सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को मौखिक रूप से टिप्पणी की कि जमानत के आदेश छोटे और स्पष्ट होने चाहिए और इसमें केवल दो से चार पृष्ठ होने चाहिए।
जस्टिस संजय किशन कौल और जस्टिस अभय श्रीनिवास ओका की खंडपीठ ने आगे कहा कि जमानत के मामले में अन्य पहलुओं पर कष्टदायी विस्तार से जाने की जरूरत नहीं है।
अदालत जम्मू-कश्मीर हाईकोर्ट द्वारा पीडीपी नेता वहीद उर रहमान पारा को दी गई जमानत को चुनौती देने वाली केंद्र शासित प्रदेश जम्मू और कश्मीर द्वारा दायर एक विशेष अनुमति याचिका पर सुनवाई कर रही थी। पारा पर आतंकवादी गतिविधियों में शामिल होने का आरोप लगाया गया था।
यूटी की ओर से पेश सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा कि गैरकानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम की हाईकोर्ट की व्याख्या समस्याग्रस्त है और प्रतिवादी को दी गई जमानत को चुनौती देने की मांग की।
यह तर्क दिया गया कि "उसने ए -47 बंदूकें खरीदी थी। वह पाकिस्तान भी गया था।"
पीठ ने हालांकि कहा कि वह हाईकोर्ट द्वारा की गई टिप्पणियों को महत्व नहीं दे रही है।
बेंच ने जमानत आदेश में हस्तक्षेप करने से इनकार करते हुए अपने आदेश में दर्ज किया,
"हम निश्चित रूप से आक्षेपित आदेश और यूएपीए अधिनियम की व्याख्या में किए गए कोई भी अवलोकन (अस्पष्ट) नहीं दे रहे हैं।"
जस्टिस कौल ने मौखिक रूप से कहा,
"मेरा मानना है कि एक जमानत मामले में यह सब नहीं आना चाहिए। जमानत आदेश स्पष्ट, छोटा, 2-4 पृष्ठों का होना चाहिए। यह सब आवश्यक नहीं है।"
प्रतिवादी के वकील ने प्रस्तुत किया कि कभी-कभी न्यायाधीशों को प्रश्न में अपराध की प्रकृति के कारण इसमें शामिल होने के लिए मजबूर किया जाता है।
एसजी ने आगे तर्क दिया, "हम एक आतंकवाद अपराध से निपट रहे हैं। यहां तक कि अपराध की तैयारी भी यूएपीए के तहत अपराध है।"
केस टाइटल : एसएलपी (सीआरएल) नंबर 9572/2022 II-सी केंद्र शासित प्रदेश जम्मू और कश्मीर बनाम वहीद उर रहमान पारा