गवाह द्वारा अपने लिए तथा समान बचाव वाले अन्य लोगों के लिए गवाही देना, उसके साक्ष्य को अस्वीकार करने का कोई आधार नहीं: आंध्र प्रदेश हाईकोर्ट

आंध्र प्रदेश हाईकोर्ट ने कहा कि समान वर्ग के पक्षों की परीक्षा के क्रम को नियंत्रित करने वाला कोई प्रावधान नहीं है। हालांकि सामान्य प्रथा यह है कि पहले एक ही पक्ष के लोगों की परीक्षा ली जाती है।
अदालत ने आगे कहा कि सिर्फ इसलिए कि कोई गवाह न सिर्फ अपने लिए बल्कि दूसरों के लिए भी गवाही देता है, यह उसके साक्ष्य को अस्वीकार करने का आधार नहीं हो सकता।
ऐसा करते हुए अदालत ने याचिकाकर्ता (वादी) की इस दलील को खारिज कर दिया कि प्रतिवादी नंबर 1 का हलफनामा खारिज किया जाना चाहिए, क्योंकि वह अपनी ओर से तथा प्रतिवादी नंबर 3 (जो हाईकोर्ट के समक्ष प्रतिवादी हैं) की ओर से गवाही नहीं दे सकता।
मुकदमे के दौरान तीसरे प्रतिवादी की पहले जांच की गई तथा अपनी मुख्य परीक्षा में उसने कहा कि वह अपने तथा दो अन्य प्रतिवादियों (1 तथा 2) की ओर से गवाही दे रहा है। बाद में पहले प्रतिवादी ने साक्ष्य देने का प्रस्ताव रखा और अपनी मुख्य परीक्षा में कहा कि वह अपनी ओर से तथा अन्य प्रतिवादियों 2 और 3 की ओर से भी साक्ष्य दे रहा है।
याचिकाकर्ता ने दावा किया कि कानून में इसे मान्यता नहीं दी गई।
जस्टिस बीएस भानुमति ने अपने आदेश में सिविल प्रक्रिया संहिता (CPC) के आदेश XVIII, नियम 1, 3 और 3A का उल्लेख किया, जो सामूहिक रूप से गवाहों के क्रमिक क्रम को नियंत्रित करते हैं। नियम 1 वादी को तब तक शुरू करने का अधिकार देता है, जब तक कि प्रतिवादी वादी के तथ्यों को स्वीकार न कर ले लेकिन मांगी गई राहत पर विवाद न करे। नियम 3 पक्ष को या तो शुरू में सभी साक्ष्य प्रस्तुत करने या दूसरे पक्ष द्वारा प्रस्तुत साक्ष्य के उत्तर के रूप में इसे आरक्षित करने की अनुमति देता है।
नियम 3A आगे यह अनिवार्य करता है कि गवाह के रूप में पेश होने की इच्छा रखने वाले पक्ष को अपनी ओर से किसी अन्य गवाह की जांच किए जाने से पहले ऐसा करना चाहिए, जब तक कि अदालत द्वारा दर्ज कारणों के साथ बाद में पेश होने की अनुमति न दी जाए।
इसके बाद न्यायालय ने कहा,
"पहले उन लोगों की जांच की जाती है जो साथ में नौकायन करते हैं। फिर उन लोगों की जो विरोध करते हैं। आदेश XVIII, नियम 3A में यह प्रावधान है कि न्यायालय की अनुमति के बिना किसी पक्ष की उसके लिए गवाह की जांच के बाद जांच नहीं की जा सकती। उक्त अनुमति ऐसे गवाह की जांच के बाद भी दी जा सकती है, लेकिन पक्ष की जांच से पहले। इसलिए भले ही वर्तमान मामले में तीसरे प्रतिवादी की पहले प्रथम प्रतिवादी से पहले जांच की जाती है। उसके बाद प्रथम प्रतिवादी की जांच करने में कोई कानूनी बाधा नहीं है, क्योंकि उनके पास एक समान बचाव है और उन सभी को साक्ष्य देने का अधिकार है। सिर्फ इसलिए कि वे न केवल अपने लिए बल्कि दूसरों के लिए भी साक्ष्य देते हैं, इसे खारिज नहीं किया जा सकता। नियम 3-A के तहत उपरोक्त सीमित प्रतिबंध को छोड़कर सिविल प्रक्रिया संहिता में किसी पक्ष को साक्ष्य देने से रोकने के लिए कोई अन्य प्रतिबंध नहीं है।”
न्यायालय सिविल पुनर्विचार याचिका पर सुनवाई कर रहा था, जिसमें जूनियर सिविल जज, नंदीकोटकुर के एक आदेश को चुनौती दी गई। इसमें प्रथम प्रतिवादी के मुख्य हलफनामा खारिज करने के लिए स्थायी निषेधाज्ञा के लिए दायर याचिकाकर्ता की याचिका खारिज कर दी गई थी। ट्रायल कोर्ट ने यह कहते हुए याचिका खारिज कर दी कि चूंकि सभी प्रतिवादियों के पास एक ही बचाव था और चूंकि केवल एक प्रतिवादी ने उल्लेख किया कि उसने अन्य प्रतिवादियों की ओर से भी गवाही दी थी। इसलिए अन्य प्रतिवादियों के लिए साक्ष्य देने में कोई बाधा नहीं थी और वादी के साथ कोई अन्याय नहीं होगा। इसके खिलाफ याचिकाकर्ता (वादी) ने हाईकोर्ट का रुख किया।
इस बीच हाईकोर्ट ने स्थापित कानून को दोहराया कि किसी तथ्य का प्रमाण साक्ष्य की मात्रा के बजाय साक्ष्य की गुणवत्ता और विश्वसनीयता पर निर्भर करता है।
इसने आगे बताया,
“एक या एक से अधिक गवाहों/दस्तावेजों की जांच/दाखिल करके किसी तथ्य को साबित किया जा सकता है। इसलिए जांचे जाने वाले गवाहों की संख्या कहीं भी निर्धारित नहीं है। एक भी गवाह का साक्ष्य, बशर्ते वह विश्वसनीय हो किसी तथ्य को साबित करने के लिए पर्याप्त है। लेकिन एक गवाह का साक्ष्य, अन्य गवाहों के साक्ष्य द्वारा पुष्टि किए जाने पर अधिक विश्वसनीय हो जाता है। इसलिए हालांकि कानून के मामले में पुष्टि की आवश्यकता नहीं है, लेकिन विवेकशील व्यक्ति के मानक को पूरा करने के लिए संदेह को दूर करके साक्ष्य की गुणवत्ता सुनिश्चित करने के लिए आमतौर पर एक से अधिक गवाहों की जांच की जाती है।”
इसके अलावा, न्यायालय ने भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 3 के व्याकरण और प्रयोज्यता को समझाया, जो भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 2023 की धारा 2 के अनुरूप है, जो किसी तथ्य को साबित करने के तरीके को नियंत्रित करती है। इसने स्पष्ट किया कि किसी भी गवाह की जांच करके या कोई दस्तावेज दाखिल करके किसी तथ्य को साबित किया जा सकता है।
इसमें आगे कहा गया,
“किसी तथ्य को तब सिद्ध कहा जाता है जब उसके समक्ष मामले पर विचार करने के बाद न्यायालय या तो यह मानता है कि वह मौजूद है या उसके अस्तित्व को इतना संभावित मानता है कि किसी विवेकशील व्यक्ति को, विशेष मामले की परिस्थितियों के तहत इस धारणा पर कार्य करना चाहिए कि वह मौजूद है।”
निचली अदालत के आदेश में कोई अनियमितता न पाते हुए हाईकोर्ट ने याचिका खारिज कर दी।
केस टाइटल: कोटे कृष्णुडु बनाम मंडलीम सुब्बा रेड्डी और अन्य