सुप्रीम को वो स्टे ऑर्डर, जिसने सीबीआई को अब तक जिंदा रखा है
गुवाहाटी हाई कोर्ट ने 6 साल पहले सीबीआई के गठन को ही असंवैधानिक ठहराते हुए उसे समाप्त करने को आदेश दिया था.
मनु सेबेस्टियन
6 वर्ष पूर्व गुवाहाटी हाई कोर्ट के एक फैसले ने देश को झकझोर दिया था.
गुवाहाटी हाई कोर्ट ने, एक आश्चर्यजनक फैसले में, भारत की सर्वोच्च जांच एजेंसी सीबीआई के गठन को ही असंवैधानिक ठहराते हुए उसकी की जड़ाें पर प्रहार किया था. 6 नवंबर, 2013 को दिए फैसले में हाई कोर्ट ने सरकार के उस प्रस्ताव को समाप्त करते हुए, जिसके जरिए सीबीआई का गठन हुआ था, जांच एजेंसी के अस्तित्व को ही समाप्त कर दिया था.
हाई कोर्ट द्वारा असंवैधानिक ठहाराए जाने का फैसला पूरे देश में मान्य होता है. गुवाहाटी हाई कोर्ट के फैसले के व्यापक प्रभावों की संभावना ने केंद्रीय संस्थानों में खलबली पैदा कर दीं. जाहिर था कि उस फैसले ने केंद्र सरकार को भी स्तब्ध कर दिया था, क्योंकि उसके बाद सीबीआई द्वारा हजारों मामलों में किए गए अन्वेषण और अभियोग निष्प्रभावी हो जाते. उस वक्त तत्कालीन एटॉर्नी जनरल गुलाम ई वाहनवती तब के चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया पी सदाशिवम से मिलने उनके आवास पहुंच गए थे, क्योंकि सुप्रीम कोर्ट में उस दिन छुट्टी थी. सुप्रीम कोर्ट ने कुछ महीनों पहले ही टिप्पणी की थी कि, 'सीबीआई पिंजरे में बंद तोता है, जो अपने मालिक की जुबान बोलता है.' हालांकि, उसके बाद भी सुप्रीम कोर्ट को ये अंदाजा था कि 'तोते को जिंदा' रखना जरूरी है, इसलिए मुख्य न्यायाधीश अपने आवास पर ही शीघ्र सुनवाई के लिए तैयार हो गए और गुवाहाटी हाईकोर्ट के फैसले पर रोक लगा दी.
वो स्टे ऑर्डर ही है कि जिसने सीबीआई अब तक जिंदा रखा है.
गुवाहाटी हाई कोर्ट का ये फैसला नवेंद्र कुमार की याचिका पर आया था, जिन पर सीबीआई द्वारा दाखिल एक फाइनल रिपोर्ट के आधार पर मुकदमा चलाया जा रहा था. अपनी याचिका में नवेंद्र कुमार ने सीबीआई गठन को ही चुनौती देते हुए कहा था कि सीबीआई विधि द्वारा गठित संस्थान नहीं है, बल्कि कार्यकारी आदेश द्वारा गठित निकाय है. इसलिए इसके पास गिरफ्तारी, खोजबीन, जब्ती, आपराधिक जांच और मुकदमे अधिकार हो ही नहीं सकते.
केंद्रीय गृह मंत्रालय ने कथित रूप से दिल्ली पुलिस इस्टैब्लिश्मन्ट एक्ट (DSPE Act)1946 द्वारा प्रदत्त शक्तियों के आधार पर एक विशेष प्रस्ताव के जरिए सीबीआई का गठन 1 अप्रैल 1963 को किया था.
उस प्रस्ताव में कहा गया था किः
'भारत सरकार ने उन अपराधों की जांच के लिए एक केंद्रीय जांच ब्यूरो की स्थापना पर विचार किया है, जिन्हें वर्तमान में दिल्ली स्पेशल पुलिस इस्टैब्लिश्मन्ट द्वारा हैंडल किया जाता है, साथ ही डिफेंस ऑफ इंडिया एक्ट और रूल्स के तहत विशेष रूप से महत्वपूर्ण मामले, आवश्यक वस्तुओं की जमाखोरी, काला बाजारी और मुनाफाखोरी के मामले, जिनके परिणाम और प्रभाव कई राज्यों पर दिखते हैं; कई विशेष प्रकार के अपराधों से संबंधित खुफिया जानकारियां इकट्ठा करना; इंटरनेशनल क्रिमिनल पुलिस ऑर्गेनाइजेन के साथ जुड़े राष्ट्रीय केंद्रीय ब्यूरो के काम में भागीदारी; अपराध के आंकड़ों का रखरखाव और अपराध और अपराधियों से संबंधित सूचनाओं के प्रसार; भारत सरकार के विशेष हितों के मुताबिक विशेष अपराधों का अध्ययन अथवा अखिल भारतीय, अंतर राज्यीय प्रभावों और सामाजिक दृष्टिकोण से विशेष महत्व के अपराधों के अध्ययन; पुलिस अनुसंधान के संचालन, और अपराध से संबंधित कानूनों का समन्वय भी सेंट्रल इन्वेस्टीगेशन ब्यूरो के कामकाज में शामिल है. इस दिशा में पहले कदम के रूप में, भारत सरकार ने 1 अप्रैल, 1963 से दिल्ली में एक केंद्रीय जांच ब्यूरो के गठन का फैसला किया है...'
गुवाहाटी हाई कोर्ट ने कहा था कि सीबीआई के गठन के लिए पारित प्रस्ताव की शैली से एजेंसी के अनौपचारिक चरित्र का खुलासा होता है, विशेष रूप से प्रस्ताव में शमिल वाक्य 'इस दिशा में पहले कदम के रूप में,' से. सीबीआई के गठन के प्रस्ताव के मिनट्स का परीक्षण करने के बाद हाई कोर्ट ने कहा कि सरकार ने खुद ये मानती है कि जब तक सीबीआई के गठन के लिए उचित कानून नहीं बन जाता, प्रस्ताव अस्थायी उपाय के रूप में प्रभावी रहेगा. इस प्रकार सरकार को खुद ये जानकारी है कि सीबीआई के गठन के लिए कानून बनाने की आवश्यकता है.
कोर्ट ने आगे कहा कि डीएसपीई एक्ट एक ऐसा कानून है, जिसका उद्देश्य दिल्ली व यूनियन टेरिटरीज़ में कुछ अपराधों की जांच के लिए विशेष बल गठित करना है. राज्यों में जांच के लिए उक्त कानून के तहत पुलिस बल का गठन नहीं किया जा सकता. यूनियन की कार्यकारी शक्तियां, राज्यों में ऐसे पुलिस बल गठित करने में सक्षम नहीं हैं. साथ ही डीएसपीई एक्ट के मुताबिक, इस कानून के तहत गठित पुलिस बल का नाम विशेष रूप से दिल्ली स्पेशल पुलिस इस्टैब्लिश्मन्ट ही होगा और डीएसपीई एक्ट के तहत गठित पुलिस बल को सीबीआई नाम नहीं दिया जा सकता.
जस्टिस इकबाल अहमद अंसारी और जस्टिस इंदिरा शाह ने अपने फैसले में कहा था, 'विद्वान एएसजी यह साबित करने में पूरी तरह विफल रहे हैं कि सीबीआई को डीएसपीई एक्ट एक अंग या हिस्से के रूप में स्थापित या गठित कहा जा सकता है अथवा ये एक विशेष पुलिस बल है, जिसे डीएसपीई एक्ट, 1946 की धारा 2 का सहारा लेकर गठित किया गया है. इसलिए हमें ये मानने में बिलकुल हिचक नहीं है कि सीबीआई को डीएसपीई एक्ट 1946 के तहत गठित नहीं किया गया है या ये डीएसपीई एक्ट 1946 का एक अंग है. ''
यूनियन ने सूची की प्रविष्टि 8 और 80 से सीबीआई के निर्माण के लिए शक्तियों का पता लगाने का प्रयास किया, हालांकि कोर्ट ने मुझे उन्हें देखने नहीं दिया. प्रविष्टि 8 सेंट्रल ब्यूरो ऑफ इंटेलीजेंस एंड इन्वेस्टीगेशन से संबंधित है. प्रविष्टि 80 संसद को ऐसा कानून बनाने की इजाजत देती है, जिसके जरिए एक राज्य की पुलिस को दूसरे राज्य की सहमति से उस राज्य में प्रयोग किया जा सके. कोर्ट ने कहा कि प्रविष्टि 8 में इस्तेमाल किए गए इन्वेस्टिगेशन का वह अर्थ नहीं है जो सीआरपीसी की u/s 2(h) में इस्तेमाल इन्वेस्टिगेशन का है.
संविधान सभा की बहसों पर भरोसा करते हुए कोर्ट ने कहा:
संविधान में आपराधिक मामलों की जांच के लिए केंद्रीय एजेंसी के गठन पर कभी विचार नहीं किया गया. जिस एजेंसी की कल्पना की गई थी, उसका कार्य अंतर-राज्यीय अपराधों से सबंधित सूचनाओं और खुफिया जानकारियों का संग्रहण, आदान-प्रदान था. लिस्ट 1 में जिस 'इन्वेस्टिगेशन' का इस्तेमाल है, उसका तात्पर्य उक्त जानकारियों इकट्ठा करने के लिए सीमित जांच करने से है, न कि ऐसी जांच जिसके बाद आरोप पत्र दाखिल हो सके या मुकदमा चलाया जा सके.
हाई कोर्ट ने ये भी कहा कि प्रविष्टि 80 केंद्र सरकार को ये अधिकार नहीं देती कि वो डीएसपीई एक्ट के तहत राज्यों में जांच के लिए विशेष एजेंसी बना सके. कोर्ट ने आगे कहा कि कार्यकारी आदेश 'कानून' नहीं होता, जो संविधान के भाग 3 के तहत दिए गए मौलिक अधिकारों पर रोक लगा दे. इसलिए सीबीआई, जो कि कार्यकारी आदेश के जरिए गठित एक संगठन मात्र है, आर्टिकल 21 का हनन कर हिरासत या गिरफ्तारी नहीं कर सकती.
चूंकि सीबीआई कानूनी तौर पर गठित पुलिस बल नहीं है, इसलिए ये सीआरपीसी के तहत जांच, एफआईआर या आरोपपत्र दाखिल करने जैसे काम नहीं कर सकती.
हाई कोर्ट ने कहा था कि, 'विवादित प्रस्ताव (दिनांक 01.04.1963) को अधिक से अधिक विभागीय निर्देश माना जा सकता है, जिसे अनुच्छेद 13(3)(a) के तहत 'कानून' नहीं कहा जा सकता है; न ही विवादित प्रस्ताव (दिनांक 01.04.1963) के कार्यकारी निर्देशों को संविधान के अनुच्छेद 21 द्वारा परिकल्पित 'कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया' के रूप में माना जाता है। इस प्रकार, सीबीआई मामला दर्ज करने जैसी कार्रवाई या एक व्यक्ति को अपराधी के रूप में गिरफ्तार करना, तलाशी और जब्ती करना, एक अभियुक्त पर मुकदमा चलाना आदि; जैसी कार्रवाइयां संविधान के अनुच्छेद 21 का हनन करती हैं इसलिए ये असंवैधानिक मानते हुए रद्द किए जाने योग्य है.
उक्त फैसले के आधार पर सीबीआई को असंवैधानिक ठहरा दिया गया था. आगे ये भी बताया गया कि सीबीआई के पास अपराधों की जांच करने और मुकदमा चलाने का अधिकार नहीं है.
गुवाहाटी हाई कोर्ट ने फैसले को आसानी से रद्द नहीं किया जा सकता, क्योंकि इसने कई ऐसे वैधानिक सवाल उठाए हैं, जिनके गहन परीक्षण की आवश्यकता है. सुप्रीम कोर्ट सीबीआई की संस्थानिक पवित्रता अक्षुण्ण रखने के लिए कई आदेश दे चुका है, लेकिन उसने कभी भी सीबीआई के निर्माण की वैधता पर विचार नहीं किया. गुवाहाटी हाई कोर्ट का फैसला कि डीएसपीई एक्ट कार्यकारी आदेश के जरिए सीबीआई के गठन की शक्ति नहीं प्रदान करता और बिना किसी कानूनी आधार के सीआरपीसी के तहत जांच और मुकदमा नहीं कर सकती, के ठोस आधार हैं और उसे नकारना मुश्किल है. इस कमी को ठीक करने का एकमात्र उपाय यही है कि सीबीआई के अस्तित्व और गठन को नियम सम्मत करने के लिए रेट्रोस्पेक्टिव डेट से प्रभावी कानून लाया जाए. हालांकि इस पर अब तक ध्यान नहीं दिया गया है. 2013 में सीबीआई निदेशक की नियुक्ति के लिए डीसपीई एक्ट में बदलाव किया गया है, हालांकि तब भी विधायिका का ध्यान सीबीआई की गठन प्रक्रिया पर नहीं गया.
हालिया दौर के आलोक वर्मा-राकेश अस्थाना विवाद के बाद सीबीआई को राजनीतिक प्रभावों से मुक्त करने पर फिर विचार होने लगा है, लेकिन सीबीआई की सुधार प्रक्रिया में शामिल सभी पक्षों को ये ध्यान रखन चाहिए कि इस समय इस एजेंसी का अस्तित्व सुप्रीम कोर्ट के एक आदेश पर टिका है. सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआई को जो लाइफ सपोर्ट दिया है, वो तभी तक है जब तक गुवाहाटी हाई कोर्ट की अपील पर फैसला नहीं आ जाता. म