वैधानिक नियमों के गलत इस्तेमाल और उसमें भेदभावों के आरोप हों तो किसी उम्मीदवार को चयन प्रक्रिया को चुनौती देने से नहीं रोका जाएगा : सुप्रीम कोर्ट

Update: 2019-12-20 03:58 GMT

सेवा कानून को लेकर एक उल्लेखनीय निर्णय में सर्वोच्च न्यायालय ने माना है कि जब उसमें "वैधानिक नियमों के गलत इस्तेमाल और उसमें उत्पन्न होने वाले भेदभावों" के आरोप हों तो किसी उम्मीदवार को इसमें भाग लेने के आधार पर चयन प्रक्रिया को चुनौती देने से नहीं रोका जाएगा।

न्यायमूर्ति दीपक गुप्ता और न्यायमूर्ति सूर्यकांत की पीठ ने एक याचिका को स्वीकार किया जाए या नहीं इस बारे में ग़ौर करते हुए यह कहा।

यह अपील बिहार में सामान्य चिकित्सा अधिकारी की चयन प्रक्रिया से संबंधित थी। अपीलकर्ता डॉ. मेजर मीता सहाय, चयन प्रक्रिया में 'वेटेज' की गणना के लिए सेना अस्पताल में अपने अनुभव पर विचार न करने से व्यथित थे। सरकार ने यह स्टैंड लिया कि बिहार के सरकारी अस्पतालों में काम के अनुभव को ही महत्व दिया जाएगा।

अपीलकर्ता ने पटना हाईकोर्ट में पहले इस मामले को चुनौती दी पर कोई राहत नहीं मिलने के बाद उन्होंने सुप्रीम कोर्ट का रूख किया।

सुप्रीम कोर्ट में अपीलकर्ता ने जो मुख्य मुद्दा उठाया वह यह था कि अपीलकर्ता चयन प्रक्रिया में भाग लेने के बाद इसके परिणाम कोई चुनौती नहीं दे सकता। पीठ ने इस बारे में मनीष कुमार साही बनाम बिहार राज्य मामले में आए फ़ैसले से पीठ ने सहमति जताई।

इस फ़ैसले में कहा गया था,

"इस सिद्धांत का अंतर्निहित उद्देश्य उम्मीदवारों को एक और मौक़ा लेने से रोकना है और एक गतिरोध को पैदा होने से बचाना है जहां हर असंतुष्ट उम्मीदवार जब वह चयन में विफल रहा है तो वह दूसरा मौका पाने की उम्मीद में इसे चुनौती देता है। "

पीठ ने हालांकि यह भी कहा कि चयन प्रक्रिया में उम्मीदवार की भागीदारी निर्धारित नियमों के अनुसार आयोजित प्रक्रिया की स्वीकृति है। एस्टोपेल का सिद्धांत तब लागू नहीं होगा जब नियमों की गलत व्याख्या हो और उम्मीदवार उसी के कारण भेदभाव का शिकार हो।

अदालत ने कहा,

"…कोई उम्मीदवार जब किसी चयन प्रक्रिया में शामिल होने की हामी भरता है तो वह उसकी निर्दिष्ट प्रक्रिया को स्वीकार करता है न कि उसकी अवैधानिकता को। ऐसी स्थिति में जहां एक उम्मीदवार वैधानिक नियमों के गलत इस्तेमाल और उसमें उत्पन्न होने वाले भेदभाव के परिणामों का आरोप लगाता है तो इसको सिर्फ़ इसलिए अनदेखा नहीं किया जा सकता कि उम्मीदवार ने इस प्रक्रिया में हिस्सा लिया है। संवैधानिक योजना पवित्र है और किसी भी तरीके से इसके उल्लंघन की अनुमति नहीं है।"

हक़ीक़त यह है कि चयन प्रक्रिया को चुनौती देने का मतलब है इस प्रक्रिया में शामिल होना। अदालत ने कहा,

"हो सकता है कि उम्मीदवार के पास संविधान के प्रावधानों की लाइलाज अवैधता या अपमान को स्वीकार करने के लिए कोई आधार नहीं हो, जब तक कि वह चयन प्रक्रिया में भाग नहीं लेता है।"

कोर्ट ने कहा कि अधिसूचना में "कार्य अनुभव" की व्याख्या से संबंधित मामला है कि क्या सेना अस्पतालों में सेवा के अनुभव को महत्व दिया जाएगा कि नहीं।

"चूंकि किसी क़ानून या नियम की व्याख्या न्यायालयों के अधिकार क्षेत्र में है, और इस तरह के मानदंडों को रद्द करने में न्यायिक समीक्षा की गुंजाइश को देखते हुए, अपीलकर्ता की चुनौती को नकारा नहीं जा सकता।" न्यायमूर्ति सूर्यकांत ने कहा जिन्होंने इस मामले में फ़ैसला लिखा।

अदालत ने अंततः इस अपील को यह कहते हुए सुनवाई के लिए स्वीकार कर लिया कि सेना अस्पतालों में सेवा के अनुभव को नहीं मानना अनुचित है। इस तरह राज्य और केंद्र सरकार के अस्पतालों में भेदभाव अनुचित है।

अदालत ने कहा,

"इसलिए यह अतार्किक है कि किसी भी ऐसे अस्पताल में कार्य अनुभव बिहार सरकार के अस्पताल के अनुभव से अलग है, इसलिए, पंचायतों या नगर पालिकाओं द्वारा स्थापित इन अस्पतालों में डॉक्टरों के अनुभवों के बीच भेदभाव की अनुमति देना संवैधानिक रूप से अन्यायपूर्ण होगा…राज्य सरकार और केंद्र सरकार या नगर पालिका / पंचायती राज संस्थानों द्वारा संचालित अस्पतालों के बीच भेदभाव करने का कोई भी प्रयास हमारी संवैधानिक प्रशासन के चरित्र पर प्रहार होगा।"

अदालत ने कहा, "इस तरह सरकारी अस्पताल की व्याख्या कर इसमें सिर्फ़ कुछ ऐसे लोगों को शामिल करना जिन्होंने बिहार सरकार के अस्पतालों में काम किया है, इस तरह, स्पष्ट रूप से ग़लत है और मेरिट के ख़िलाफ़ है।" 


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