गंभीर आरोपों से जुड़े मामले की जांच करते समय जांच अधिकारी को स्वतंत्रता दी जानी चाहिए: आंध्र प्रदेश हाईकोर्ट

आंध्र प्रदेश हाईकोर्ट ने माना कि गंभीर आरोपों वाले मामले में जांच अधिकारी (IO) को जांच को उसके तार्किक निष्कर्ष तक ले जाने के लिए स्वतंत्र होना चाहिए।
जस्टिस टी मल्लिकार्जुन राव ने आगे कहा,
“जांच अधिकारी, जिसे याचिकाकर्ता को हिरासत में लेकर पूछताछ करने से रोका गया, गंभीर आरोपों में प्रथम दृष्टया तथ्य खोजने में शायद ही सफल हो सकता है। याचिकाकर्ता के जमानत पर रिहा होने के बाद जांच प्रभावी होने की संभावना बहुत अधिक है। अग्रिम जमानत की मांग करने वाले आवेदन पर निर्णय लेते समय हिरासत में लेकर पूछताछ करना अन्य आधारों के साथ-साथ विचार किए जाने वाले प्रासंगिक पहलुओं में से एक हो सकता है।”
न्यायालय भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 की धारा 482 के तहत याचिकाकर्ता द्वारा दायर अग्रिम जमानत याचिका पर सुनवाई कर रहा था। याचिकाकर्ता पर भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 417, 420 और 376 (2) (एन) के तहत आरोप लगाए गए।
पूरा मामला
शिकायत तलाकशुदा महिला द्वारा दर्ज की गई, जिसने दूसरी शादी के लिए उपयुक्त साथी की तलाश में व्हाट्सएप ग्रुप में अपना बायो-डेटा पोस्ट किया था। याचिकाकर्ता/आरोपी ने उससे शादी करने की इच्छा व्यक्त करते हुए उसके संपर्क में आया।
अभियोजन पक्ष ने आरोप लगाया कि आरोपी ने उसके विरोध के बावजूद उसे आपत्तिजनक स्थिति में पुरुषों और महिलाओं की नग्न तस्वीरें भेजीं और लगातार उसका पीछा किया। 07.12.2023 को उसने उसे अपनी पहली पत्नी के सोने के गहने दिखाने के बहाने विशाखापत्तनम में अपने घर पर फुसलाया।
शिकायतकर्ता ने दावा किया कि याचिकाकर्ता ने उसके बाद उसकी सहमति के बिना उसके साथ जबरन बलात्कार किया। उसे इस घटना के बारे में किसी को न बताने की धमकी दी। इसके बाद 08.12.2023 को उसने संवाद किया कि वह अब उससे शादी नहीं करना चाहता और उसके फोन कॉल से बचने लगा।
याचिकाकर्ता ने तर्क दिया कि उसे झूठा फंसाया जा रहा है। आगे तर्क दिया कि एक लोक सेवक (आईपीसी की धारा 21/भारतीय न्याय संहिता की धारा 28 के तहत परिभाषित) के रूप में याचिकाकर्ता की गिरफ्तारी से उसके निलंबन की संभावना होगी। न्यायालय ने कहा कि याचिकाकर्ता द्वारा केवल यह दावा करना कि वह एक लोक सेवक है। गिरफ्तारी पर निलंबन की संभावना, जमानत देने के लिए वैध आधार नहीं है।
गैर-जमानती अपराध में जमानत देने का फैसला करते समय न्यायालय को अन्य बातों के साथ-साथ आरोपी द्वारा किए गए अपराध की प्रकृति और गंभीरता पर भी विचार करना चाहिए।
याचिकाकर्ता ने एक ऐसे मामले का भी हवाला दिया, जिसमें अग्रिम जमानत दी गई लेकिन न्यायालय ने कहा कि "किसी अन्य मामले में अग्रिम जमानत दिए जाने मात्र से हर मामले के लिए मिसाल कायम नहीं होती।
प्त्येक मामले का मूल्यांकन उसके अनूठे तथ्यों के आधार पर किया जाना चाहिए।
न्यायालय ने कहा कि वर्तमान मामले में बलात्कार के आरोपों और जांच में बाधा उत्पन्न करने की संभावना सहित शिकायतों की गंभीर प्रकृति को देखते हुए वह अग्रिम जमानत देने के लिए आश्वस्त नहीं था।
इसके अतिरिक्त उसने कहा कि रिकॉर्ड पर रखी गई सामग्री, प्रथम दृष्टया IPC की धारा 376 के तहत मामला स्थापित करती है। न्यायालय ने स्थापित कानूनी सिद्धांत को दोहराया कि अग्रिम जमानत नियम के तौर पर नहीं दी जानी चाहिए बल्कि इसे केवल तभी दिया जाना चाहिए, जब न्यायालय आश्वस्त हो कि असाधारण परिस्थितियों में ऐसा असाधारण उपाय आवश्यक है।
परिणामस्वरूप, जमानत आवेदन खारिज कर दिया गया।
केस टाइटल: पीवीएचवी गोपाल शर्मा बनाम आंध्र प्रदेश राज्य और अन्य