विकलांगता अधिकारों के दायरों को जस्टिस रविंद्र भट ने दिया था विस्तार

Update: 2023-10-28 13:57 GMT

सुप्रीम कोर्ट के जज जस्टिस एस रवींद्र भट 20 अक्टूबर को रिटायर हो गए। उन्होंने हमारे देश में विकलांगता अधिकार न्यायशास्त्र के विस्तार में बहुत बड़ा योगदान दिया है। उन्होंने विकलांग व्यक्तियों के लिए सार्वजनिक क्षेत्र में समावेशिता और पहुंच को आगे बढ़ाने के लिए वैधानिक प्रावधानों की व्यावहारिक और उद्देश्यपूर्ण व्याख्याओं को विकस‌ित किया। सुप्रीम कोर्ट में अपनी पदोन्नति से पहले, जस्टिस भट ने दिल्ली हाईकोर्ट के जज के रूप में 2016 में विकलांग व्यक्ति अधिनियम 1995 में कुछ कमियों की ओर इशारा किया था, विशेष रूप से 40% बेंचमार्क विकलांगता पर कठोर आग्रह के संदर्भ में।

उन्होंने अधिक समावेशिता के लिए विकलांगता अधिकारों के लिए एक टेलर्ड मॉडल के महत्व पर जोर दिया और विकलांग व्यक्तियों की इतनी बड़ी संख्या वाले देश में एक समान, "वन-साइज़-फिट-ऑल" दृष्टिकोण की अपर्याप्तता को चिह्नित किया।

विकलांगता की पारंपरिक धारणाओं को चुनौती 

जस्टिस भट के निर्णय उन व्यक्तियों की चुनौतियों की गहरी समझ को दर्शाते हैं, जिनकी विकलांगताएं पारंपरिक श्रेणियों से अलग थीं। एक ऐतिहासिक मामला, जो उनके दूरदर्शी दृष्टिकोण का उदाहरण है और भारत में विकलांगता की पारंपरिक समझ के खिलाफ एक चुनौती है, वह मोहम्मद इब्राहिम बनाम प्रबंध निदेशक है।

इस मामले में, 'कलर ब्लाइंडनेस' वाले एक व्यक्ति को रोजगार से वंचित कर दिया गया, क्योंकि वह विकलांग व्यक्तियों (पीडब्ल्यूडी) की पूर्व निर्धारित श्रेणियों में फिट नहीं बैठता था। जस्टिस भट ने चतुराई से कहा कि विकलांगता को परिभाषित करने वाला मौजूदा ढांचा बहिष्करणीय और मनमाना है, क्योंकि यह सकारात्मक कार्रवाई के लिए केवल विकलांगों की विशिष्ट श्रेणियों को मान्यता देता है।

उन्होंने कहा, “सकारात्मक कार्रवाई के रूप में वास्तविक लाभ विकलांगजनों की एक विशिष्ट श्रेणी (आर्थोपेडिकल, विजुअल, हियरिंग, मेंटल आदि) द्वारा परिभाषित किए जाते हैं और “बेंचमार्क” विकलांगताओं के संदर्भ से जुड़े होते हैं, जो उन विकलांगजनों को हकदार बनाते हैं, जो सकारात्मक कार्रवाई और अन्य समान लाभों के लिए विकलांगता की एक निश्चित सीमा (40 प्रतिशत या अधिक) के साथ अर्हता प्राप्त करते हैं। इस अदालत की राय में, एक ओर केवल निर्दिष्ट श्रेणियों को शामिल करने की प्रकृति और दूसरी ओर विकलांगता की अन्य श्रेणियों को बाहर करने की सीमा की पात्रता, बाधाओं का गठन करती है।"

जस्टिस भट के फैसले के मूल में उन व्यक्तियों को समायोजित करने के लिए अधिक समावेशी दृष्टिकोण का आह्वान ‌था, जो स्थापित पीडब्ल्यूडी श्रेणियों के अनुरूप नहीं हैं। उन्होंने इन श्रेणियों की कठोरता और न्यूनतम विकलांगता सीमा लागू करने पर सवाल उठाया। उन्होंने कहा, "परिभाषित श्रेणियों के भीतर आने की दोहरी स्थितियां, और ऐसी विकलांगताओं के लिए न्यूनतम प्रतिशत की सीमा भी एक बाधा है।"

उनका फैसला स्पष्ट था-विकलांग व्यक्तियों के रोजगार को सक्षम करने के लिए उचित आवास प्रदान किया जाना चाहिए। इस फैसले ने विकलांगता की अवधारणा का विस्तार किया और संगठनों को विकलांगता से संबंधित रोजगार मामलों में अधिक समावेशी दृष्टिकोण अपनाने के लिए प्रेरित किया।

एडवोकेट-ऑन-रिकॉर्ड महमूद उमर फारुकी, जिन्होंने इस मामले में एमिकस के रूप में पीठ की सहायता की, उन्होंने कहा, "सामान्य अदालती टिप्पणियों और बार और बेंच के बीच आदान-प्रदान के बीच कोई भी व्यक्ति विकलांगों के प्रति उनकी करुणा और प्रतिबद्धता को महसूस कर सकता था। वह हाशिए पर मौजूद, विकलांगों और वंचितों के लिए सकारात्मक कार्रवाई में विश्वास करते थे। एक जज के रूप में वह बार के युवा सदस्यों को भी समान सम्मान और ध्यान देते थे। सुप्रीम कोर्ट विशेषकर बार को निश्चित रूप से उनकी कमी खलेगी।''

विकलांगता पेंशन दावों के लिए एक तर्कसंगत और दयालु दृष्टिकोण

एक अन्य मामला जिसने जस्टिस भट की विकलांग अधिकारों के प्रति प्रतिबद्धता को उजागर किया, वह एक आर्मी वेटरन के पक्ष में उनका फैसला था। उसने 15 वर्षों तक भारतीय सेना में सेवा की थी और हृदय संबंधी परेशानी के कारण उन्हें ‌डिस्चार्ज कर दिया गया था। मामला वयोवृद्ध के विकलांगता पेंशन दावे से जुड़ा था। सशस्त्र बल अपीलीय न्यायाधिकरण ने लाभ को केवल एक वर्ष तक सीमित कर दिया था। जस्टिस भट की बुद्धिमत्ता और करुणा तब दिखी, जब उन्होंने इस निर्णय के पीछे के तर्क पर सवाल उठाया। उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि मेडिकल बोर्ड ने आर्मी वेटरन की ओर से कोई लापरवाही नहीं पाई है और उनकी स्थायी विकलांगता के लिए उनकी सेवा को जिम्मेदार ठहराया है। इस फैसले ने विकलांगता पेंशन दावों के लिए तर्कसंगत दृष्टिकोण की आवश्यकता पर जोर दिया, जिससे यह सुनिश्चित हो सके कि आर्मी वेटरन को उनके उचित लाभों से अन्यायपूर्ण तरीके से वंचित नहीं किया जाए।

एचआईवी अधिनियम के कार्यान्वयन में अग्रणी

सामाजिक न्याय के व्यापक मुद्दों को संबोधित करने में जस्टिस भट का योगदान भी उतना ही उल्लेखनीय है। उन्होंने हाल ही में ह्यूमन इम्यूनोडेफिशिएंसी वायरस एंड एक्वायर्ड इम्यून डेफिशिएंसी सिंड्रोम (प्रिवेंशन एंड कंट्रोल) एक्ट, 2017 (एचआईवी एक्‍ट) के प्रभावी कार्यान्वयन के संबंध में एक अग्रणी निर्णय दिया।

इस मामले के परिणामस्वरूप भारतीय वायु सेना के एक पूर्व अधिकारी को 1.5 करोड़ रुपये का महत्वपूर्ण मुआवजा दिया गया, जो एक सैन्य अस्पताल में ब्‍लड ‌डिफ्यूजन के दौरान एचआईवी से संक्रमित हो गया था। जस्टिस भट के फैसले ने न केवल एचआईवी एक्ट को लागू करने के महत्व पर प्रकाश डाला, बल्कि सभी न्यायालयों, न्यायाधिकरणों और अर्ध-न्यायिक निकायों से एचआईवी संक्रमित व्यक्तियों से संबंधित मामलों को शीघ्र निपटान के लिए प्राथमिकता देने का भी आह्वान किया। इसने एचआईवी संक्रमित व्यक्तियों की पहचान की रक्षा करने, उन्हें वह सम्मान और सुरक्षा प्रदान करने की महत्वपूर्ण आवश्यकता पर भी जोर दिया, जिसके वे हकदार हैं।

शिक्षा में समावेशिता सुनिश्चित करके विकलांगता अधिकारों की सीमाओं को आगे बढ़ाया

इसके अलावा, हाल ही में बंभानिया सागर वाशरमभाई बनाम यूनियन ऑफ इंडिया के मामले में, जस्टिस रवींद्र भट के आदेश ने सेरेब्रल पाल्सी प्रभावित उम्मीदवार को एमबीबीएस कोर्स में प्रवेश के लिए विकलांग व्यक्ति (पीडब्ल्यूडी) अधिनियम, 2016 के तहत आरक्षण के लिए पात्र होने की अनुमति दी।

न्यायालय ने मेडिकल बोर्ड की गूढ़ और अनुचित राय पर सवाल उठाया जिसने शुरुआत में उम्मीदवार के विकलांग माने जाने के दावे को खारिज कर दिया था। कोर्ट ने पूछा था कि मेडिकल बोर्ड को स्पष्ट रूप से बताना होगा कि विकलांग व्यक्ति मेडिकल एजुकेशन क्यों नहीं ले पाएगा; उनके नेतृत्व मे परित आदेश में कहा गया था कि केवल यह माना नहीं जा सकता है कि ऐसा व्यक्ति एमबीबीएस कोर्स के लिए अयोग्य होगा। पीडब्ल्यूडी एक्ट, 2016 के तहत उम्मीदवार को विकलांग व्यक्ति के रूप में मानने के जस्टिस भट के निर्देश ने एजुकेशनल और प्रोफेशनल संस्थानों में विभिन्न विकलांग व्यक्तियों को शामिल करने को सुनिश्चित करने के लिए एक महत्वपूर्ण मिसाल कायम की।

विकलांग व्यक्तियों के लिए पदोन्नति में आरक्षण के दायरे का विस्तार

एक महत्वपूर्ण मामले (भारतीय रिजर्व बैंक बनाम ऐके नायर और अन्य) में जस्टिस भट की अगुवाई वाली पीठ ने भारतीय रिजर्व बैंक को पदोन्नति में आरक्षण का लाभ देने का निर्देश देने के लिए संविधान के अनुच्छेद 142 का इस्तेमाल किया। मामले में एक विकलांग कर्मचारी को अन्यायपूर्ण तरीके से लंबी अवधि के लिए पदोन्नति के अधिकार से वंचित कर दिया गया था। न्यायालय ने अनुच्छेद 142 के तहत विशेष शक्तियों का इस्तेमाल किया क्योंकि पीडब्ल्यूडी एक्ट 1995 में पदोन्नति में आरक्षण को अनिवार्य करने वाला कोई स्पष्ट प्रावधान नहीं था।

पहुंच पर सुप्रीम कोर्ट कमेटी के अध्यक्ष के रूप में उनका कार्यकाल

जस्टिस भट सुप्रीम कोर्ट कमेटी ऑन एक्सेसिबिलिटी के अध्यक्ष भी थे, जिसने हाल ही में विकलांग व्यक्तियों के लिए सुप्रीम कोर्ट की भौतिक और कार्यात्मक पहुंच पर अपनी ऑडिट रिपोर्ट जारी की थी। 2022 में चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया डीवाई चंद्रचूड़ द्वारा गठित समिति ने सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच में आने वाली बाधाओं को दूर करने के लिए कई सिफारिशें कीं। उन्होंने कहा कि रिपोर्ट में व्यापक वर्ग के विचारों का पता लगाने की कोशिश की गई है। उन्होंने बताया कि ऑडिट भौतिक पहुंच के साथ-साथ तकनीकी तक पहुंच से भी संबंधित है।

विकलांग अधिकारों और सामाजिक न्याय के प्रति जस्टिस भट के समर्पण का निस्संदेह स्थायी प्रभाव होगा।

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