'हिंसा, लिंचिंग और गौरक्षकों का चलन आम हो गया है': इलाहाबाद हाईकोर्ट ने गौहत्या अधिनियम के तहत लापरवाही से दर्ज की गई FIRs की निंदा की

Update: 2025-10-13 15:22 GMT

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने हाल ही में उत्तर प्रदेश गौहत्या निवारण अधिनियम, 1955 के तहत पुलिस अधिकारियों द्वारा मामले दर्ज करने के 'लापरवाह' तरीके और राज्य में गौरक्षकों की बढ़ती समस्या को गंभीरता से लिया।

जस्टिस अब्दुल मोइन और जस्टिस अबधेश कुमार चौधरी की खंडपीठ ने प्रमुख सचिव (गृह) और पुलिस महानिदेशक (DGP) को व्यक्तिगत हलफनामा दाखिल कर यह स्पष्ट करने का निर्देश दिया कि अधिनियम, 1955 के प्रावधानों के अधीन न होने के बावजूद ऐसी FIRs क्यों दर्ज की जा रही हैं।

खंडपीठ ने इस मुद्दे पर भी हलफनामा मांगा कि राज्य सरकार ने तहसीन एस. पूनावाला बनाम भारत संघ (2018) मामले में सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों के अनुपालन में भीड़ हिंसा और गौरक्षकों पर अंकुश लगाने के लिए अभी तक औपचारिक सरकारी आदेश क्यों नहीं जारी किया।

अपने 17 पृष्ठों के आदेश में कोर्ट ने कहा कि छह दशक से भी पहले इलाहाबाद हाईकोर्ट द्वारा स्वयं स्पष्ट कानून बनाए जाने और सुप्रीम कोर्ट द्वारा पुनः पुष्टि किए जाने के बावजूद, पुलिस अधिकारी 1955 के अधिनियम के प्रावधानों के तहत "बाएं-दाएं" FIR दर्ज करना जारी रखे हुए हैं, यहां तक कि ऐसे मामलों में भी जहां कोई अपराध नहीं बनता।

खंडपीठ ने ये टिप्पणियां 1955 के अधिनियम की धारा 3, 5ए, 8 और पशु क्रूरता निवारण अधिनियम, 1960 की धारा 11 के तहत आरोपित राहुल यादव नामक व्यक्ति को अगले आदेश तक किसी भी प्रकार की दंडात्मक कार्रवाई से अंतरिम राहत प्रदान करते हुए कीं।

संक्षेप में मामला

एक वाहन के मालिक यादव ने बताया कि उनका चालक 1 मार्च, 2025 को वाहन लेकर गया और वापस नहीं लौटा। बाद में उन्हें पता चला कि पुलिस द्वारा उनके वाहन में रस्सियों से बंधे, हांफते हुए नौ "गाय के बच्चे" पाए जाने के बाद FIR दर्ज की गई।

हालांकि, कोर्ट ने पाया कि कोई वध या अपंगता नहीं हुई और पशु जीवित है। कोर्ट ने यह भी पाया कि उत्तर प्रदेश के बाहर परिवहन का कोई आरोप नहीं था, जो 1955 के अधिनियम की धारा 5-ए के तहत एक आवश्यक शर्त है।

खंडपीठ ने टिप्पणी की:

"स्पष्ट रूप से अधिनियम, 1955 की धारा 5-ए के तहत कोई अपराध नहीं बनता। प्रतिवादियों का यह भी दावा नहीं है कि याचिकाकर्ता ने गोवंश का वध किया है, क्योंकि गोवंश जीवित पाया गया। इस प्रकार, अधिनियम की धारा 3 और 8 भी लागू नहीं होती हैं।"

इसी प्रकार, चूंकि याचिकाकर्ता केवल वाहन का स्वामी है, चालक नहीं, इसलिए पशु क्रूरता निवारण अधिनियम, 1960 की धारा 11 भी मामले के तथ्यों पर लागू नहीं पाई गई। इस प्रकार कोर्ट ने याचिकाकर्ता को राहत प्रदान की।

हाईकोर्ट की महत्वपूर्ण टिप्पणियां

अपने आदेश में खंडपीठ ने कोर्ट में आने वाली उन याचिकाओं की भारी संख्या पर गंभीर चिंता व्यक्त की, जिनमें व्यक्तियों को गोहत्या अधिनियम के तहत झूठे मामलों में फंसाया जा रहा है, जबकि इनमें किसी भी प्रकार का वध, चोट या अंतरराज्यीय परिवहन शामिल नहीं है।

कोर्ट ने कहा,

"इस मामले को इतना सरल नहीं माना जा सकता, क्योंकि यह कोर्ट ऐसे मामलों से भरा पड़ा है, जो 1955 के अधिनियम के प्रावधानों के तहत अधिकारियों और शिकायतकर्ताओं द्वारा दर्ज की जा रही FIR पर आधारित हैं।"

खंडपीठ ने कहा कि 1962 में ही परसराम जी बनाम इम्तियाज मामले में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने यह माना कि किसी पशु के वध की तैयारी मात्र 1955 के अधिनियम के तहत अपराध नहीं है। लंबे समय से स्थापित सिद्धांतों के बावजूद, खंडपीठ ने इस बात पर खेद व्यक्त किया कि बिना सोचे-समझे FIR दर्ज की जा रही हैं।

इस प्रकार, 1955 के अधिनियम के प्रावधानों का जिस 'लापरवाही' तरीके से प्रयोग किया जा रहा है, उसे देखते हुए खंडपीठ ने शीर्ष अधिकारियों के हलफनामे मांगे।

हाईकोर्ट के आदेश में उन अधिकारियों या शिकायतकर्ताओं के खिलाफ की जा रही कार्रवाई का खुलासा करने की मांग की गई, जो ऐसी लापरवाही से FIR दर्ज करते हैं और "पुलिस अधिकारियों और इस न्यायालय दोनों का कीमती समय बर्बाद करते हैं"।

खंडपीठ ने अधिकारियों से यह भी पूछा कि राज्य को यह सुनिश्चित करने के लिए एक सरकारी आदेश जारी करने का निर्देश क्यों न दिया जाए कि भविष्य में गोहत्या अधिनियम के तहत ऐसी तुच्छ FIR दर्ज न की जाएं।

हाईकोर्ट ने भीड़ द्वारा की जा रही निगरानी की निंदा की

गौरतलब है कि हाईकोर्ट ने उत्तर प्रदेश में भीड़ द्वारा की जा रही निगरानी के बढ़ते चलन से गोहत्या अधिनियम के दुरुपयोग को भी जोड़ा। कोर्ट ने हाल ही के एक मामले का हवाला दिया, जिसमें कथित तौर पर भीड़ द्वारा की गई निगरानी ने एक कार को रोका और बाद में वह गाड़ी गायब हो गई।

कोर्ट ने इस प्रकार टिप्पणी की:

"1955 के अधिनियम की आड़ में विभिन्न व्यक्तियों द्वारा निगरानी की जा रही है... हिंसा, भीड़ द्वारा हत्या और निगरानी आजकल आम बात हो गई है..."।

इसके बाद खंडपीठ ने तहसीन पूनावाला मामले का विस्तार से उल्लेख किया, जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने किसी भी प्रकार की निगरानी और भीड़ द्वारा की जा रही हिंसा को रोकने के लिए व्यापक निवारक, उपचारात्मक और दंडात्मक निर्देश जारी किए। साथ ही कहा था कि राज्य के अधिकारियों द्वारा इनका पालन न करना "जानबूझकर की गई लापरवाही और कदाचार" माना जाएगा।

हालांकि, कोर्ट ने यह भी कहा कि लगभग सात साल पहले सुप्रीम कोर्ट द्वारा निर्देश जारी किए जाने के बावजूद, यह ज्ञात नहीं है कि राज्य सरकार ने क्या कार्रवाई की।

यह देखते हुए कि इस संबंध में पुलिस महानिदेशक द्वारा सर्कुलर जारी किया गया, कोर्ट ने कहा कि यह सरकारी आदेश का स्थान नहीं ले सकता, क्योंकि सरकारी आदेश राज्य की कार्यपालिका शक्ति की अभिव्यक्ति है और इसमें आधिकारिक नीति और निर्देश प्रतिबिम्बित होने चाहिए।

खंडपीठ ने कहा,

"चूंकि सुप्रीम कोर्ट के निर्देश राज्य सरकार को हैं, इसलिए इस संबंध में सरकारी आदेश जारी किया जाना चाहिए, जो सरकार के आधिकारिक निर्णय, नीति या प्रशासनिक निर्देशों को प्रतिबिम्बित करे, क्योंकि सरकारी आदेश भारत के संविधान के अनुच्छेद 162 के तहत राज्य की कार्यपालिका शक्ति की अभिव्यक्ति है। तदनुसार, प्रथम दृष्टया पुलिस महानिदेशक द्वारा जारी सर्कुलर सुप्रीम कोर्ट द्वारा जारी निर्देश के अनुरूप नहीं है।"

अतः, कोर्ट ने निर्देश दिया कि प्रमुख सचिव (गृह) और पुलिस महानिदेशक के व्यक्तिगत हलफनामों में यह भी स्पष्ट किया जाना चाहिए कि तहसीन एस. पूनावाला और संबंधित मामलों में सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों को लागू करने के लिए क्या कदम उठाए गए।

इस पृष्ठभूमि में कोर्ट ने मामले को 7 नवंबर, 2025 के लिए फिर से सूचीबद्ध किया और चेतावनी दी कि यदि 1955 के अधिनियम के तहत तुच्छ FIR दर्ज की जाती रहीं तो वह अधिकारियों पर कठोर दंड लगाने पर विचार कर सकता है।

खंडपीठ ने कहा,

"ऐसी तुच्छ FIR के कारण पीड़ित व्यक्ति इस कोर्ट का दरवाजा खटखटाने के लिए विवश होते हैं, जिससे उनका बहुमूल्य धन और समय बर्बाद होता है। साथ ही कोर्ट का बहुमूल्य न्यायिक समय भी ऐसे मामलों से निपटने में बर्बाद होता है, जिन्हें राज्य स्वयं ही जड़ से खत्म कर सकता है।"

यदि तीन सप्ताह के भीतर हलफनामे दाखिल नहीं किए जाते हैं तो प्रमुख सचिव (गृह) और डीजीपी दोनों को खंडपीठ की सहायता के लिए अभिलेखों के साथ कोर्ट के समक्ष व्यक्तिगत रूप से उपस्थित होने का निर्देश दिया गया।

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