हाई पावर कमेटी द्वारा सीबीआई निदेशक के पद से हटाए जाने के बाद आलोक वर्मा ने इस्तीफा दे दिया है। हालांकि कमेटी ने उन्हें फायर सेफ्टी, सिविल डिफेंस व होम गार्डस का महानिदेशक बनाया गया था और 31 जनवरी को वो रिटायर होने वाले थे।
DoPT के सचिव को लिखे अपने इस्तीफे में वर्मा ने कहा है कि हाई पावर कमेटी ने उन्हें सीवीसी रिपोर्ट पर पक्ष रखने का मौका नहीं दिया जो कि प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत के खिलाफ है। यहां तक कि जस्टिस पटनायक के सामने भी वो सीवीसी जांच के दौरान शामिल नहीं हुए थे। उन्होंने कहा कि वो चार दशक के कार्यकाल के दौरान दिल्ली, अंडमान निकोबार, मणिपुर और पुदुचेरी के अलावा तिहाड़ जेल व सीबीआई के निदेशक रह चुके हैं और उनके कार्यकाल में उनपर किसी तरह के आरोप नहीं लगे।
सीबीआई के निदेशक के तौर पर उन्होंने संस्थान के हित के लिए कदम उठाए लेकिन जिस तरह संस्थान को तोड़ने के लिए सीवीसी का सहारा लिया गया, उसके बाद इस पहलू पर नए सिरे से विचार करने की जरूरत है।
पत्र में ये भी कहा गया है कि भारतीय पुलिस सेवा के अधिकारी के तौर पर तो वो 31 जुलाई, 2017 को ही रिटायर हो चुके हैं। वो सीबीआई निदेशक के पद के दो साल के कार्यकाल के लिए ही सेवा में थे। अब उनको फायर सेफ्टी, सिविल डिफेंस व होम गार्डस का महानिदेशक बनाया गया है जबकि इस पद के कार्यकाल का वक्त वो पार कर चुके हैं।
दरअसल गुरुवार को सुप्रीम कोर्ट द्वारा सीबीआई निदेशक पद पर बहाल करने के कुछ ही घंटे बाद आलोक वर्मा को सीबीआई के निदेशक पद से हटा दिया गया। प्रधान मंत्री, सुप्रीम कोर्ट के जज जस्टिस ए. के. सीकरी और विपक्ष में सबसे बड़ी पार्टी के नेता मल्लिकार्जुन खड़गे की उच्चाधिकार प्राप्त समिति ने गुरुवार को हुई मीटिंग में ये फैसला लिया।
हालांकि खड़गे की राय इस मामले में अलग रही। इससे पहले आलोक वर्मा पर फैसले के लिए प्रधानमंत्री और नेता विपक्ष की हाई पावर कमेटी की बैठक में चीफ जस्टिस ने अपनी जगह पर सुप्रीम कोर्ट में वरिष्ठता में दूसरे क्रम के जज जस्टिस ए. के. सीकरी को नामांकित किया था।
माना जा रहा है कि चीफ जस्टिस ने इसलिए ये फैसला किया था क्योंकि उन्होंने आलोक वर्मा को छुट्टी पर भेजे जाने वाले मामले पर फैसला सुनाया था।
दरअसल 8 जनवरी 2019 को एक अहम आदेश में 23-24 अक्टूबर 2018 की रात को सीबीआई निदेशक के रूप में आलोक वर्मा के "रातोंरात" छुट्टी पर भेजे जाने के केंद्र सरकार और सीवीसी के आदेश को सुप्रीम कोर्ट ने रद्द कर उन्हें संस्थान के निदेशक पद पर फिर से बहाल कर दिया था। हालांकि पीठ ने कहा था कि हाईपावर कमेटी का फैसले आने तक वर्मा, निदेशक में तौर पर कोई भी बड़ा नीतिगत व संस्थानिक फैसला या नया कदम नहीं उठाएंगे।
फैसला सुनाते हुए भारत के मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई की अगुवाई वाली तीन जजों की पीठ ने कहा कि क़ानून न तो सरकार को और न ही केंद्रीय सतर्कता आयोग को यह अधिकार देता है कि वो सीबीआई प्रमुख के कार्यकाल में बाधा पहुंचाएं।
ये फैसला मुख्य न्यायाधीश गोगोई द्वारा लिखा गया जो फैसले वाले दिन छुट्टी पर थे। जस्टिस एस. के. कौल और जस्टिस के. एम. जोसेफ ने खुली अदालत में यह फैसला सुनाया था। न्यायमूर्ति कौल ने इस फैसले के अंश पढ़े।
फैसले में वर्मा के उस तर्क को सही ठहराया गया था जिसमे उन्होंने कहा था कि उन्हें प्रधान मंत्री, भारत के मुख्य न्यायाधीश और विपक्ष के नेता की उच्चाधिकार प्राप्त समिति की, जिसे डीएसपीई अधिनियम के तहत सीबीआई निदेशक की नियुक्ति की सिफारिश करने का वैधानिक अधिकार है, पूर्वानुमति के बिना सीबीआई के निदेशक पद से हटाया नहीं जा सकता है। क़ानून ने न तो सीवीसी को और न ही सरकार को उनके कार्यों और कर्तव्यों से विमुख करने की शक्ति दी है।
कोर्ट ने यह भी कहा था कि वर्मा पर फैसला करने के लिए उच्चाधिकार प्राप्त समिति को एक सप्ताह के भीतर बैठक करनी है।
अदालत ने अपने फैसले में यह भी कहा कि डीएसपीई अधिनियम में संशोधन करने और सीबीआई निदेशक की नियुक्ति की सिफारिश करने के लिए पीएम पैनल को सशक्त बनाने के पीछे की विधायी मंशा, राज्य और राजनीतिक दबाव से सीबीआई के कामकाज को मुक्त करना है।
इस बीच कोर्ट ने डीएसपीई एक्ट के अनुसार सीबीआई निदेशक के 'स्थानांतरण' की व्याख्या को भी विस्तारित कर दिया था, जिसका अर्थ है उनकी शक्तियों को सीमित करना। अधिनियम की धारा 4 में उनके वैधानिक दो साल के कार्यकाल समाप्त होने से पहले, सीबीआई से स्थानांतरित करने के लिए पीएम पैनल की पूर्व स्वीकृति की आवश्यकता है। उनके कार्यकाल में कोई भी बदलाव, चाहे सीबीआई निदेशक का स्थानांतरण हो या उनका अधिकार सीमित करने का कदम हो, पीएम पैनल की पूर्व स्वीकृति के साथ ही लिया जाएगा।
दरअसल पीठ ने वर्मा की याचिका और एनजीओ, कॉमन कॉज द्वारा दायर एक अन्य याचिका पर 6 दिसंबर, 2018 को फैसला सुरक्षित रखा था।