उत्तर प्रदेश चकबंदी अधिनियम में संशोधन के तहत 01.01.1977 से पहले निष्पादित दत्तक डीड के रजिस्ट्रेशन की आवश्यकता नहीं : इलाहाबाद हाईकोर्ट

Update: 2024-12-23 08:18 GMT

40 वर्ष पुरानी रिट याचिका को स्वीकार करते हुए इलाहाबाद हाईकोर्ट ने माना कि उत्तर प्रदेश राज्य में चकबंदी कार्यवाही को इस आधार पर खारिज नहीं किया जा सकता कि दत्तक डीड का रजिस्ट्रेशन नहीं हुआ, जबकि ऐसा डीड 01.01.1977 से पहले निष्पादित किया गया।

जस्टिस चंद्र कुमार राय ने कहा कि इसे स्वीकार नहीं किया जा सकता खासकर तब जब दत्तक ग्रहण के कागजात पहले ही चकबंदी अधिकारी द्वारा सत्यापित किए जा चुके हों।

पूरा मामला

पिता की मृत्यु के पश्चात याचिकाकर्ता और उसकी मौसियों ने उत्तर प्रदेश चकबंदी अधिनियम, 1953 की धारा 12 के अंतर्गत आवेदन दायर किया। याचिकाकर्ता ने प्रस्तुत किया कि 25.10.1974 के दत्तक ग्रहण विलेख के आधार पर, मृतक का दत्तक पुत्र होने के नाते, वह अपनी मौसियों के ऊपर अपने पिता की संपत्ति का हकदार था।

चकबंदी अधिकारी ने याचिकाकर्ता के पक्ष में आदेश पारित किया। उसकी मौसियों ने इसके विरुद्ध अपील की, जिसे स्वीकार कर लिया गया। प्रत्युत्तर में याचिकाकर्ता ने अधिनियम की धारा 48 के अंतर्गत पुनरीक्षण याचिका दायर की, जिसे खारिज कर दिया गया। व्यथित होकर उसने वर्तमान रिट याचिका दायर की।

याचिकाकर्ता के वकील ने प्रस्तुत किया कि विचाराधीन दत्तक ग्रहण पत्रों को रजिस्ट्रेशन की आवश्यकता नहीं थी, क्योंकि वे 01.01.1977 से पहले निष्पादित किए गए। यह प्रस्तुत किया गया कि जब दत्तक ग्रहण हुआ तो उसके पिता की पत्नी द्वारा इसका कोई विरोध नहीं किया गया, क्योंकि उसने उसे छोड़ दिया था।

याचिकाकर्ता ने तर्क दिया कि आरोपित आदेश रिकॉर्ड पर मौजूद साक्ष्यों पर विचार किए बिना पारित किया गया। इस प्रकार कानून की दृष्टि में यह टिकने योग्य नहीं है।

प्रतिवादी पक्ष ने दलील दी कि गोद लेने की परिस्थितियाँ संदिग्ध थीं और उचित प्रक्रिया का पालन नहीं किया गया। यह कहा गया कि गोद लेने के समय मृतक की पत्नी जीवित थी और फिर भी उसकी सहमति नहीं ली गई। उन्होंने तर्क दिया कि ऐसी परिस्थितियों में याचिकाकर्ता को कोई अधिकार नहीं मिल सकता।

हाईकोर्ट का फैसला

न्यायालय ने पाया कि चकबंदी अधिकारी ने सभी साक्ष्यों को ध्यान में रखते हुए अपने आदेश पारित किए। उन्हें गोद लेने के कागजात के पंजीकरण की कोई आवश्यकता नहीं लगी। इसने हिंदू दत्तक ग्रहण और भरण-पोषण अधिनियम, 1956 की धारा 6 और 16 की जांच की और माना कि मुंदर बनाम उप निदेशक चकबंदी और अन्य में अपने फैसले के अनुसार याचिकाकर्ता का गोद लेना वैध था।

मुंदर बनाम उप निदेशक चकबंदी व अन्य में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने माना कि 1.1.1977 से पहले के दत्तक ग्रहण विलेख को उसके निष्पादन के लिए रजिस्टर कराना आवश्यक नहीं है।

न्यायालय ने माना,

“यह भी महत्वपूर्ण है कि धारा 16 में उत्तर प्रदेश संशोधन वर्ष 1976 में हुआ, जिसे 1.1.1977 से प्रभावी बनाया गया। ऐसे में हिंदू दत्तक ग्रहण और भरण-पोषण अधिनियम, 1956 की धारा 16 के तहत निहित प्रावधानों के अनुसार, यह अनुमान लगाया जाएगा कि अधिनियम के प्रावधानों के अनुपालन में दत्तक ग्रहण किया गया, जब तक कि इसे अस्वीकृत न कर दिया जाए। वर्तमान मामले मे दत्तक ग्रहण डीड 15.10.1974 को निष्पादित किया गया। ऐसे में प्रश्नगत दत्तक ग्रहण विलेख के गैर-रजिस्टर से कोई फर्क नहीं पड़ेगा।”

न्यायालय ने कहा कि दत्तक ग्रहण के कागजात से यह स्पष्ट था कि मृतक की पत्नी ने दत्तक ग्रहण के समय उसे छोड़ दिया। यह पाया गया कि विलेख के अनुसार याचिकाकर्ता को मृतक की संपूर्ण चल और अचल संपत्ति का अधिकार है।

न्यायालय ने विवादित आदेश रद्द कर दिया।

केस टाइटल: जगदीश बनाम सहायक संचालक, चकबंदी अधिकारी और अन्य [रिट - बी संख्या 9423/1984]

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