आपराधिक मामलों में अपील का सम्पूर्ण लेखा जोखा: समझिये कहाँ और किन परिस्थितियों में हो सकती है अपील
आपराधिक न्याय की प्रक्रिया के किसी भी व्यक्ति के जीवन पर कुछ गंभीर परिणाम होते हैं, मुख्य रूप से व्यक्ति के जीवन के अधिकार पर और उसकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर। एक स्वतंत्र ट्रायल प्रक्रिया एवं उचित निर्णय पर पहुंचने के रास्ते मौजूद होते हुए भी, गलती की सम्भावना शेष रह जाती है, यह अदालतों द्वारा दिए गए निर्णयों पर भी लागू होता है।
इसके परिणामस्वरूप, न्याय प्राप्त करने एवं निचली अदालतों के फैसलों की जांच करने हेतु हमारी दंड प्रक्रिया संहिता में कुछ विशिष्ट प्रावधान मौजूद हैं।
यह ऐसे प्रावधान हैं जो आपराधिक अदालतों के फैसले या आदेश के खिलाफ अपील के रूप में हैं। सीआरपीसी में धारा 372 से धारा 394 तक अपील पर विस्तृत प्रावधान हैं। हम इस लेख में खासतौर पर आपराधिक मामलों में अपील पर बात करेंगे।
अपील क्या है?
यह सर्वविदित है कि अपील क़ानून का एक सुधारात्मक उपाय भर है और अदालत के किसी भी निर्णय या आदेश से अपील का कोई अंतर्निहित अधिकार तब तक नहीं हो सकता है, जब तक कि एक अपील का प्रावधान स्पष्ट रूप से कानून द्वारा प्रदान नहीं किया जाता है। (दुर्गा शंकर मेहता बनाम रघुराज सिंह मामला)
यह भी ध्यान रखने योग्य बात है कि अपील में कानून के साथ फैक्ट्स पर दुबारा अदालत व्यक्ति के मामले को सुनती है, हालाँकि रिवीजन के मामले में ऐसा नहीं होता है। एक सामान्य अर्थ में, अपील पार्टियों को दिया गया एक कानूनी अधिकार है, हालांकि, रिवीजन पूरी तरह से एक आपराधिक अदालत के विवेक पर निर्भर करता है, जिसका अर्थ है कि यह कोई अधिकार के रूप में उपलब्ध नहीं है। (केरल राज्य बनाम सेबेस्टियन1983 Cri LJ 416 Ker.)
अपील के प्रकार क्या क्या हैं?
दंड प्रक्रिया संहिता में 4 प्रकार (या परिस्थितियों में) की अपील की बात की गयी है। इन्हे हम एक-एक करके आपको संक्षेप में समझने का प्रयत्न करेंगे। सबसे पहले आइये जानते हैं कि वो तीन प्रकार की अपील क्या हैं?
1 - दोषसिद्धि से अपील (धारा 374 दंड प्रक्रिया संहिता)
2 - दंडादेश के विरूद्ध अपील (धारा 377 दंड प्रक्रिया संहिता)
3 - दोषमुक्ति की दशा में अपील (धारा 378 दंड प्रक्रिया संहिता)
4 - कुछ मामलों में अपील का विशेष अधिकार (धारा 380 दंड प्रक्रिया संहिता)
1 - दोषसिद्धि से अपील (धारा 374 दंड प्रक्रिया संहिता)
इसके अंतर्गत वह मामले आते हैं जहाँ किसी व्यक्ति को विचारण के बाद दोषी करार दिया जाता है। इन मामलों में कई फोरम में सुनवाई के अधिकार दिए गए हैं और ऐसा इसलिए भी है क्यूंकि एक बार व्यक्ति को दोषी करार दिया जाता है तो उसके तमाम अधिकारों का हनन होता है।
और चूँकि न्याय का यह मुख्य सिद्धांत है कि किसी भी बेक़सूर को बेवजह सजा नहीं दी जानी चाहिए इसलिए ऐसे व्यक्तियों को उचित रूप से संहिता में अधिकार दिए गए हैं। दोषी पाए गए व्यक्ति को निम्नलिखित फोरम में अपील में जाने का मौका मिलता है:-
A - सुप्रीम कोर्ट में अपील
(i) जब किसी मामले पर हाई कोर्ट ने असाधारण आरंभिक दाण्डिक अधिकारिता (extraordinary original criminal jurisdiction) के अंतर्गत ट्रायल किया हो,और उसे दोषी करार दिया हो तो ऐसा व्यक्ति सुप्रीम कोर्ट में अपील कर सकता है; (देखें धारा 374 (1) दंड प्रक्रिया संहिता)।
(ii) जब हाई कोर्ट ने अपील में किसी दोष मुक्त व्यक्ति को दोषी पाया हो और उसे या तो मौत की सजा, या आजीवन कारावास की सजा या 10 वर्ष से ज्यादा के कारावास की सजा सुनाई हो, ऐसा व्यक्ति सुप्रीम कोर्ट में सीधे तौर पर अपील कर सकता है; (देखें धारा 379 दंड प्रक्रिया संहिता)।
(iii) भारत के क्षेत्र में एक उच्च न्यायालय के किसी भी निर्णय (आपराधिक अथवा सिविल), डिक्री या अंतिम आदेश से सुप्रीम कोर्ट में अपील की जा सकेगी, यदि उच्च न्यायालय अनुच्छेद 134 ए के तहत यह प्रमाणित करता है कि उस मामले में संविधान की व्याख्या के रूप में कानून का प्रश्न मौजूद है; (देखें अनुच्छेद 132 भारत का संविधान)।
(iii) जब हाई कोर्ट ने अपील में किसी दोषमुक्त व्यक्ति को दोषी पाया हो और उसे या तो मौत की सजा, या आजीवन कारावास की सजा या 10 वर्ष से ज्यादा के कारावास की सजा सुनाई हो, या अपने अधीनस्त चल रहे किसी मामले को अपने सामने लाकर उसका ट्रायल किया हो और ऐसे व्यक्ति को मौत की सजा सुनाई हो या अनुच्छेद 134 ऐ के अंतर्गत यह सर्टिफाई किया हो की वह मामला सुप्रीम कोर्ट में अपील किये जाने योग्य है (देखें अनुच्छेद 134 भारत का संविधान)। ऐसे मामले में भी अपील की जा सकेगी।
(iv) अनुच्छेद 136 के तहत भारत का संविधान भारत के सर्वोच्च न्यायालय को, अपने विवेक से, किसी भी कारण या मामले में देश की किसी भी अदालत या न्यायाधिकरण द्वारा दिए गए निर्णय, डिक्री, डिटरमिनेशन, सेंटेंस या आदेश के खिलाफ अपील करने के लिए स्पेशल लीव दे सकता है। (देखें अनुच्छेद 136 (1) भारत का संविधान)
B - हाई कोर्ट में अपील
कोई भी व्यक्ति या उस ट्रायल में दोषी पाया गया कोई अन्य व्यक्ति, जिसे एक सत्र न्यायाधीश या एक अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश द्वारा या किसी अन्य अदालत द्वारा ट्रायल के बाद 7 वर्ष से अधिक के करावस का दोषी ठहराया है, हाई कोर्ट में अपील कर सकता है; (देखें धारा 374 (2) दंड प्रक्रिया संहिता). यहाँ ध्यान देने की जरुरत है कि जब अपील की जाएगी तो निर्णय पर अपील के लंबित रहते रोक लग जाती है (एस. एम. मालिक बनाम राज्य मामला)
C - सत्र न्यायलय में अपील
धारा 374 (2) के अलावा, कोई भी व्यक्ति जिसे
(ए) एक मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट या सहायक सत्र न्यायाधीश या प्रथम श्रेणी के मजिस्ट्रेट, या दूसरे वर्ग के मजिस्ट्रेट द्वारा किये गए ट्रायल में में दोषी ठहराया गया है, या
(ख) धारा 325, या के तहत सजा सुनाई गयी है, या
(ग) जिसके संबंध में कोई आदेश दिया या किसी मजिस्ट्रेट द्वारा धारा 360 के तहत एक सजा सुनाई गई है,
सत्र न्यायालय में अपील कर सकते हैं। (देखें धारा 374 (3) दंड प्रक्रिया संहिता)
ध्यान रहे - यह सभी अपील संहिता की धारा 372, 375 एवं 376 के अधीन हैं। हम इन धाराओं को इस लेख में आगे समझेंगे।
2 - दंडादेश के विरूद्ध अपील
इसके अंतर्गत राज्य किसी भी ऐसे मामले में, जहाँ उसे लगता हो कि दोषी को कम सजा मिली है, अथवा जरुरत से कम सजा मिली है या उसकी सजा उपयुक्त नहीं है, ऐसे दोषी की सजा को बढाने के लिए अपील कर सकता है (लोक अभियोजक को निर्देश देकर यह अपील की जाएगी)। इसके लिए जरुरी नियम धारा 377 में बताये गए हैं।
राज्य सरकार, उच्च न्यायालय के अलावा किसी भी अदालत द्वारा किये गए ट्रायल में सजा के मामले में, लोक अभियोजक को यह निर्देश दे सकती है कि वह अपनी अपर्याप्तता के आधार पर ऐसी सजा के खिलाफ अपील करे:-
(a) अगर सजा मजिस्ट्रेट द्वारा दी गयी है तो, सत्र न्यायालय में
(b) अगर सजा किसी अन्य न्यायालय द्वारा पारित की गयी है तो हाई कोर्ट में; (देखें धारा 377 (1) दंड प्रक्रिया संहिता)
इसके अलावा जब अपर्याप्तता के आधार पर किसी सजा के खिलाफ अपील की जाती है तो सत्र न्यायालय या हाई कोर्ट द्वारा उस सजा को तब तक नहीं बढ़ाया जाएगा, जबतक दोषी व्यक्ति को यह मौका न दिया जाए की वो सजा को बढ़ाने के खिलाफ कारण बताये और ऐसा करते हुए वह दोषी व्यक्ति या तो दोषमुक्ति के लिए, या अपनी सजा को कम करने की गुजारिश अदालत से कर सकता है; (देखें धारा 377 (3) दंड प्रक्रिया संहिता)।
यह ध्यान देने योग्य बात है कि सजा की अपर्याप्तता के आधार पर अपील करने का अधिकार केवल राज्य के पास होता है न की पीड़ित/पीड़िता को। हालाँकि पीड़ित/पीडिता या तो उच्च न्यायालय या सत्र न्यायालय में रिविजन के अंतर्गत जा सकते हैं। (बचान सिंह बनाम पंजाब राज्य1979 मामला)
3 - दोषमुक्ति की दशा में अपील
ऐसे मामले में जहाँ किसी अभियुक्त को दोष मुक्त कर दिया गया हो, तो उसके खिलाफ अपील कैसे, किस दशा में और किसके द्वारा की जा सकती है, इसके बारे में धारा 378 में नियम बताये गए हैं।
दरअसल जिला मजिस्ट्रेट, किसी भी मामले में, लोक अभियोजक को एक संज्ञेय और गैर-जमानती अपराध के संबंध में मजिस्ट्रेट द्वारा दिए गए दोषमुक्ति के आदेश से सत्र न्यायालय में अपील पेश करने का निर्देश दे सकता है; (देखें धारा 378 (1) (a) दंड प्रक्रिया संहिता)।
इसके अलावा, राज्य सरकार, लोक अभियोजक को हाई कोर्ट के मूल या अपीलीय आदेश के अलावा किसी भी मामले को उच्च न्यायालय में अपील प्रस्तुत करने का निर्देश दे सकती है। हालाँकि यह आदेश मजिस्ट्रेट द्वारा न दिया गया हो और न ही सत्र न्यायालय द्वारा रिविज़न में पारित किया गया आदेश हो; (देखें धारा 378 (1) (b) दंड प्रक्रिया संहिता)।
हालाँकि यहाँ ध्यान देने वाली बात यह है कि ऐसी कोई भी अपील 'हाई कोर्ट की लीव' के बिना नहीं सुनी जाएगी; (देखें धारा 378 (3) दंड प्रक्रिया संहिता)। महाराष्ट्र राज्य बनाम विथल राव प्रीतिराव चवन [(1981) 4 SCC 129] मामले में अदालत का मन्ना था कि यह लीव बिना किसी संतोषजनक कारण के ठुकराई नहीं जा सकती है।
यदि दोषमुक्ति का ऐसा कोई आदेश, ऐसे मामले में पारित किया जाता है जिसे अदालत के समक्ष कंप्लेंट के जरिये लाया गया था और इस विषय में हाई कोर्ट के समक्ष कम्प्लेनेंट द्वारा लायी गयी एप्लीकेशन (की दोषमुक्ति के आदेश के खिलाफ अपील करने के लिए स्पेशल लीव दी जाये) को हाई कोर्ट द्वारा स्पेशल लीव दी जाती है, तो शिकायतकर्ता ऐसी अपील हाई कोर्ट में पेश कर सकता है; (देखें धारा 378 (4) दंड प्रक्रिया संहिता)।
हालाँकि ऐसी एप्लीकेशन (स्पेशल लीव के लिए), अगर कम्प्लेनेंट पब्लिक सर्वेंट है तो दोषमुक्ति के 6 महीने के भीतर, और अन्य मामलों में 60 दिनों के भीतर अदालत के समक्ष लायी जानी चाहिए; (देखें धारा 378 (5) दंड प्रक्रिया संहिता)।
ऐसी किसी भी एप्लीकेशन (स्पेशल लीव के लिए) के ठुकराए जाने के बाद, अपील नहीं हो सकेगी; (देखें धारा 378 (6) दंड प्रक्रिया संहिता)।
यह ध्यान रखने वाली बात है कि अपील दाखिल का तरीका एवं निर्णय राज्य के पास होता है, इसके लिए उच्च न्यायालय कोई आदेश पारित नहीं कर सकता है कि किसी अभियुक्त की दोषमुक्ति के खिलाफ राज्य अपील करे। (द्वारका दस बनाम हरयाणा राज्य 2003 1 SCC 204)
धारा 378 का उपयोग केवल दोषमुक्ति की दशा में किया जा सकता है, डिस्चार्ज की परिस्थिति में नहीं। (आलिम बनाम तौफिक 1982 Cri LJ 1264, 1265 All)
किंग एम्परर बनाम गणपति (1945 Cri LJ 766) के मामले में अदालत ने कहा था कि दोषमुक्ति के खिलाफ अपील उन मामलों में किया जाना चाहिए जहाँ न्याय को अपूरणीय क्षति होती हो।
4 - कुछ मामलों में अपील का विशेष अधिकार
जब एक से अधिक व्यक्तियों को एक ट्रायल में दोषी ठहराया जाता है, और ऐसे किसी भी व्यक्ति के संबंध में एक अपील योग्य निर्णय या आदेश पारित किया गया है (यानी यह तय किया गया है की वह व्यक्ति अपील कर सकता है), तो ऐसे ट्रायल में दोषी ठहराए गए सभी या किसी भी व्यक्ति का अपील का अधिकार होगा।
क्या हैं अपील के नियमों पर कुछ प्रतिबन्ध?
जैसा की हमने बताया कि धारा 372, 375 एवं 376 कुछ प्रतिबन्ध के रूप में हमारी संहिता में मौजूद हैं। इनके बारे में संक्षेप में हम आपको बताते हैं।
A - धारा 372 दंड प्रक्रिया संहिता
इस संहिता के अनुसार या किसी अन्य कानून में बताये गए आपराधिक न्यायालय के किसी भी निर्णय या आदेश से ही अपील हो सकेगी, अन्यथा नहीं। इसके अलावा, मामले की पीड़िता/पीड़ित को यह अधिकार होगा कि वह न्यायालय द्वारा पारित किसी भी आदेश के खिलाफ (केवल 3 प्रकार के मामलों में) ऐसे न्यायालय में अपील कर सकता/सकती है, जहाँ सामान्यतः उस न्यायालय से अपील होती है।
वो 3 मामले इस प्रकार हैं
(i) अभियुक्त की दोषमुक्ति
(ii) अभियुक्त को कम/छोटे अपराध के लिए दोषी ठहराया जाना
(iii) जहाँ अपर्याप्त मुआवजा लगाया गया हो
B - धारा 375 दंड प्रक्रिया संहिता
जहां एक आरोपी व्यक्ति ने अपने ऊपर लगे दोष को स्वीकार किया है और उसे ऐसी याचिका पर दोषी ठहराया गया है, उस आदेश या निर्णय के खिलाफ कोई अपील नहीं होगी।
अगर सजा उच्च न्यायालय द्वारा दी जाती है; या
यदि सजा सत्र, मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट या प्रथम या द्वितीय श्रेणी के मजिस्ट्रेट द्वारा दी जाती है (हालाँकि सजा की वैधता को लेकर अपील हो सकती है)।
हालाँकि अभियुक्त द्वारा दोष को स्वीकार किया जाना किसी धोखे या किसी चीज़ के लालच में नहीं होना चाहिए। दोष को स्वीकार करना ठोस एवं वाजिब कारणों पर होना चाहिए और अभियुक्त द्वारा बिना किसी दबाव के किया जाना चाहिए। (प्रफुल कुमार राव बनाम एम्परर 1944 45 Cri LJ 517)
C - धारा 376 दंड प्रक्रिया संहिता
कुछ छोटे मामलों में एक दोषी व्यक्ति द्वारा कोई अपील नहीं होती है। ऐसे छोटे मामले निम्न प्रकार से समझे जा सकते हैं:-
(a) जहां एक उच्च न्यायालय द्वारा छह महीने तक के कारावास या एक हजार रुपये तक के जुर्माने की या ऐसे कारावास और जुर्माना दोनों की सजा दी जाती है;
(b) जहां सत्र न्यायालय या मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट द्वारा केवल तीन महीने तक के कारावास या दो सौ रुपये तक के जुर्माने या दोनों कारावास एवं जुर्माने की सजा दी जाती है;
(c) जहाँ प्रथम श्रेणी के एक मजिस्ट्रेट द्वारा केवल एक सौ रुपये तक के जुर्माने की सजा सुनाई जाती है; या
(d) जहां, संक्षेपतः विचारित किसी मामले में, धारा 260 के तहत कार्रवाई करने के लिए सशक्त मजिस्ट्रेट ने, दो सौ रुपये तक के जुर्माने की सजा दी है;
हालाँकि ऐसी सजा के खिलाफ अपील की जा सकती है यदि कोई अन्य सजा उसके साथ जोड़ दी जाती है, लेकिन वह सजा केवल इस आधार पर अपील योग्य नहीं हो जायेगी कि-
(i) दोषी व्यक्ति को शांति बनाए रखने के लिए सुरक्षा प्रदान करने का आदेश दिया जाता है; या
(ii) कि जुर्माने के भुगतान के डिफ़ॉल्ट में कारावास की एक दिशा शामिल की गयी है; या
(iii) उस मामले में जुर्माने का एक से अधिक दंडादेश पारित किया गया है, यदि अधिरोपित जुर्माने की कुल रकम उस मामले की बाबत इसमें इसके पूर्व विनिर्दिष्ट रकम से अधिक नहीं है।
इस प्रकार यह स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है कि अपील की प्रक्रिया के माध्यम से, किसी व्यक्ति को अदालत के आदेश या निर्णय में किसी भी कानूनी, या तथ्यात्मक त्रुटि को दूर करने का अवसर मिलता है। हालाँकि यह भी हमने समझा है की किसी भी फैसले, या आदेश, या एक आपराधिक अदालत की सजा के खिलाफ अपील केवल तब ही उच्च अदालत में की जा सकती है, जब विशेष रूप से कानून में इसके लिए प्रावधान प्रदान किया गया हो।
इस प्रकार, अपील के अधिकार को केवल सीआरपीसी या किसी अन्य कानून (जो मौजूदा समय में लागू है) द्वारा निर्धारित सीमा के भीतर ही प्रयोग किया जा सकता है, और इसलिए, अपील का अधिकार एक संकुचित अधिकार है। जहां तक अपील करने के अधिकार दिए जाने के निर्णय की बात है, यह उन मामलों को छोड़कर अदालत के विवेक पर निर्भर है, जहाँ किसी अभियुक्त व्यक्ति को सत्र न्यायालय द्वारा मौत की सजा सुनाई गई हो।
यही नहीं, कुछ ऐसे मामले भी हैं जिनमें अपील की अनुमति बिल्कुल नहीं है, वास्तव में ऐसा इसलिए होता है जिससे आपराधिक अदालत द्वारा दिया गया निर्णय, या आदेश, या सजा को अंतिम रूप दिया जा सके।