दुर्भाग्यपूर्ण है कि हर कोई यह दिखाना चाहता है कि उसका धर्म और ईश्वर सर्वोच्च हैं: "वंदे मातरम" विवाद पर बॉम्बे हाई कोर्ट

Update: 2024-07-25 05:23 GMT

बॉम्बे हाईकोर्ट की नागपुर बेंच ने बुधवार को सैन्यकर्मी और डॉक्टर के खिलाफ दर्ज एफआईआर खारिज की। इन दोनों ने कथित तौर पर मुसलमानों की भावनाओं को ठेस पहुंचाई और कुछ लोगों से कहा कि "या तो वंदे मातरम बोलो या पाकिस्तान जाओ"।

जस्टिस विभा कंकनवाड़ी और जस्टिस वृषाली जोशी की खंडपीठ ने इस बात पर दुख जताया कि आजकल हर कोई यह दिखाना चाहता है कि उसका धर्म या ईश्वर सर्वोच्च है। इसने इस बात पर जोर दिया कि भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है और लोगों को एक-दूसरे के धर्मों का सम्मान करना चाहिए।

खंडपीठ ने कहा,

"हम यह देखने के लिए बाध्य हैं कि आजकल लोग अपने धर्मों के बारे में अधिक संवेदनशील हो गए हैं, शायद पहले से भी अधिक और हर कोई यह बताना चाहता है कि उसका धर्म या ईश्वर सर्वोच्च है। हम लोकतांत्रिक धर्मनिरपेक्ष देश में रह रहे हैं, जहां हर किसी को दूसरे के धर्म, जाति, पंथ आदि का सम्मान करना चाहिए। लेकिन साथ ही हम यह भी कहेंगे कि यदि कोई व्यक्ति कहता है कि उसका धर्म सर्वोच्च है तो दूसरा व्यक्ति तुरंत प्रतिक्रिया नहीं कर सकता है। ऐसे संवेदनशील मुद्दों पर प्रतिक्रिया करने के तरीके और साधन हैं।"

खंडपीठ सैन्यकर्मी प्रमोद शेंद्रे (41) और डॉ. सुभाष वाघे (47) द्वारा दायर याचिकाओं पर सुनवाई कर रही थी। दोनों पर 38 वर्षीय शाहबाज सिद्दीकी द्वारा 3 अगस्त, 2017 को दायर की गई शिकायत पर मामला दर्ज किया गया। सिद्दीकी के अनुसार, उन्हें "नरखेड़ घडामोदी" नामक व्हाट्सएप ग्रुप में जोड़ा गया, जिसमें हिंदू और मुस्लिम दोनों समुदायों के लगभग 150 से 200 लोग शामिल हैं।

शिकायतकर्ता ने आरोप लगाया कि दोनों आवेदक (शेंद्रे और वाघे) मुस्लिम धर्म के बारे में कुछ आपत्तिजनक संदेश पोस्ट कर रहे हैं और यह जानकर नाराज़ थे कि सिद्दीकी सहित ग्रुप के कुछ सदस्य "वंदे मातरम" का नारा लगाने के लिए तैयार नहीं हैं। इसलिए उन्होंने ऐसे सदस्यों से कहा कि वे भारत छोड़ दें और पाकिस्तान में रहें, क्योंकि वे "वंदे मातरम" का नारा नहीं लगाना चाहते।

एफआईआर में आगे कहा गया कि अगले दिन शिकायतकर्ता डॉ. वाघे के क्लिनिक में गया और उन्हें समझाया कि वे उनके धर्म के बारे में बुरा न बोलें। हालाँकि, वहां विवाद हुआ। तदनुसार, भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 295ए, 506 और 504 के तहत एफआईआर दर्ज की गई।

जजों ने कहा कि दोनों समुदायों से 150 से 200 समूह सदस्य होने के बावजूद, अभियोजन पक्ष ने केवल 4 लड़कों के बयान दर्ज किए, जिनमें से सभी मुस्लिम थे और उन्होंने गवाही दी कि वे समूह में बहुत सक्रिय नहीं हैं, लेकिन आरोपी व्यक्ति व्हाट्सएप ग्रुप में अपने पोस्ट के माध्यम से धार्मिक भावनाओं को आहत कर रहे हैं।

खंडपीठ ने कहा,

"हम फिर से यह देखने के लिए बाध्य हैं कि ये सभी चार गवाह उसी समुदाय/धर्म से हैं, जिससे गैर-आवेदक नंबर 2 संबंधित है। एक गवाह का कहना है कि ग्रुप के सदस्यों ने राजनीतिक मुद्दों पर चर्चा की। हम अनुमान लगा सकते हैं कि जब राजनीतिक मुद्दों पर चर्चा होगी तो निश्चित रूप से विचारों का आदान-प्रदान होगा और आतिशबाजी होगी।"

खंडपीठ ने नरखेड़ में स्थानीय पुलिस द्वारा जांच और परिणामी आरोपपत्र में विभिन्न खामियों को नोट किया और इस पर नाराजगी व्यक्त की।

जजों ने आदेश में कहा,

"साक्ष्यों अर्थात एकत्र किए गए साक्ष्यों को ध्यान में रखते हुए हमारा मानना ​​है कि जांच अधिकारी ने 'चुनकर लेने' की पद्धति अपनाई थी और केवल उन्हीं गवाहों के बयान दर्ज किए, जो शिकायतकर्ता के समुदाय से हैं, जबकि ग्रुप में हिंदू और मुस्लिम समुदायों के 150 से 200 से अधिक सदस्य शामिल हैं। इस बात की कोई जांच नहीं की गई कि ग्रुप का एडमिन कौन है, क्योंकि इन चारों गवाहों में से किसी ने भी यह दावा नहीं किया कि वे एडमिन हैं। जब ऐसी गतिविधि चल रही थी तो एडमिन का बयान बहुत महत्वपूर्ण है कि उसने क्या किया, इस पर भी विचार किया जाना आवश्यक है।"

खंडपीठ ने कहा कि उन गवाहों के सामान्य बयान कि आवेदक उनके समुदाय के खिलाफ बोल रहे है, उसको जानबूझकर अपमान नहीं माना जाएगा।

उन्होंने कहा,

"उनके बयानों से यह पता नहीं चलता कि ट्रिगरिंग पॉइंट क्या था और जब वे खुद यह नहीं कह रहे हैं कि उन्हें लगा कि ये आवेदक उनकी धार्मिक मान्यताओं का अपमान कर रहे हैं तो यह नहीं कहा जा सकता कि आईपीसी की धारा 295 ए के तत्व आकर्षित होते हैं।"

खंडपीठ ने कहा कि एक और मुद्दा यह सामने आया कि वे संदेश एंड टू एंड एन्क्रिप्टेड थे, जिसका अर्थ है कि उन्हें कोई तीसरा व्यक्ति नहीं देख सकता, फिर क्या यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि उक्त कृत्य आईपीसी की धारा 295ए के अंतर्गत आता है। खंडपीठ ने कहा कि जांच अधिकारी ग्रुप के सभी सदस्यों के नाम एकत्र करने में विफल रहा। जजों ने कहा कि आरोप-पत्र और/या एफआईआर में यह नहीं बताया गया कि उनमें कितने मुस्लिम सदस्य हैं।

खंडपीठ ने कहा,

"आईपीसी की धारा 295ए के अनुसार केवल चार गवाहों और एक शिकायतकर्ता को 'वर्ग' के रूप में नहीं गिना जा सकता। हमारा मानना ​​है कि एफआईआर की सामग्री और आरोप-पत्र में एकत्र सामग्री से आईपीसी की धारा 295ए के तहत अपराध का पता नहीं चलता।"

इसके अलावा, खंडपीठ ने कहा कि आवेदक डॉ. वाघे के क्लिनिक में पक्षों के बीच झगड़ा हुआ। अदालत ने कहा कि शिकायतकर्ता डॉ. वाघे को समझौता कराने के लिए क्लिनिक गया, लेकिन उनके बीच झगड़ा हुआ। इसके बाद वह क्लिनिक से चला गया और दोपहर में कुछ लोगों के साथ फिर से लौटा, जिससे फिर से कुछ विवाद हुआ।

जजों ने कहा,

"ये सभी तथ्य निश्चित रूप से दिखाते हैं कि शिकायतकर्ता हमलावर था और डॉ. वाघे को उकसाने के लिए उनके अस्पताल गया। अगर वह उकसावे का कारण था तो उसे प्रतिक्रिया के लिए भी तैयार रहना चाहिए था। अगर आवेदकों ने प्रतिक्रिया की थी तो यह किसी भी अपराध की श्रेणी में नहीं आता, क्योंकि एफआईआर की सामग्री से हमें नहीं लगता कि वे असंगत है।"

केस टाइटल: प्रमोद शेंद्रे बनाम महाराष्ट्र राज्य (आपराधिक आवेदन 1077/2023)

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