साक्ष्य के विलुप्तिकरण का क्या परिणाम होता है?

Update: 2023-05-31 14:15 GMT

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—William Shakespeare, Macbeth

अक्सर कई बार ऐसा देखा जाता है कि अपराधी के नजदीकी या कोई अन्य हितबद्ध व्यक्ति उसे कानूनी दंड से बचाने के इरादे से अपराध के साक्ष्य (evidence) को गायब कर देते हैं या कोई प्रकार की गलत जानकारी देकर अपराधी को बचाने के लिए पूरी कोशिश करते हैं, जिससे या तो उसको सजा ना मिल सके या कम दंड की सजा मिले।

ऐसा किया जाना एक मानव आचरण के लिए स्वाभाविक या प्राकृतिक है, लेकिन सहायता कर के ऐसे व्यक्ति स्वयं भी अपराधी की श्रेणी में आ सकते हैं, इसलिए भारतीय दंड संहिता(IPC) की धारा 201 के अंतर्गत किसी अपराध से संबंधित साक्ष्य का गायब करने और मिटाने के विषय में आपराधिक दायित्व को परिभाषित किया गया है। इसके अनुसार जो कोई अपराध के साक्ष्य का विलोपन (गायब करना या मिटाना), या अपराधी को प्रतिच्छादित करने के आशय से कोई कार्य करता है, वह इस धारा के अंतर्गत अभियोजित किया जा सकता। इसलिए एक विशेष उपबंध होने के कारण आइए जानते हैं कि IPC की धारा 201 इस बारे में क्या बताती है।

अपराध के साक्ष्य का विलोपन, या अपराधी को प्रतिच्छादित करने के लिए मिथ्या इत्तिला देना-

“जो कोई यह जानते हुए या यह विश्वास करने का कारण रखते हुए कि कोई अपराध किया गया है, उस अपराध के किए जाने के किसी साक्ष्य का विलोप इस आशय से कारित करेगा कि अपराधी को वैध दंड से प्रतिच्छादित करे या उस आशय से उस अपराध से संबंधित कोई ऐसी इत्तिला देगा, जिसके मिथ्या होने का उसे ज्ञान या विश्वास है;

1.यदि अपराध मृत्यु से दंडनीय हो- यदि वह अपराध जिसके किए जाने का उसे ज्ञान या विश्वास है, मृत्यु से दंडनीय हो, तो वह दोनों में से किसी भांति के कारावास से जिसकी अवधि सात वर्ष तक की हो सकेगी, दंडित किया जाएगा और जुर्माने से भी दंडनीय होगा।

2.यदि आजीवन कारावास से दंडनीय हो- और यदि वह अपराध आजीवन कारावास से, या ऐसे कारावास से, जो दस वर्ष तक का हो सकेगा, दंडनीय हो, तो वह दोनों में से किसी भांति के, कारावास से, जिसकी अवधि तीन वर्ष तक की हो सकेगी दंडित किया जाएगा और जुर्माने से भी दंडनीय होगा।

3.यदि दस वर्ष से कम के कारावास से दंडनीय हो- और यदि वह अपराध ऐसे कारावास से इतनी अवधि के लिए दंडनीय हो, जो दस वर्ष तक की न हो, तो वह उस अपराध के लिए उपबंधित भांति के कारावास से उतनी अवधि के लिए, जो उस अपराध के लिए उपबंधित कारावास की दीर्घतम अवधि की एक-चौथाई तक की हो सकेगी या जुर्माने से, या दोनों से, दंडित किया जाएगा।

इस धारा को प्रभाव में लाने के लिए एक साक्ष्य का विलोपन होना आवश्यक है। साक्ष्य का अर्थ है किसी तथ्य को स्पष्ट करने के लिए कोर्ट के समक्ष पेश की सामग्री। ‘एविडेंस’ लैटिन शब्द ‘एविडेंसीया’ से लिया गया है, जिसका अर्थ है ‘स्पष्ट रूप से प्रदर्शित करना, आंखों को स्पष्ट करना, स्पष्ट रूप से कुछ निश्चित करना, पुष्टि करना या साबित करना।‘ इसलिए, सबूत कुछ भी है जिसका उपयोग विवादित तथ्य के अस्तित्व या अस्तित्व को स्थापित या अस्वीकार करने के लिए किया जा सकता है। साक्ष्य अधिनियम की धारा 3 में इसकी तकनीकी परिभाषा बताई गई हैं जो की इस प्रकार है — साक्ष्य का अर्थ है और इसमें शामिल हैं-

1. जांच के तहत तथ्य के मामलों के संबंध में अदालत गवाहों द्वारा उसके सामने किए जाने वाले सभी बयानों की अनुमति देती है या आवश्यकता होती है; ऐसे बयानों को मौखिक साक्ष्य कहा जाता है।

2. न्यायालय के समक्ष निरीक्षण के लिए पेश किए गए कोई दस्तावेज़ या इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड को दस्तावेजी साक्ष्य कहा जाता है।

यह धारा मात्र साक्ष्य के प्रकार बताती है, इसके अतिरिक्त भी अधिनियम में अन्य कई प्रकार के साक्ष्य शामिल है। जब न्यायालय के समक्ष कोई साक्ष्य पेश किया जाता है और ऐसा साक्ष्य अपराध से प्रत्यक्ष रूप से संबंधित है तब यदि कोई व्यक्ति, जो साक्ष्य से छेड़खानी करता है या ऐसा कार्य करता है जिससे उस तक पहुंच पाना नामुमकिन हो जाए या साक्ष्य को घटना स्थल से हटा देता है तब धारा 201 आकर्षित होती है। क्योंकि न्यायालय में तथ्यों को मात्र और मात्र साक्ष्यों द्वारा ही साबित किया जा सकता है इसकारण साक्ष्य का शुद्ध और प्रमाणित होना आवश्यक है। इसलिए ऐसे अपराध को साबित करने के लिए अपराधी द्वारा निम्नलिखित कृत्यों का किया जाना जरूरी है, जैसे —

1. साक्ष्य का गायब होना और गलत जानकारी देना, साक्ष्य के गायब होने के मुद्दे से निपटना, जहां मुख्य तत्व इस प्रकार हो सकते हैं।

2. किए गए अपराध से सबूत गायब होना चाहिए, इसका मतलब है कि अपराध किया गया होगा।

3. अभियुक्त को किए गए अपराध का ज्ञान होना चाहिए, अपराधी को सजा से बचाने के लिए सबूत गायब करने का पूरा आशय होना चाहिए।

उपरोक्त में से किसी तत्व के मौजूद होने पर अभियोजन पक्ष मामले को संदेह से परे साबित कर सकेगा। परंतु इन तीनों तत्वों का प्रयोग तकनीकी कठोरता से नहीं किया जा सकता है क्योंकि जब मुख्य अपराध और साक्ष्य को विलोपित करके वाली परिस्तिथिया भिन्न हो तब इस धारा का ठहरना अनुचित है।

जानना आवश्यक हैं कि धारा 201 की प्राथमिक आवश्यकताओं में से एक यह है कि अपराध वास्तविक तौर पर घटित हुआ हो। ऐसा इसलिए है क्योंकि किसी अपराध के साक्ष्य को गायब करने या अपराधी को छिपाने का सवाल तब तक नहीं उठता जब तक कि कोई वास्तविक अपराध हुआ ही न हो। इसे सर्वप्रथम, पलविंदर कौर बनाम पंजाब राज्य,1952 के मामले में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा तय किया गया था कि —

• धारा 201 के तहत, अभियुक्त को दोषी ठहराने के लिए मात्र संदेह अपर्याप्त है। यह प्रदर्शित करने के लिए फ़ाइल पर कुछ ठोस सबूत होने चाहिए कि अभियुक्त ने किसी अन्य व्यक्ति, ज्ञात या अज्ञात को बचाने के लिए सबूतों से नष्ट या विलोपित किया है। उसे इस बात की जानकारी होनी चाहिए या उसके पास संदेह करने के लिए उचित आधार होना चाहिए कि कोई अपराध किया गया है।

• हालांकि, यह महत्वपूर्ण है कि धारा 201 के तहत अपराध प्रकृति में मुख्य अपराध से अलग है, भले ही इसे मुख्य अपराध के शरीर से अलग नहीं किया जा सकता है। यह एक गंभीर अपराध है। नतीजतन, भले ही किसी को प्राथमिक अपराध का दोषी नहीं ठहराया गया हो, उस व्यक्ति को धारा 201 के तहत दोषी पाया जा सकता है। मुख्य आरोप से बरी होने के बावजूद, धारा 201 के तहत सजा संभव है यदि प्रावधान के आवश्यक तत्व पूरे होते हैं।

• यह भी साबित किया जाना चाहिए कि धारा 201 के तहत आरोपी व्यक्ति को अपराध के आचरण का ज्ञान था या उसके पास पर्याप्त जानकारी थी जिससे उसे लगता है कि अपराध किया गया था। इस धारा में प्रयुक्त ‘अपराध’ शब्द का अर्थ यह नहीं है कि अभियुक्त को किए गए अपराध की सटीक प्रकृति या IPC की विशिष्ट धारा के बारे में पता होना चाहिए जिसके तहत अपराध को वर्गीकृत किया गया है। यदि यह ज्ञान है कि कोई अपराध किया गया है, तो यह पर्याप्त है।

एक अन्य मामले, शमीम रहमानी बनाम उत्तर प्रदेश राज्य1975 में आरोपी शमीम ने डॉक्टर की घर में ही गोली मार कर हत्या कर दी। शमीम के छोटे भाई ने इसकी सूचना बड़े भाई को दी। शमीम के बड़े भाई ने अधिकारियों को बताया कि छोटे भाई ने उसे बताया था की उसे नहीं पता शमीम ने बंदूक कैसे निकाली और कैसे गोली चली लेकिन इसने मृतक को गोली मार दी और वह गिर गया और खून बह रहा था। अभियोजन पक्ष ने कहा कि शमीम के भाई को पता था कि उसकी बहन ने हत्या की है, लेकिन उसने अपनी बहन को बचाने के लिए यह बयान दिया।

सुप्रीम कोर्ट ने पाया कि शमीम के बड़े भाई की समझ उसके छोटे भाई द्वारा प्रदान की गई जानकारी पर आधारित थी और वह इस बात से अनजान था कि क्या मृतक की चोटों के कारण मृत्यु हो गई थी। नतीजतन, धारा 201 के तहत कोई अपराध स्थापित नहीं माना गया था। शमीम के बड़े भाई को भारतीय दंड संहिता की धारा 201 के तहत दोषी नहीं पाया गया।

महत्वपूर्ण यह भी है कि धारा के पहले पैरा में प्रयुक्त शब्द “जो कोई” या “whoever” के अंतर्गत मुख्य अपराधी को अपराध से विलोपित करने वाला व्यक्ति ही नहीं बल्कि कुछ मामलों में मुख्य अपराधी स्वयं भी इसके शामिल है जिसने अपराध किया है और फिर सबूत भी गायब कर दिया है, क्योंकि कोर्ट अपराधी को दोनों अपराधों के लिए अलग-अलग आरोपित कर सकता है। अभियोजन पक्ष को यह साबित करना था कि अभियुक्त पहले से ही जानता था या उसके पास यह विश्वास करने का कारण था कि अपराध किया गया था।

हालिया मामले में दिनेश कुमार कालिदास बनाम गुजरात राज्य (CRIMINAL APPEAL NOS. 265-266 OF 2018) जहां अभियुक्त की पत्नी ने आत्महत्या की थी, जिसकी खबर अभियुक्त ने पुलिस से छिपाई थी। जिसके लिए उन पर IPC की धारा 498A, 201 का आरोप लगाया गया था।

मुख्य अपराध क्रूरता का था जिसके कारण उसने आत्महत्या कर ली, बाद में वह मुख्य अपराध से बरी हो गया तब मुद्दा उठा कि क्या धारा 498A के तहत अपीलकर्ता को मुख्य अपराध से दोषमुक्त करते समय धारा 201 के तहत सजा बरकरार रखी जा सकती थी? अदालत ने फैसला सुनाया कि धारा 201 का आरोप अभी भी कायम रहेगा क्योंकि उसने जानबूझकर पुलिस को सूचना नहीं दी थी। इसलिए यह कहना सर्वदा उचित होगा कि अन्य व्यक्ति के अलावा मुख्य अपराधी स्वयं भी अपने द्वारा किए मुख्य अपराध से संबंधित साक्ष्यों को विलोपित करने के अपराध में इस धारा में आरोपित किया जा सकता है।

यदि मामले की परिस्थितियों से पता चलता है कि अभियुक्त ने पहले अपराध किया और फिर सबूत छिपाने का प्रयास किया, तो उसे दोनों अपराधों के लिए दोषी ठहराया जा सकता है। अगर उसके खिलाफ प्राथमिक अपराध साबित नहीं होता है, तो उसे धारा 201 के तहत दोषी नहीं ठहराया जा सकता है। हालांकि, केवल संदेह या निश्चित रूप से यह घोषित करने की असंभवता कि उसने मुख्य अपराध किया है, उसे धारा 201 के दायरे से बाहर नहीं रखता है। वी. एल. टेरेसा बनाम केरल राज्य(2001)

मुख्य बिंदु 

• अपराधी को कानूनी सजा से बचाने के लक्ष्य के साथ इस धारा के तहत एक अपराध के संबंध में साक्ष्य का गायब किया जाना आवश्यक है। धारा 201 का मर्म अपराधी को कानूनी सजा से बचाने के एकमात्र उद्देश्य से सबूतों को गायब करना है। ऐसे आशय के अभाव में, आरोपी को धारा 201 के तहत दोषी नहीं ठहराया जा सकता है।

• अपराध के साक्ष्य के गायब होने का कारण धारा 201 के तहत अपराध के आवश्यक तत्वों में से एक है। जैसे कि मात्र यह ज्ञान कि किसी ने लाश को इसलिए छिपाया की साक्ष्य को गायब किया जा सके, अपराध नहीं है। केवल एक लाश को हटाना ही काफी नहीं है, यह भी साबित होना चाहिए कि अपराधी को कानूनी परिणामों से बचाने के आशय से हटाया गया था।

दंड का निर्धारण

इस धारा के पहले, दूसरे, तीसरे और चौथे पैरा में इस अपराध के दंड की मात्र एक दूसरे से भिन्न हैं। ड्राफ्टर्स द्वारा इन्हें गंभीरता के अनुरूप के आधार पर अलग अलग रखा गया है। नीचे प्रदर्शित सारणी द्वारा यह स्पष्ट होता है, जैसे —

अपराध सजा प्रकृति विचारणीय न्यायालय

अपराध

1. किए गए अपराध के सबूत को गायब करना, या अपराधी को छिपाने के लिए झूठी जानकारी देना, यदि अपराध मृत्यु दंड से दंडनीय हो।

सजा 

1. 7 वर्ष + जुर्माना

प्रकृति

गैर संज्ञेय (जमानतीय)

विचारणीय न्यायालय

सत्र न्यायालय

अपराध

2. यदि आजीवन कारावास या 10 वर्ष के कारावास से दंडनीय है।

सजा

3 वर्ष + जुर्माना

प्रकृति

गैर संज्ञेय (जमानतीय)

विचारणीय न्यायालय

मजिस्ट्रेट प्रथम वर्ग

अपराध

3. यदि 10 वर्ष से कम के कारावास से दण्डनीय है।

सजा

3, 1/4 अपराध या जुर्माना या दोनों।

प्रकृति

गैर संज्ञेय (जमानतीय)

विचारणीय न्यायालय

मजिस्ट्रेट (प्रथम वर्ग)


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