विवाह के दौरान क्रूरता का आरोप लगाने वाली याचिका तलाक के बाद सुनवाई योग्य नहीं: आंध्र प्रदेश हाइकोर्ट
आंध्र प्रदेश हाइकोर्ट ने माना कि जब विवाह पहले ही टूट हो चुका हो तो दहेज निषेध अधिनियम (Dowry Prohibition Act) की धारा 498ए और धारा 3 के तहत याचिका सुनवाई योग्य नहीं है।
यह आदेश अभियुक्त और उसके माता-पिता द्वारा आईपीसी की धारा 498ए और दहेज निषेध अधिनियम 1961 की धारा 3 और 4 में दायर आपराधिक मामले में उनकी डिस्चार्ज याचिकाओं के खिलाफ पारित बर्खास्तगी आदेश को चुनौती देने वाली आपराधिक पुनर्विचार याचिका में पारित किया गया।
यह तर्क दिया गया कि दहेज निषेध अधिनियम के तहत शिकायतकर्ता पर तभी विचार किया जा सकता है, जब वह पक्षों के बीच एक विद्यमान विवाह हो। हालांकि, वर्तमान मामले में विवाह 2015 में ही भंग हो चुका था।
जस्टिस टी मल्लिकार्जुन राव ने पुलिस उपाधीक्षक एवं अन्य द्वारा पी. शिव कुमार एवं अन्य बनाम राज्य प्रतिनिधि के मामले पर भरोसा करते हुए कहा,
"उपरोक्त निर्णय में उल्लिखित टिप्पणियों के आलोक में यह न्यायालय मानता है कि आरोपी व्यक्तियों के खिलाफ कार्यवाही को आगे बढ़ाने में कोई उपयोगिता नहीं है, विशेष रूप से प्रथम याचिकाकर्ता और द्वितीय प्रतिवादी के बीच विवाह को निरस्त करने वाले फैमिली कोर्ट के आदेश के आलोक में।"
मामले की पृष्ठभूमि:
याचिकाकर्ताओं/आरोपी/पूर्व पति और वास्तविक शिकायतकर्ता के ससुराल वालों ने कहा कि मूल रूप से उनके खिलाफ वर्ष 2015 में एफआईआर दर्ज की गई। उन्होंने अग्रिम जमानत की मांग करते हुए न्यायालय का दरवाजा खटखटाया और जांच अधिकारियों को 41-ए नोटिस जारी करने का निर्देश देते हुए याचिका को अनुमति दी गई।
हालांकि, आदेश की घोर अवहेलना करते हुए याचिकाकर्ताओं ने दावा किया कि बिना जांच किए और केवल शिकायतकर्ता द्वारा दायर शिकायतकर्ता की सामग्री पर भरोसा करते हुए याचिकाकर्ताओं को गिरफ्तार कर लिया गया।
2016 में आपराधिक कार्यवाही शुरू की गई और याचिकाकर्ताओं ने डिस्चार्ज के लिए याचिका दायर की। उन्होंने दलील दी कि वास्तविक शिकायतकर्ता और आरोपी/पति के बीच विवाह 2015 में FCOP के माध्यम से भंग हो गया।
हालांकि ट्रायल कोर्ट ने फैमिली याचिका में पारित आदेश की अवहेलना की और डिस्चार्ज याचिका खारिज कर दी।
इसे चुनौती देते हुए वर्तमान पुनर्विचार याचिका दायर की गई।
न्यायालय ने बिहार राज्य बनाम रमेश सिंह; भारत संघ बनाम प्रफुल्ल के सामल पर भरोसा करते हुए कहा कि सीआरपीसी की धारा 227 और 228 के तहत दायर याचिका का निपटारा करते समय न्यायालय को मामले के विवरण में जाने की आवश्यकता नहीं है। बल्कि, केवल यह स्थापित करना है कि प्रथम दृष्टया मामला बनता है या नहीं।
याचिकाकर्ता नंबर 10 के विवाह को भंग करने वाले फैमिली कोर्ट द्वारा पारित डिक्री की ओर ध्यान आकर्षित करते हुए याचिकाकर्ता 1 और शिकायतकर्ता के मामले में न्यायालय ने माना,
"ऐसा प्रतीत होता है कि दोनों पक्षकारों ने सौहार्दपूर्ण समझौता कर लिया, जिससे कार्यवाही जारी रखना अनावश्यक हो गया। इन परिस्थितियों के मद्देनजर, यह न्यायालय यह मानने के लिए इच्छुक है कि याचिकाकर्ताओं ने ऐसा मामला स्थापित किया, जिसके लिए पुनर्विचार मामले की अनुमति देना उचित है।"
अंत में न्यायालय ने माना कि आरोप अस्पष्ट थे और बिना सबूत के लगाए गए।
इस प्रकार आपराधिक पुनर्विचार याचिका को अनुमति दी गई और सभी तीन याचिकाकर्ताओं को आपराधिक मामले में बरी कर दिया गया।