न्यायिक चुप्पी 'निर्वाचित के अत्याचार' की पुष्टि करती: पूर्व मुख्य न्यायाधीश को एक जवाब
अप्रत्याशित कोनों से कोर्ट पर, विशेष कर सुप्रीम कोर्ट पर लगातार दबाव बनाया जा रहा है कि वो गंभीर राष्ट्रीय मसलों, विशेष रूप से प्रवासी संकट में हस्तक्षेप न करें। सरकारों की लगातार निष्क्रियता का परिणाम यह है कि लाखों प्रवासी मजदूरों के जीवन अकल्पनीय दुखों का ढेर लग गया है, वो सड़कों पर पैदल चल रहे हैं। भोजन, पानी, जीवन के आवश्यक साधनों की कमी से जूझ रहे हैं। इस कठिन दौर में, अदालतों को हस्तक्षेप न करने की सलाह देना आंख पर पट्टी बांधने जैसा है।
दूसरा मशविरा श्री आरसी लाहोटी (पूर्व सीजेआई) की ओर से आया है, जिनकी थीम है, 'अनिर्वाचित का अत्याचार'। मैं कोर्ट के हस्तक्षेप के खिलाफ श्री हरिश साल्वे के बयान की सराहना कर सकता हूं।
दूर बैठकर उन्हें भूखे प्रवासियों की रोजमर्रा की दुर्दशा, पुलिस की बर्बरता, बेरोजगारी और सुरक्षित घर लौटने की कोशिशों से वह वाकिफ नहीं हो सकते। हालांकि श्री लाहोटी को ऐसा करते हुए सुनना वाकई आनंददायक और आश्चर्यजनक है। यह मुझे याद दिलाता है कि जस्टिस कौल ने "मेरे प्रलाप के बाद" क्या कहा था। यह उसी गाथा में एक और कहानी है कि 'मेरे बाद प्रलय है'। यह मुझे महाभारत की गांधारी की याद दिलाता है। श्री लाहोटी दुख को कैसे भूल सकते हैं?
इससे पहले कि हम 'अनिर्वाचित' के हस्तक्षेप पर उनकी आपत्तियों का विश्लेषण करें, मुझे यह बताने दें कि सभी ने क्या देखा था। लॉकडाउन को कठोरता के साथ लागू किया गया। सड़कों, राजमार्गों और रेलवे से लोगों की आवाजाही रोकने के लिए परिवहन के सभी साधनों को बंद किया गया। सभी गतिविधियों और व्यवसायों को बंद करने का गरीबों और प्रवासियों पर सबसे ज्यादा असर पड़ा। ये वे लोग हैं, जिनके रोजगार छीन लिए गए और क्या उनके पास एक सप्ताह या दस दिनों तक की व्यवस्था के लिए भी पैसे थे, जबकि वे वे बेहद कम वेतन पाते हैं। चूंकि लॉकडाउन शुरुआत में में 3 सप्ताह के लिए था, जिसके आगे बढ़ने की पूरा संभावना थी, जिसके बाद उन्होंने अपने घरों को वापस लौटने का कठोर फैसला किया।
परिवहन के साधनों पर रोक लगाकर, उन्हें जाने से रोक दिया गया। ऐसी विकट स्थिति में, उन्होंने पैदल अपने घरों को लौटने का कठिनतम विकल्प चुना। उन्हें परवाह नहीं थी कि वे पहुंच पाएंगे या नहीं। यह जानने के लिए बहुत अधिक कल्पना या दीमाग पर जोर डालने की जरूरत नहीं है कि उन्होंने ऐसा कठिन विकल्प क्यों चुना।
फिर भी मैं उन लोगों की सुविधा के लिए, जिन्होंने आंखों पर पट्टी बांध रखी है, संक्षेप में इस पर अपनी बात कहूंगा। मैं उनके लिए 'संजय' (महाभारत) के रूप में काम करता हूं। यह अविश्वसनीय है कि, जिस किसी ने 21 वीं सदी के भारत में दुख का सबसे बुरा दृश्य देखा, वह मीडिया आधारित साक्ष्यों पर संदेह कर सकता है और सत्यापन का मांग कर सकता है।
क्या श्री लाहोटी का मतलब यह है कि जजों को या तो कोकून में रहना चाहिए या आंखों पर पट्टी बांध लेनी चाहिए, और जजों को यह शोभा नहीं देता कि वो मानवीय दुखों के कारण द्रवित हों? यहां मेरा एक सवाल है। मान लीजिए, श्री लाहोटी के समक्ष, एक सिटिंग जज के रूप में, मीडिया में आई खबरों के आधार पर एक जनहित याचिका दायर की गई होती, कि एक बड़े हिस्से में अकाल पड़ा है और लोग भूख से मर रहे हैं। उनकी प्रतिक्रिया क्या होगी? भूख से मरना अकल्पनीय क्रूरता है, साथ ही तिरस्कार भी है। क्या तब वह सबूतों या बयानों की शुद्धता परखेंगे, जैसा कि अदालतें आमतौर पर करती हैं, या पीड़ा को कम करने के सकारात्मक हस्तक्षेप करेंगे?
यदि कार्यपालिका की निष्क्रियता या निर्देशन की कमी की शिकायत है तो क्या न्यायालयों को कार्यपालिका को कार्य करने के लिए बाध्य नहीं करना चाहिए? उत्तर खुद ही स्पष्ट होगा, जब कोई सॉलिसिटर जनरल की अनुचित दलीलों पर विचार करता है, जिनसे प्रवासियों के दुखों को पहचानने और उस पर कार्रवाई करने की सरकार की अनिच्छा दिखती है।
प्रवासियों के मसले पर अदालतों को आत्म संयम बरतने की श्री लाहोटी कर सलाह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है। यह मुख्य रूप से निम्नलिखित कारणों पर आधारित है:
-'अनिर्वाचित न्यायालयों' के पास कथनों की सत्यता को सत्यापित करने के लिए कोई एजेंसी नहीं है।
- न्यायाधीशों की धारणाएं निजी हैं, और जरूरी नहीं कि वे सार्वजनिक दृष्टिकोण को प्रतिबिंबित करें।
-न्यायिक आदेश में ग़लती, भले ही गंभीर हो, ठीक नहीं की जा सकती है।
-न्यायालय ऐसे आदेश या डिक्री जारी ना करे, जिन्हें लागू करवाने, निष्पादित करवाने या पर्यवेक्षण करने में सक्षम नहीं हो।
-लोकतंत्र के तीनों स्तंभों को एक दूसरे पर भरोसा करना चाहिए और यह नहीं मानना चाहिए कि दूसरा स्तंभ लड़खड़ा गया है।
-अधिकारियों को आलोचनाओं का डर है, इसलिए, नए प्रयोग करना बंद कर देते हैं।
-यह सरकार को उसकी प्राथमिकताओं और रणनीतियों से भटका सकता है।
-कार्यकारी के साधन असीमित नहीं हैं।
यदि कोई लेखक की आशंकाओं पर विचार करे तो अदालतों को हस्तक्षेप नहीं करने की दी गई सलाह के मंतव्य को समझने से खुद को रोक नहीं सकता। आश्चर्यजनक रूप से, "अनिर्वाचित का अत्याचार" तर्क एक बार फिर से उठाया गया है, हालांकि इस बार लबादा अलग है।
लेखक का इरादा तब स्पष्ट हो जाता है, जब आप एक परिचित वाक्यांश "न्यायाधीश नियुक्त किए जाते हैं, चुने नहीं जाते हैं" को नोटिस करते हैं। यह वाक्य ही, उस सामयिकता के अलावा, जिसमें श्री लाहोटी चौतरफा तबाही के बावजूद "कार्यकारी की निष्क्रियता" का पक्ष लेत हैं, लेख के इरादे को स्पष्ट कर देता है। वह "निर्वाचित के अत्याचार" का समर्थन करना चाहते हैं। वह स्वीकार करते हैं कि गरीबों और दबे-कुचले तबकों के लिए सुप्रीम कोर्ट ने अनुच्छेद 32 के तहत पीआईएल का प्रावधान तैयार किया है। इसे वह "न्यायिक सक्रियता" कहते हैं, जिससे लोगों को तब त्वरित राहत मिलती है, जबकि वह कार्यपालिका से राहत पाने में अक्षम होते हैं।
यदि यह कानूनी और संवैधानिक स्थिति है, तो समस्या कहां है? क्या अदालतों को उन प्रवासियों की दुर्दशा पर ध्यान नहीं देना चाहिए, जो हजारों किलोमीटर तक खाली जेब, बिना भोजन और पानी के सड़कों और हाईवे पर पैदल जा रहे हैं। क्यो उन्हें परिवहन के साधनों सहित तत्काल सहायता नहीं करनी चाहिए?
एक बार फिर यह मुद्दा मौलिक अधिकारों की त्रिमूर्ति यानी अनुच्छेद 14, 19 और 21 पर लौट आया है। इनके निहितार्थ बखूबी तय किए गए हैं। वे लोगों को गरिमा के साथ जीवन बीताने के अधिकार को न्यायालयों के जरिए सुरक्षित करने में सक्षम बनाते हैं। क्या पिछले दो महीनों में किसी ने भी प्रवासियों के साथ किसी भी प्रकार का सम्मानजनक व्यवहार देखा है? बच्चों के साथ चिलचिलाती धूप में या रात के अंधेरे में बिना भोजन और पानी के बिना, हजारों मील पैदल चल रहे परिवारों के दृश्य, क्या इसे गरिमापूर्ण व्यवहार के तीनों अनुच्छेदों, विशेष रूप से अनुच्छेद 21 के अनुरूप माना जा सकता है। सिविल सोसायटी प्रवासियों के दुख को कम करने का आग्रह करने अदालतों को छोड़कर कहां जा सकती है।
जब डॉ अंबेडकर को संविधान के एक ऐस प्रावधान का उल्लेख करने का कहा गया था, जो उन्हें सबसे महत्वपूर्ण लगता हो, तो उन्होंने अनुच्छेद 32 पर उंगली रखी थी और संविधान की आत्मा बताया था। अनुच्छेद 32 भाग 3 में अन्य मूल अधिकारों को लागू करने के लिए दिया गया एक मौलिक अधिकार है। एक न्यायाधीश अन्य संवैधानिक अधिकारियों से अलग एक अद्वितीय शपथ लेता है। "संविधान को बनाए रखना" अन्य शपथों से अलग इस शपथ की प्रमुख विशेषता है। इसलिए, क्या यह ठीक होगा कि जज अपने संवैधानिक शपथ के इतर संकट के ऐसे समय में हस्तक्षेप करने में विफल रहे?
मेरा प्रश्न यह है कि ये सभी लोग न्यायालयों को न्यायपूर्ण होने को क्यों कह रहे हैं? इस अपूर्व त्रासदी के दौर में अदालतों को मूक दर्शक बने रहने की बात कहना 'अनिर्वाचित के अत्याचार' की धुन को दोहराना है। न्यायिक समीक्षा के क्षेत्र में न्यायालयों को उनकी सीमाओं को याद दिलाने के लिए इतना शोध और प्रयास क्यों हो रहे हैं?
सुप्रीम कोर्ट ने अनुच्छेद 14, 19 और 21 में निहित मौलिक अधिकारों को लागू करने के लिए एक महत्वपूर्ण संवैधानिक उपकरण के रूप में जनहित याचिका की प्रगतिशील अवधारणा का चयन किया है। लगभग 30 से 40 साल पहले ऐसा करने के बाद अब हमारे दौर की सबसे बड़ी त्रासदी का सामना करने से क्यो हिचक रह है? लाखों भारतीयों के अकल्पनीय दुखों और अपमान का कारण रही निर्वाचितों की निष्क्रियता का सामना क्यों नहीं करना चाहिए?
इसमें कोई संदेह नहीं है कि श्री लाहोटी द्वारा ऊपर दी गई आपत्तियां साधारण समय के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण हैं, लेकिन अनुच्छेद 32, अनुच्छेद 142 के साथ पढ़ें, के तहत न्यायालय के विस्तारित क्षेत्राधिकार की तन्यता को बाधित नहीं कर सकती है। यही कारण है कि संविधान न्यायालय की न्यायिक समीक्षा की शक्ति को परिभाषित करते हुए सामान्यतया विस्तारणीय और लचीली शब्दावली का प्रयोग करता है।
श्री लाहोटी को महसूस करना चाहिए कि एक अवधारणा है जिसे 'चेक और बैलेंस' कहा जाता है और यह किसी भी संघीय ढांचे का निहित और अभिन्न हिस्सा होती है। हमारा संविधान, जो कि जैविक है, को एक गतिशील अवधारणा में विकसित होने के लिए तैयार किया गया है, जिसे वर्तमान संकटों जैसी गंभीर परिस्थितियों से जूझने के लिए तैयार किया जा सकता है।
यह कॉन्सेप्ट एक बेहतरीन लेवलर और बैलेंसर है। यह आवश्कता की स्थिति में संघीय ढांचे के विभिन्न अंगों की बीच सामंजस्यपूर्ण कार्यशीलता को सुनिश्चित करता है। यह राज्य के तीनों अंगों के बीच सामंजस्य स्थापित करता है। न्यायिक समीक्षा इस सामंजस्यपूर्ण संतुलन को लागू करने का एक महत्वपूर्ण उपकरण है। यह उपकरण समान रूप से लोचदार भी है। संविधान कहता है कि लोकतंत्र में 'चेक एंड बैलेंस' का सिद्धांत और न्यायिक समीक्षा के उपकरण जनकल्याण के लिए इस्तेमाल किया जाए। इसलिए, न्यायिक समीक्षा का मुख्य उद्देश्य जनकल्याण है। उपरोक्त अवधारणाओं और विस्तार को ध्यान में रखते हुए, कार्यपालिका की निष्क्रयता निष्क्रियता को खत्म करने के लिए सुप्रीम कोर्ट द्वारा न्यायिक समीक्षा की अपनी शक्ति का इस्तेमाल करना, कतई गलत नहीं लगता।
एक जज अपनी शपथ की अवहेलना करके ही खुद को ऐसे मामलों से दूर रख सकता है। शायद श्री लाहोटी इस बारे में भूल गए। आलोचनाओं के क्रोध को आकर्षित करने के लिए न्यायालयों ने क्या किया?
उन्होंने केवल केवल प्रवासियों के दुख को देखा। उन्होंने देखा कि केंद्र और राज्य सरकारें इस बात पर लड़ रही हैं कि रेलवे के किराए के भुगतान के लिए कौन जिम्मेदार है। क्या भारत के गरीब नागरिकों का अपमान नहीं किया जा रहा है? चुप रहना का मतलब यही होगा कि "निर्वाचित के अत्याचार" का साथ दिया जा रहा है। मेरे मन में कोई संदेह नहीं है कि सरकारों को भोजन, पानी और परिवहन प्रदान करने को कहकर न्यायालयों ने अपनी संवैधानिक जिम्मेदारियों का निर्वहन किया। अगर सरकारों के मन में लोक कल्याण है तो उन्हें विवश क्यों होना चाहिए? श्री लाहोटी को अपनी आंखों पर लगी पट्टी को हटा देना चाहिए और खुले तौर पर उनके साथ खड़ा होना चाहिए, जिनकी "अनिर्वाचित का अत्याचार" कहकर आलोचना की जा रही है।
यह लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं।