संदेह का लाभ देकर, अपीलकर्ता के माता-पिता को बरी कर दिया है। इस मामले में, अपीलकर्ता की दोषसिद्धि उसी साक्ष्य पर, हमारे विचार में, अनुचित थी...संदेह का लाभ जो ट्रायल न्यायालय द्वारा अन्य अभियुक्तों को दिया गया है, वर्तमान अपीलकर्ता को समान रूप से दिया जाना चाहिए था जब साक्ष्य सभी तीनों आरोपियों के खिलाफ पूरी तरह से समान थे।"
इस प्रकार अपीलार्थी को सभी आरोपों से बरी कर दिया गया।
केस टाइटल : माखन सिंह बनाम हरियाणा राज्य | आपराधिक अपील नंबर- 1290/ 2010
साइटेशन: 2022 लाइव लॉ (SC) 677
भारतीय साक्ष्य अधिनियम 1872 - धारा 32 मृत्यु से पहले दिया बयान - मृत्यु से पहले दिए गए दो बयानों का मामला, दोनों विरोधाभासी, दोनों न्यायिक मजिस्ट्रेटों द्वारा दर्ज किए गए- न्यायालय ने चिकित्सा परीक्षण के बाद दर्ज मृत्यु से पहले दिए बयान पर निर्भरता दिखाई है- (पैरा 16,17)
भारतीय साक्ष्य अधिनियम 1872 - मृत्यु से पहले दिया बयान - कब पर भरोसा किया जा सकता है - शर्तें - इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि न्यायालय को यह जांचना आवश्यक है कि क्या मृत्यु से पहले दिया बयान सत्य और विश्वसनीय है; कि क्या यह किसी व्यक्ति द्वारा ऐसे समय में दर्ज किया गया है जब मृतक बयान देने के लिए शारीरिक और मानसिक रूप से स्वस्थ थी कि क्या यह किसी सिखावे/दबाव/प्रेरणा के तहत दिया गया है। मृत्यु से पहले दिया बयान दोषसिद्धि दर्ज करने का एकमात्र आधार हो सकता है और यदि यह विश्वसनीय और भरोसेमंद पाया जाता है, तो किसी पुष्टि की आवश्यकता नहीं है।
यदि मृत्यु से पहले दिए गए बयान एक से अधिक हैं और उनके बीच विसंगतियां हैं, तो मजिस्ट्रेट जैसे उच्च अधिकारी द्वारा दर्ज किए गए मृत्यु से पहले दिए गए बयान पर भरोसा किया जा सकता है। हालांकि, यह इस शर्त के साथ है कि कोई भी परिस्थिति इसकी सत्यता के बारे में संदेह को जन्म न दे। यदि ऐसी परिस्थितियां हैं जिनमें बयान स्वेच्छा से नहीं दिया गया है और किसी अन्य साक्ष्य द्वारा समर्थित नहीं है, तो न्यायालय को एक व्यक्तिगत मामले के तथ्यों की बहुत सावधानी से जांच करने और यह निर्णय लेने की आवश्यकता है कि कौन सा बयान निर्भरता के लायक है। (पैरा 9)
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