इलाहबाद हाईकोर्ट ने पूर्व केंद्रीय मंत्री स्वामी चिन्मयानन्द को 3 फरवरी को जमानत दे दी। चिन्मयानन्द पर 23 वर्षीय LLM छात्रा के बलात्कार का आरोप है। पीड़िता उस विश्विद्यालय से LLM कर रही थी जहां चिन्मयानन्द डायरेक्टर है। गौरतलब है कि डिस्ट्रिक्ट एंड सेशन जज, शाहजांहपुर ने इस मामले में चिन्मयानन्द की जमानत अर्जी खारिज कर दी थी।
मेरा यह मत है कि हाईकोर्ट का ऑर्डर कानूनी रूप से अरक्षणीय है यह जमानत ऑर्डर, एक जमानत ऑर्डर के स्कोप और जमानत देते वक़्त कौन-कौन से कारक आवश्यक है- इस बात की अनदेखी करता है। दूसरी और अधिक निराशाजनक बात यह है कि यह ऑर्डर रेप और कंसेंट के सन्दर्भ में मिथकों और पूर्वाग्रहों पर आधरित है।
ज़मानत ऑर्डर या फाइनल ऑर्डर?
लगभग 25 पेज लम्बा यह ऑर्डर एक बेल/जमानत ऑर्डर और फाइनल ऑर्डर के अंतर को अनदेखा करता हुआ प्रतीत होता है। एक ज़मानत ऑर्डर का कार्य है अभियुक्त की लिबर्टी और अन्य कारकों (जैसे आरोप की प्रकृति और गंभीरता, जमानत दिए जाने पर अभियुक्त द्वारा साक्ष्यों और गवाहों से छेड़- छाड़ की संभावना, आरोपी के फरार होने की संभावना आदि) को समझते हुए यह निश्चित करें कि क्या आरोपी को जमानत दी जानी चाहिए या नहीं।
यह एक ज़मानत ऑर्डर का स्कोप नहीं है कि वह आरोपी को दोषी या निर्दोष घोषित करे। हाईकोर्ट भी अपने ऑर्डर में इस अंतर को स्वीकार करता है और पी. चिदंबरम बनाम सीबीआई मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा दी गयी एहतियात का उल्लेख करता जहां सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि जमानत ऑर्डर में मामले की मेरिट पर टिप्पणी या उसका विश्लेषण नहीं किया जाना चाहिए। फिर भी कोर्ट बिलकुल यही करती है।
हाईकोर्ट के इस ऑर्डर में एकमात्र फोकस आरोपी पर लगाए गए आरोपों की सत्यता पर है। पूरे ऑर्डर में कोर्ट अभियोजन पक्ष के पक्ष पर सवाल उठाता है। यहां तक कि पैराग्राफ 30 में कोर्ट मेडिकल साक्ष्यों की अपर्याप्तता का भी संज्ञान लेता है।
साक्ष्यों की समीक्षा करना, अभियुक्त का दोष निर्धारण करना- यह एक बेल ऑर्डर का स्कोप नहीं है। स्पष्ट है कि कोर्ट का ऑर्डर अपने स्कोप से बाहर है। दूसरी ओर कोर्ट उन कारकों पर ध्यान नहीं देती है जिन पर एक जमानत ऑर्डर में ध्यान दिया जाना चाहिए।
यह एक स्थापित कानून है कि जमानत अर्ज़ी पर फैसला करते समय कोर्ट को इस बात पर विचार करना चाहिए कि क्या जमानत देने पर अभियुक्त साक्ष्यों के साथ छेड़छाड़ करेगा या साक्ष्यों को प्रभावित करने की कोशिश करेगा। कोर्ट भी इस ऑर्डर में इस फैक्टर के महत्व का उल्लेख करता है।
कोर्ट यह भी उल्लेख करता है यदि अभियुक्त चिन्मयानन्द को जमानत दी जाती है तो ऐसी सम्भावना है कि वह साक्ष्यों के साथ छेड़छाड़ कर सकता है।
पैराग्राफ 32 में कोर्ट कहता है कि –
शिकायतकर्ता ने यह आशंका जताई है कि अभियुक्त चिन्मयानन्द उर्फ़ कृष्ण पाल सिंह शाहजहांपुर में एक जाना-माना और शक्तिशाली नाम है। ऐसी सम्भावना है कि वह कानून के साथ खिलवाड़ करते हुए गवाहों और साक्ष्यों को छेड़ने की कोशिश करे और इसलिए गृह क्षेत्र शाहजहांपुर में ट्रायल की निष्पक्षता पर भी प्रभाव पड़ेगा।
शिकायतकर्ता के यह भय निराधार नहीं है...."यह रिकॉर्ड करने के बावजूद कि अभियुक्त सबूतों के साथ छेड़छाड़ कर ट्रायल को प्रभावित कर सकता है, कोर्ट अभियुक्त को जमानत दे देता है।
पैराग्राफ 32 में यह सम्भावना स्वीकार करने के बाद कोर्ट आने वाले पैराग्राफ में कही भी यह स्पष्ट नहीं करती, कारण नहीं बताया गया कि क्यों सबूतों के साथ छेड़छाड़ की संभावना के बावजूद अभियुक्त को जमानत दे दी जानी चाहिए।
रेप मिथकों और जेंडर पूर्वाग्रहों आधारित ऑर्डर
इस ऑर्डर के साथ दूसरी और अधिक परेशानी वाली बात है कि अदालत रेप और महिला हिंसा के सन्दर्भ में फैले हुए मिथकों और पूर्वाग्रहों के आधार पर अपना निर्णय देती है। अदालत महिला हिंसा और महिलाओं के अनुभवों के प्रति सीमित जानकारी दिखाते हुए 'असली रेप विक्टिम' के मिथकों पर अपना निर्णय देती है।
सबसे बड़ा मिथक जिस पर कोर्ट का फैसला आधारित है वह कि महिला चुप क्यों रही, उसने आवाज़ क्यों नहीं उठायी? कोर्ट ने पीड़िता के आरोप को संदेह की नज़र से देखने और परिणामस्वरूप अभियुक्त को जमानत देने के लिए सबसे बड़ा कारण यह दिया कि वह 9-10 महीनों तक चुप क्यों रही?
कोर्ट कहता है कि महिला ने अपने शोषण की शिकायत किसी से नहीं की, यहां तक कि अपने अभिभावकों को भी इसका ज़िक्र तक नहीं किया। कोर्ट इसे निराशा और चिंता का विषय मानता है कि तक 9-10 महीनों पीड़िता ने बिल्कुल चुप्पी बनाये रखी। (Para 13) इस बात को ध्यान में लेते हुए कोर्ट ने इसे 'quid pro quo' रिश्ता कहा और यह भी कहा कि पीड़िता ने अपने कुछ और साथियों के साथ मिलकर अपने लालच के लिए 'और अधिक' वसूल करने के लिए यह सारी साज़िश रची है।
(Para 31) (गौरतलब है कि अभियुक्त के वकील का कहना था कि यह चौकाने वाली बात कि एक महिला जिसकी virginity का सवाल हो वह अपने परिजनों से भी एक शब्द तक नहीं कहती है। (Para 8) मामले की मेरिट पर बिना कमेंट करते हुए, मेरा यह मानना है कि कोर्ट के तर्क सही नहीं है।
कोर्ट द्वारा अपने ऑर्डर के पक्ष में दिए गए तर्क/ कारण यह समझने में असफल है कि एक महिला ने अपने शोषण के विरुद्ध तुरंत आवाज नहीं उठायी, शिकायत नहीं कि उससे यह नहीं साबित होता कि उसके आरोप गलत है और वह झूठ बोल रही है। Jennifer Temkin ने अपने शोध में इसे सर्वप्रचलित मिथक माना है कि असली रेप विक्टिम तुरंत अपने शोषण की शिकायत करती है।
यौन शोषण एक पीड़िता को कई तरह से प्रभावित कर सकता है। यौन हिंसा मानसिक और मनो वैज्ञानिक रूप से प्रभावित करती है। हीन भाव, इस्तेमाल किया हुआ सा, बिखरा हुआ सा महसूस करना, कंट्रोल खोने का महसूस करना, PTSD आदि तरह के ट्रामा से एक पीड़िता गुजरती है। सोहेला अब्दुलली, जो स्वयं एक रेप सरवाइवर हैं, अपनी किताब में लिखती हैं कि यौन हिंसा का प्रभाव वर्षों तक रहता है और सरवाइवर अपने शोषण के वर्षों बाद भी छोटी-छोटी चीज़ों में भी असहज महसूस कर सकते हैं - जैसे गले में स्कार्फ़ पहना, कोई खास रंग पहनना, कोई खास रोड चुनना आदि अर्थात हर महिला का अनुभव और उसकी प्रतिक्रिया अलग होती है।
कुछ महिलाएं अपने शोषण के सन्दर्भ में तुरंत शिकायत करती, और कुछ वर्षों तक अपने साथ हुई हिंसा से जूझती, उसे समझने का प्रयास करती हैं। #MeToo आंदोलन के दौरान भी हमने यह बात देखी थी कि कुछ महिलाएं वर्षों बाद ही अपने साथ हुई हिंसा के सन्दर्भ में बोल सकीं।
इस सन्दर्भ में हमारे जुडिशल सिस्टम में सुप्रीम कोर्ट को तुका राम बनाम महाराष्ट्र सरकार के फैसले पर भारी आलोचना झेलनी पड़ी थी। इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने पुलिस अधिकारीयों को एक 13-14 वर्षीय बालिका के रेप के आरोप में इसलिए निर्दोष घोषित कर दिया था क्योंकि कोर्ट का कहना था कि बालिका ने न तो शारीरिक तौर पर प्रतिरोध किया न ही मदद मांगते हुए आवाज़ लगाई।
जानकारों ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले की यह कहते हुए आलोचना की थी कि क्या कोर्ट एक 13-14 वर्षीय मजदूर बालिका से यह उम्मीद रखता है कि वह पुलिस अफसरों के शोषण के खिलाफ तुरंत आवाज उठाएगी और शारीरिक तौर पर उन मजबूत पुलिस अफसरों से लड़ेगी ? कोर्ट के फैसले को 'महिलाओं के मानवाधिकारों को नुकसान करने वाला' बताया गया क्योंकि महिला की vulnerability, power imbalance and hierarchy को नहीं समझ सकी।
अभियुक्त एक शक्तिशाली राजनैतिक नेता है, वह केंद्र सरकार में मंत्री रह चुका है। ऐसे में उसके पास सामाजिक और राजनैतिक शक्ति है कि वह महिला और उसके परिवार को जान-माल का खतरा पहुंचा सके। वह उस कॉलेज का डायरेक्टर है, जहां वह महिला पढ़ रही थी। अगर वह मिनिस्टर नहीं भी रहा होता तो कॉलेज के डायरेक्टर होने के नाते भी वह पीड़िता की तुलना में एक पॉवर की पोजीशन में है। वह उसके करियर और पढाई दोनों को नुकसान पहुंचा सकता है।
पीड़िता के कॉलेज का डायरेक्टर होने के नाते वह विश्वास और भरोसे की पोजीशन में था। ऐसे में संभव है कि शोषण का प्रभाव मानसिक रूप से बेहद मुश्किल हो। ये सभी कारण एक महिला द्वारा पुलिस को या यहां तक कि अपने परिवार को भी अपने साथ हुई हिंसा के बारे में बताने के निर्णय को मुश्किल बनाते हैं।
कोर्ट अपने ऑर्डर में कही भी इन संभावनाओं का ज़िक्र तक नहीं करता और मात्र इस आधार पर कि उसने 9-10 महीने तक अपने साथ हुई हिंसा के बारे में किसी को नहीं बताया, अभियोजन द्वारा लगाए गए आरोपों पर गहरा संदेह करती है. मात्र यह कि उसने हिंसा का जिक्र किसी से नहीं किया, अपने आप में यह साबित नहीं करता कि अभियुक्त पर लगे सभी आरोप गलत है और पीड़िता झूठ बोल रही है।
इस मामले में को इस सन्दर्भ में भी समझा जाना चाहिए कि पुलिस ने जांच के बाद अपनी रिपोर्ट में अभियुक्त पर धारा 376C के तहत आरोप लगाए हैं। यह धारा गौरतलब है कि इस ऑर्डर में कोर्ट की टिपण्णियां साक्ष्य विधि की धारा 146 और धारा 53A की भावना के विरुद्ध जाती है।
स्पष्ट है कि कोर्ट जेंडर और हिंसा के प्रति महिलाओं के अनुभवों को समझने में नाकाम रही है। कोर्ट का ऑर्डर एक ओर बेल ऑर्डर के स्कोप को नज़रअंदाज़ करता है वही दूसरी ओर यह जेंडर मिथकों और पूर्वाग्रहों पर अपना फैसला देता है। यह ऑर्डर यही दिखाता है कि जुडिशल एजुकेशन और जुडिशल ट्रेनिंग को हमारे देश में बराबरी का समाज बनाने के लिए कितने लम्बी यात्रा तय करनी है।