दिल्ली सरकार Vs केंद्र : सेवाओं पर किसका नियंत्रण ? दिल्ली सरकार ने बड़ी पीठ का गठन कर जल्द सुनवाई की मांग की, CJI ने कहा, देखेंगे
दिल्ली सरकार बनाम केंद्र मामले में सेवाओं को लेकर किसका अधिकार है, ये सवाल अभी भी बरकरार है। दिल्ली सरकार ने सोमवार को अपने अधिकारियों के ट्रांसफर- पोस्टिंग संबंधी अधिकार को लेकर सुप्रीम कोर्ट में बड़ी पीठ के गठन की गुहार लगाई।
दिल्ली सरकार के वकील राहुल मेहरा ने चीफ जस्टिस रंजन गोगोई को बताया कि 14 फरवरी के सुप्रीम कोर्ट के फैसले को लेकर सेवाओं पर जल्द सुनवाई की आवश्यकता है। इसके लिए बड़ी पीठ का गठन किया जाना चाहिए और मामले को सुना जाना चाहिए।
हालांकि चीफ जस्टिस ने कोई तारीख नहीं दी लेकिन यह कहा कि इस केस को मेंशन करने की जरूरत नहीं है। वो खुद ही देखेंगे।
गौरतलब है कि 14 फरवरी को दिल्ली सरकार बनाम केंद्र मामले में अधिकारों पर सुप्रीम कोर्ट ने बड़ा फैसला सुनाते हुए साफ किया था कि भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो पर केंद्र सरकार का अधिकार है तो वहीं सेवाओं के मुद्दे पर जस्टिस ए. के. सीकरी और जस्टिस अशोक भूषण की राय विभाजित रही कि भारत के संविधान की प्रविष्टि 41, सूची II के तहत राज्य लोक सेवाओं के अधिकारियों को नियुक्त करने और स्थानांतरित करने की शक्तियां किसके पास हैं। इसलिए इस मुद्दे को बड़ी पीठ के पास भेज दिया गया जबकि अन्य मुद्दों पर दोनों ने एकमत से फैसला सुनाया।
एक तरफ न्यायमूर्ति सीकरी ने कहा था कि दिल्ली के उपराज्यपाल की शक्तियों के तहत और संयुक्त सचिव व उससे ऊपर के अधिकारियों के तबादले और नियुक्तियां हैं जबकि अन्य अधिकारी दिल्ली सरकार के नियंत्रण में हैं। इस पहलू पर न्यायमूर्ति भूषण ने कहा था कि "सेवाएं" पूरी तरह से दिल्ली सरकार के दायरे से बाहर हैं।
इसके अलावा एकमत से पीठ ने फैसला दिया था कि कमीशन ऑफ इन्क्वायरी एक्ट के तहत सक्षम प्राधिकारी केंद्र है। दिल्ली सरकार के पास जांच आयोग नियुक्त करने की कोई शक्ति नहीं है। दिल्ली सरकार के अधीन विद्युत कंपनियां हैं और विद्युत अधिनियम के तहत उपयुक्त दिल्ली सरकार ही है। पीठ ने कहा था कि दिल्ली सरकार के पास लोक अभियोजक नियुक्त करने की शक्ति है। इसके अलावा दिल्ली में जमीन के सर्कल रेट संबंधी अधिकार भी दिल्ली सरकार के पास ही हैं।
इस दौरान पीठ ने कहा था कि दिल्ली सरकार के पास पुलिस अधिकार नहीं है इसलिए भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो पर केंद्र सरकार का नियंत्रण रहेगा। पीठ ने वर्ष 2015 के केंद्र के उस नोटिफिकेशन को भी सही ठहराया जिसमें कहा गया था कि केंद्रीय कर्मचारी ब्यूरो के अधिकार क्षेत्र से बाहर रहेंगे।
पिछले साल 1 नवंबर को जस्टिस ए. के. सीकरी और अशोक भूषण की पीठ ने दिल्ली सरकार और उपराज्यपाल के बीच चल रही तनातनी के बीच भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो (एसीबी), सेवाओं और बिजली नियंत्रण सहित विभिन्न अधिसूचनाओं को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर फैसला सुरक्षित रख लिया था।
सुनवाई के दौरान केंद्र ने पीठ को बताया था कि उपराज्यपाल (एलजी) के पास दिल्ली में सेवाओं को विनियमित करने की शक्ति है। राष्ट्रपति ने अपनी शक्तियों को दिल्ली के प्रशासक को सौंपा है और सेवाओं को उसके माध्यम से प्रशासित किया जा सकता है। केंद्र ने यह भी कहा कि जब तक भारत के राष्ट्रपति स्पष्ट रूप से निर्देश नहीं देते, तब तक एलजी, जो दिल्ली के प्रशासक हैं, मुख्यमंत्री या मंत्रिपरिषद से परामर्श नहीं कर सकते हैं।
पिछले साल 4 अक्टूबर को दिल्ली सरकार ने यह दलील दी थी कि वह चाहती है कि राष्ट्रीय राजधानी के शासन से संबंधित उसकी याचिकाओं पर जल्द सुनवाई हो क्योंकि वह नहीं चाहती कि "प्रशासन में गतिरोध" जारी रहे। दिल्ली सरकार ने शीर्ष अदालत से कहा था कि वह जानना चाहती है कि वह 4 जुलाई 2018 को शीर्ष अदालत की संविधान पीठ के फैसले के मद्देनजर प्रशासन के साथ वो कहां खड़ी है।
5 जजों की पीठ ने पिछले साल 4 जुलाई को राष्ट्रीय राजधानी के शासन के लिए व्यापक मापदंडों को निर्धारित किया था। इस ऐतिहासिक फैसले में पीठ ने सर्वसम्मति से कहा था कि दिल्ली को एक राज्य का दर्जा नहीं दिया जा सकता लेकिन उपराज्यपाल (एलजी) की शक्तियों को यह कहते हुए कम कर दिया गया कि उनके पास "स्वतंत्र निर्णय लेने की शक्ति" नहीं है और उन्हें चुनी हुई सरकार की सहायता और सलाह पर कार्य करना है ।