जब अवमानना की कार्रवाई का सामना करते हुए गांधी ने पत्रकारिता का बचाव किया
अशोक कीनी
आज राष्ट्रपिता मोहनदास करमचंद गांधी की 150वीं जन्मतिथि है।
महात्मा गांधी का जीवन ही दुनिया के लिए संदेश था। महात्मा ने अपने ख़िलाफ़ अवमानना की कार्रवाई से किस तरह पेश आए, यह जानना आज के लिए काफ़ी संगत होगा। प्रेस की स्वतंत्रता को वह कितना महत्त्व देते थे, इस वाक़ये से वह स्पष्ट होता है और इस मामले में उन्होंने अपना बचाव कैसे किया यह भी समझने लायक़ है।
गांधी और महादेव हरिभाई देसाई "यंग इंडिया" के संपादक और प्रकाशक थे। इस अख़बार में बॉम्बे हाईकोर्ट के रजिस्ट्रार को लिखे अहमदाबाद के ज़िला जज, बीसी केनेडी का एक पत्र उन्होंने छाप दिया जिसकी वजह से उनके ख़िलाफ़ अवमानना की कार्यवाही हुई। इस पत्र पर जो टिप्पणी थी उसे भी इन लोगों ने छाप दिया था, जो अभियोग लगाया था वह सारांशतः यह था कि यह एक निजी आधिकारिक पत्र था जो किसी कार्यवाही के संबंध में था जो कि उस समय अदालत में विचाराधीन थी। यह भी, कि अख़बार में जो टिप्पणी कि गई थी वह उस लंबित मामले पर थी।
शुरू में गांधी और बॉम्बे हाईकोर्ट के रजिस्ट्रार के बीच पत्राचार हुआ। गांधी ने कहा,
मेरी विनम्र राय में मैं एक पत्रकार के अधिकार के तहत ही इस पत्र का प्रकाशन किया है और उस पर टिप्पणी की है। मेरा विश्वास था कि यह पत्र आम दृष्टि से काफ़ी महत्त्वपूर्ण था और इसकी सार्वजनिक रूप से आलोचना होनी चाहिए।
इस अवमानना की प्रक्रिया के प्रत्युत्तर में गांधी ने अपने बयान में कहा,
"इस नियम को जारी करने से पहले मेरे और बॉम्बे हाईकोर्ट के रजिस्ट्रार के बीच में कुछ पत्राचार हुआ। 11 दिसंबर को मैंने रजिस्ट्रार को एक पत्र लिखा जिसमें मैंने अपने व्यवहार के बारे में पर्याप्त विस्तार से लिखा है। मैं, इसलिए इस पत्र की प्रति भी इसके साथ संलग्न कर रहा हूँ। मुझे इस बात का दुख है की मैं मुख्य न्यायाधीश की सलाह को स्वीकार नहीं कर सकता था। फिर, मैं उनकी यह सलाह इसलिए स्वीकार नहीं कर सकता था क्योंकि मैं नहीं समझता कि मैंने केनेडी के पत्र को प्रकाशित करके या इस पर टिप्पणी करके क़ानून को तोड़ा है या नैतिकता का उल्लंघन किया है। मैं आश्वस्त हूँ कि यह अदालत मुझे तब तक माफ़ी माँगने के लिए नहीं कहेगा जब तक कि वह अपनी उस कार्रवाई के लिए माफ़ी नहीं माँगता जो मैं एक पत्रकार का कर्तव्य होने के नाते पूरा किया है। इसलिए क़ानून को मानने के लिए अगर यह अदालत मुझे सज़ा देना चाहती है तो मैं उसे ख़ुशी-ख़ुशी आदरपूर्वक स्वीकार करूँगा"।
जब गांधी को अदालत में बुलाया गया तो उन्होंने अपने बयान को स्वीकार किया और कहा कि वह इस अदालत के किसी भी फ़ैसले को मानेंगे। हालाँकि, अदालत ने फ़ैसला दिया कि पत्र का प्रकाशन अवमानना की श्रेणी में आता है। अपने फ़ैसले में अदालत ने कहा,
"प्रतिवादी के मन में पत्रकार के वैध अधिकार के बारे में भ्रम हो सकता है। नहीं तो प्रतिवादी गांधी हमारे सामने यह नहीं कहते जो उन्होंने कहा है कि अगर कोई बेटा अपने बाप के ख़िलाफ़ अदालत में मुक़दमा करता है, और अगर एक पत्रकार को लगता है कि ग़लती बेटे की है, तो पत्रकार सार्वजनिक प्रेस में बेटे को सार्वजनिक उपहास का पात्र बनाने को उचित समझेगा बिना यह सोचे कि अभी इस मुक़दमे का फ़ैसला नहीं हुआ है। मुझे यह कहने की ज़रूरत नहीं है कि यह मंतव्य ग़लत है। हालाँकि, यह कहा जा सकता है कि इंग्लैंड में जो सिद्धांत काफ़ी परिचित है उसे भारत में ठीक से नहीं समझा गया है, और प्रतिवादी ने प्रेस की आज़ादी को ज़्यादा तरजीह दिया है न कि उससे या किसी अन्य ऐसे अधिकार से जुड़े दायित्वों की।"
पीठ ने इसके बाद गांधी और देसाई को सख़्त चेतावनी देते हुए इस मामले को ख़ारिज कर दिया और कहा कि दोनों भविष्य में अपने व्यवहार का ख़याल रखें।