"You were put here to protect us, But who protects us from you?"
अमेरिकन सिंगर KRS–one द्वारा गाये गाने की यह पंक्तियां सामाजिक परिपेक्ष्य में भी कही न कहीं सही प्रतीत होती है, क्योंकि सिविल सोसाइटी में पुलिस द्वारा की जाने वाली बर्बरता का हर एक व्यक्ति साक्षी है। ऐसे कृत्यों को कोई समाजिकतंत्र स्वीकार नहीं कर सकता, चाहे वह भारतीय समाज हो या पश्चिमी।
पुलिस बर्बरता यानि "Police Brutality", ये अभिव्यक्ति (term) सबसे पहली बार 19वीं शताब्दी के मध्य में ब्रिटन में प्रयुक्त कि गई थी। जानना आवश्यक है की इसका अर्थ क्या है — किसी व्यक्ति या व्यक्तियों के समूह के विरूद्ध विधि द्वारा प्रदत्त शक्तियों का अत्यधिक (excessive) या अवांछनीय(unwanted) रूप में प्रयोग करना। यह पुलिस द्वारा किए जाने वाले कदाचार का एक चरम रूप है और नागरिक अधिकारों का उल्लंघन भी परंतु यह बर्बरता मात्र मारपीट, गोलीबारी तक सीमित नहीं है; इसमें पब्लिक न्यूसेंस, संपत्ति से तोड़फोड़ और संप्तियों से अवैध निष्कासन इत्यादि भी शामिल हैं।
हमने अपने देश में ऐसे कई मामले देखे हैं जैसे– वर्ष 1980 का भागलपुर ब्लाइंडिंग्स केस, जिसमें पुलिस कस्टडी में अभियुक्त को एसिड डालकर अंधा कर दिया गया था। उसी प्रकार 1987 हाशिमपुरा नरसंहार, वर्ष 2017 के जल्लीकट्टू प्रोटेस्ट में पुलिस द्वारा अपनाया गया हिंसक तरीका और अभी ही वर्ष 2020 में पी.जयराज और बेनिक्स के मामले में पुलिस द्वारा कस्टडी में उनकी बर्बरतापूर्वक हत्या (कस्टोडियल डेथ) किसी से छुपी घटना नहीं है। न जानें ऐसे कितने मामले हैं जो आजतक कभी उजागर नहीं हुए होंगे, स्पष्ट है इनकी सूची रखना कठिन है।
हाल ही में "यातना के विरूद्ध अभियान" नामक संस्थान ने अपना प्राइवेट डेटा जारी करते हुए बताया कि गत वर्ष 195 व्यक्तियों की कई पुलिस हिरासत में मौत हुई है, जिन पर जांच अभी तक लम्बित है और कइयों पर यह शुरू ही नहीं हुई है। ये हमारी लचीली और ढीली प्रक्रिया और अनावश्यक "मजिस्ट्रेशियल ब्रेन यूजिंग" का ही दोष है।
आज के आधुनिक युग में अपराध के अन्वेषण और अभियुक्तों के तलाशी के लिए कई मॉडर्न तरीके उपलब्ध तथा यह सुलभ भी साबित हुए हैं, जैसे- फोरैंसिक साइंस, मोबाइल टावरों के माध्यम से घटना स्थल पर उपस्थिति लोकेट करना, फिंगर प्रिंट, डीएनए प्रोफाइलिंग, सीसीटीवी फुटेज, या अन्य उपयोगकारी मशीनों का इस्तेमाल इत्यादि, परंतु इन वैज्ञानिक तथा तकनीकी साधनों के बावजूद भी पुलिस द्वारा अमानवीय तरीके अपनाए जाते हैं।
इनके चलते अभियुक्तों को अत्यंत यातना दी जाती है। इस यातना के लिए साधारण से लेकर असाधारण तरीके तक अपनाए जाते हैं। कई बार पुलिस द्वारा ऐसे अमानवीय तरीके अपनाए जाते हैं जिन्हें सुनकर ही इंसानियत शर्मसार होने लगती है, जिसमें पीड़ित व्यक्ति को सिगरेट से जलाना, थूकना, निर्वत्र कर के उनकी पिटाई करना, सेक्सुअल फेवर मांगना तथा इलैक्ट्रिक झटके देना भी शामिल है और ऐसे अन्य कई प्रकार जिसका जिक्र तक किया जाना एक मानव समाज में उचित नहीं होगा। कई पीड़ितों को स्थायी क्षति का भी सामना करना पड़ता; उनमें से अधिकांश शर्म से डॉक्टरों के पास जाने का साहस नहीं जुटा पाते और ऐसे ही मानसिक पीड़ा में अपना जीवन व्यतीत कर देते हैं।
इसके साथ ही हमें एक और दृष्टिकोण देखने को मिलता है, जैसे हमारे बीच रहने वाले लोग ही इस क्रूरता की सराहना करते हैं, हम आम तौर पर सोशल मीडिया पर देखते हैं लोग ट्वीट या कॉमेंट करते है कि "पुलिस ने अच्छा किया इनकी मारपीट कर के, इनके साथ यही होना चहिए" और जबकि ये लोग वास्तविक घटना से परिचित ही नहीं होते।
• पुलिस के विषय में सामान्य परिचय :-
1. पुलिस अधिकारी वह व्यक्ति है जो पुलिस फोर्स का सदस्य है। इसकी कोई उचित परिभाषा तो नहीं है लेकिन दंड प्रक्रिया संहिता(CRPC) में इसके क्षेत्राधिकार, अधिकार, शक्तियों का उलखेल मिलता है, जिसमें आपराधिक मामले का अन्वेषण(investigation) करना, अभियुक्तों की गिरफ्तारी, तलाशी, सीजर (seizure), बरामदगी(recovery) करना और पुलिस रिमांड पर लेना या चार्जशीट पेश करना इत्यादि शामिल हैं।
2. भारत में पुलिस दल का गठन ब्रिटिश औपनिवेशिकता (British colonialism) की देन है, जिसे लॉर्ड कॉर्नवालिस द्वारा भारत में सर्वप्रथम बार घोषित किया गया था।
3. पुलिस अधिनियम 22 मार्च,1861 को अधिनियमित किया गया था तथा यह आंतरिक सुरक्षा विभाग के अंतर्गत आता है। इस अधिनियम में एक पुलिस अधिकारी के राज्य के प्रति अधिकार और दायित्वों का वर्णन किया गया है। इसके अनुरूप ही अपने कार्यों का निष्पादन करेगा, लेकिन यदि कोई कदाचार या कर्तव्य उल्लंघन किया जाता है तो वह इस एक्ट की धारा 29 के अधीन दंडित किया जायेगा।
4. धारा 29 पुलिस एक्ट,1861 के अनुसार— प्रत्येक पुलिस-अधिकारी जो कर्तव्य के उल्लंघन या किसी नियम या विनियम या सक्षम प्राधिकारी द्वारा किए गए वैध आदेश के जानबूझकर उल्लंघन या उपेक्षा का दोषी होगा, या जो कर्तव्यों से हट जाएगा अपने कार्यालय की अनुमति के बिना, या दो महीने की अवधि के लिए पूर्व सूचना दिए बिना, 5 या जो, छुट्टी पर अनुपस्थित होने के कारण, उचित कारण के बिना, ऐसी छुट्टी की समाप्ति पर स्वयं को ड्यूटी के लिए रिपोर्ट करने में विफल हो जाएगा,] या जो अपने पुलिस-ड्यूटी के अलावा किसी अन्य रोजगार में अधिकार के बिना संलग्न होगा, या जो कायरता, या जो अपनी हिरासत में किसी भी व्यक्ति को किसी भी अनुचित व्यक्तिगत हिंसा की पेशकश करेगा, मजिस्ट्रेट के समक्ष दोषसिद्धि पर, तीन महीने के वेतन से अधिक के दंड के लिए, या सश्रम कारावास के साथ एक अवधि के लिए उत्तरदायी होगा।
• कारण-
1. पुलिस के पास असीमित शक्तियों का होना।
2. सरकारी दबाव में आ कर मस्तिष्क का प्रयोग किए बिना कर्तव्यों का निष्पादन करना।
3. अशिक्षा एवं गरीबी, क्योंकी निचले तबके के व्यक्तियों के साथ शक्तिशाली लोगों द्वारा अन्याय अधिक किया जाता रहा है।
4. पुलिस अधिकारियों पर किसी उच्च प्राधिकारी या समिति का कोई नियंत्रण नहीं होना, जो ऐसे मामलों का कोई रिकार्ड रखते हो या लचीलापन और छुट अधिक मात्रा में दि गई हो।
5. सुप्रीम कोर्ट द्वारा जारी दिशानिर्देशों की अवहेलना करना तथा राज्य सरकार द्वारा कोई उचित कदम उठाने ना जाने में उदासीनता बरतना।
6. अन्य ऐसे नियमों जिनका कठोरता से लागू किया जाना आवश्यक है, में अभाव का होना।
7. राज्य सरकारों और प्रशासन के एक-दूसरे में निहित हितों(vested interests)का होना।
8. केवल और केवल तकनीकी आधारों पर पारित रिमांड आदेश।
• सुझाव-
1. हर पुलिस अधिकारी को स्वयं को लोक सेवक मानते हुए प्रक्रिया विधि में वर्णित प्रावधानों की उचित और उपयुक्त पालना करनी चाहिए।
2. पुलिस स्टेशन पर उचित सीसीटीवी कैमरा लगाया जाना चाहिए। जो राज्य सरकार द्वारा निर्मित कंट्रोल बोर्ड से नियंत्रित किया जाता हो।
3. एक न्यायिक समिति का गठन किया जाए तो स्थानीय पुलिस थानों की न्यायिक जांच करने में सक्षम हो। जिसकी अध्यक्षता स्थानीय जिला न्यायाधीश द्वारा की जाए।
4. राज्य सरकारों या गैर सरकारी संस्थाओं द्वारा जनता को उनके अधिकारी के प्रति जागरूक करना तथा ऐसी वर्कशॉप का आयोजन करना।
5. हर उच्च प्राधिकार द्वारा विधि में वर्णित नियमों को लागू करते हुए सख्त से सख्त कार्यवाही करना और ऐसी जेलों का समय समय पर निरक्षण करना।
6. समाज में कानून और प्रशासन में मध्य एक पारदर्शिता स्थापित करना।
7. राज्य सरकार द्वारा प्रतिवर्ष एक टीम गठित किया जाना, जो अपने आपने जिलों में स्थित अभिरक्षाओ/जेलों में हो रही पुलिस यातनाओं पर प्रतिबंध लगती हो।
8. और अन्तिम, न्यायालय द्वारा पुलिस रिमांड मात्र तकनीकी आधारों पर नहीं दिया जा कर न्यायिक मूल्य को ध्यान में रखते हुए दिया जाना चाहिए।
• उपचार, जो नागरिकों को पुलिस उत्पीड़न के विरुद्ध उपलब्ध हैं-
1. अनुछेद 21 तथा 22 के अधीन प्रदत्त मूल अधिकार और यातना के विरूद्ध प्रतिकार पाने का अधिकार।
2. सीआरपीसी की धारा 50, 50A - के अंतर्गत गिरफ्तारी के कारणों को जानने और परिचित व्यक्तियों को सूचना देने का अधिकार।
3. सीआरपीसी धारा 57- 24 घंटो के भीतर निकटम मजिस्ट्रेट के समक्ष उपस्थित होने का अधिकार।
4. सीआरपीसी की धारा 41d - अनुसार अपने अधिवक्ता से अभिरक्षा में रहने के दौरान समय समय पर मिलने का अधिकार।
5. सीआरपीसी की धारा 54- अभिरक्षा में रहने के दौरान अपना मेडिकल टेस्ट करवाने का अधिकार।
6. निशुल्क विधिक सहायता प्राप्त करने का अधिकार (अनुच्छेद 21,39A और धारा 304 सीआरपीसी)
7. धारा154/200 सीआरपीसी- में ऐसे पुलिस प्राधिकारी के विरुद्ध परिवाद दायर करने का अधिकार भी है, क्योंकि भारतीय दंड संहिता (IPC) ऐसे कई अपराधों का वर्णन किया गया है, जो लोक सेवक द्वारा उसकी पदीय प्रस्थिति (official capacity) में किए जाते हैं।
• निष्कर्ष-
वैश्विक मानवाधिकारों की घोषणा[UDHR] नागरिकों को जीवन जीने का अधिकार, स्वतंत्रता एवं सुरक्षा प्रदान करती है। अनुच्छेद 3,5 और 9 मानवीय यातनाओं, अवैध गिरफ्तारी, निरुद्धिकरण(detention) इत्यादि से सरंक्षण प्रदान करते हैं, परंतु इसके उपरांत भी हिरासत में यातना जैसी समस्याएं आज भी समाज में मौजूद हैं। इन्हीं गतिविधियों को मद्दे नजर रखते हुए देश के मुख्य न्यायाधीश एनवी रमाना का बयान भी सामने आया है। उनका कहना है कि "पुलिस थानों में न तो मानवीय अधिकार सुरक्षित हैं और न ही शारीरिक तौर पर कोई व्यक्ति सुरक्षित रह सकता है।
वैश्विक स्तर पर प्रदत्त संवैधानिक घोषणाओं तथा गारंटियों के बावजूद भी प्रभावशाली कानून इसका प्रतिनिधित्व नहीं कर पाया है, इसलिए पुलिस ज्यादतियों पर नजर रखने के लिए कानूनी सहायता के संवैधानिक अधिकार बारे लोगों तक जानकारी पहुंचाना बहुत जरूरी है।"
इस चिंतनकारी विषय पर हमारी न्यायपालिका और कार्य पालिका को साथ समर्थनकारी कदम उठाने होंगे।
• नोट- आलेख के विषय में लेखक के विचार व्यक्तिगत हैं