'सीएए के खिलाफ हो रहे प्रदर्शन संविधान को बचाने की कोशिश': बार काउंसिल के सदस्य ने प्रदर्शनों से एकजुटता व्यक्त करने का आग्रह किया

Update: 2019-12-24 14:30 GMT

बार काउंसिल ऑफ इंडिया के चेयरमैन को लिखे एक पत्र में बार काउंसिल ऑफ इंडिया के एक सदस्य ने नागरिकता संशोधन अधिनियम, 2019 के खिलाफ विरोध प्रदर्श बंद करने के अपने आह्वान का विरोध किया और काउंसिल से देश भर में चल रहे विरोध प्रदर्शनों के साथ एकजुटता व्यक्त करने का आग्रह किया है।

एडवोकेट एन मनोज कुमार ने प्रदर्शनकारियों का समर्थन करते हुए कहा है कि-

"भारतीय नागरिकों द्वारा सीएए और एनआरसी का विरोध संविधान को बचाने का प्रयास है, जिसे संसद मे बहुमत के बल पर एक अधिकारवादी सत्ता द्वारा कुचला जा रहा है। संविधान के वास्तविक पथप्रदर्शक होने के नाते यह हर आत्मअभिमानी वकील की ये जिम्मेदारी है कि वो संविधान की रक्षा के लिए हो रहे संघर्ष का नेतृत्व करे।"

रविवार को बार काउंसिल ऑफ इंडिया ने देश के लोगों से शांति और सौहार्द बनाए रखने की अपील की थी। उसने वकीलों, बार एसोसिएशनों, स्टेट बार काउंसिलों, एनएलयूएस के छात्र संघों और सभी लॉ कॉलेजों से आग्रह किया था कि पूरे देश में कानून और व्यवस्था बनी रहे, ये सुनिश्‍चित किया जाए।

बार काउंसिल ने अपने बयान में कहा कि-

"बार के नेताओं और युवा छात्रों से निवेदन है कि वो देश में गड़बड़ी और हिंसा को को खत्म करने में सक्रिय भूमिका निभाएं: हमे लोगों और अनपढ़-अज्ञानी जनों को समझाना है, जिन्हें कुछ तथाकथित नेताओं द्वारा गुमराह किया जा रहा है। नागरिकता संशोधन अधिनियम सुप्रीम कोर्ट के विचाराधीन है, इसलिए सभी को सुप्रीम कोर्ट के फैसले का इंतजार करना चाहिए,

असहमति में लिखे अपने पत्र में एडवोकेट मनोज कुमार ने कहा है कि भले ही मामला सुप्रीम कोर्ट के समक्ष लंबित है, लेकिन यह लोगों के सरकार के प्रति अपनी असहमति व्यक्त करने के अधिकार के प्रति दुराग्रह नहीं रखता।

उन्होंने कहा, "संवैधानिक न्यायालय संवैधानिकता या किसी कानून के अनुसार निर्णय ले सकते हैं। लेकिन, एक लोकतांत्रिक राजव्यवस्था में, मनमाने और अन्यायपूर्ण कानून के खिलाफ असंतोष की अभिव्यक्ति हमेशा न्यायालयों की प्रक्रिया के माध्यम से नहीं होनी चाहिए, ये लोकप्रिय आंदोलनो के माध्यम से हो सकती है।" ।

मनोज कुमार के अनुसार सीएए एक वर्गीय कानून है, जिसका उद्देश्य देश के धर्मनिरपेक्ष ताने-बाने में "तोड़फोड़" करना है। उन्होंने कहा कि पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश के तीन देशों को समूहीकृत करने में या अन्य चयनित पड़ोसी देशों को छोड़कर लाभ को "चयनित अल्पसंख्यकों" तक सी‌मित करने में कोई विश्वशनीय तर्क नहीं है।

उन्होंने श्रीलंका के सताए गए तमिल मूल के हिंदुओं, नेपाल के हिंदू मधेसियों, भूटान के ईसाइयों, पाकिस्तान के अहमदिया और श‌ीयाओं, नेपाल के बौद्धों, म्यांमार के रोहिंग्याओं और श्रीलंका के मुस्लिमों के अधिनयम के दायरे से बाहर रखने के पीछे के तर्क पर सवाल उठाया है।

पाकिस्तान में बलूच, सिंधियों और मोहाजिरों के धार्मिक उत्पीड़न, मलेशिया में जातीय भारतीयों और श्रीलंका में फिजी और तमिलों के उदाहरणों का हवाला देते हुए, कुमार ने कहा कि उत्पीड़न केवल धार्मिक नहीं है और विभिन्न कारणों से हो सकता है। उन्होंने कहा कि सीएए के प्रावधान जो "धार्मिक पहचान पर आधार‌ित" हैं, देश को एक ऐसी स्थिति में डाल देता है, जहां उसे धर्म और राज्य में एक को चुनना पड़ेगा, जो संविधान के अनुच्छेद 14, 21 और 25 के अनुरूप भी नहीं है.

कुमार ने आगे कहा कि विरोध केवल एनडीए शासित राज्यों में ही हिंसक हुआ है और गैर-एनडीए शासित राज्यों में बड़े विरोध प्रदर्शन भी शांतिपूर्ण तरीके से हुए है, ये तथ्य बताने के ‌लिए पर्याप्त है कि हिंसा और रक्तपात के असली अपराधी कौन हैं।

"पूरे देश, राजनीतिक निष्ठाओं और धार्मिक विश्वासों से कटकर, सीएए और प्रस्तावित एनआरसी के विरोध में सड़कों पर हैं ..."

उन्होंने कहा कि हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि भारत के सभी नागरिकों को, उनकी धार्मिक आस्‍थाओं के बावजूद धर्मनिरपेक्ष संविधान के अनुच्छेद 14 के तहत प्रदत्त समानता के मूल अधिकार की गारंटी दी जाए।

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