केंद्र सरकार एपोस्टिल कन्वेंशन से बंधी हुई है, अन्य देशों के एपोस्टिल दस्तावेज़ पर अविश्वास नहीं कर सकती: इलाहाबाद हाइकोर्ट
इलाहाबाद हाइकोर्ट ने माना कि केंद्र सरकार विदेशी सार्वजनिक दस्तावेजों (Apostille Conventio) के लिए वैधीकरण (Ligalisation) की आवश्यकता को समाप्त करने वाले 5 अक्टूबर 1961 के कन्वेंशन से बंधी है, क्योंकि भारत इसका हस्ताक्षरकर्ता है। न्यायालय ने माना कि सरकार एपोस्टिल कन्वेंशन पर हस्ताक्षर करने वाले देशों द्वारा जारी किए गए एपोस्टिल दस्तावेजों पर अविश्वास नहीं कर सकती है।
विदेशी सार्वजनिक दस्तावेजों के लिए वैधीकरण की आवश्यकता को समाप्त करने वाला 5 अक्टूबर, 1961 का कन्वेंशन, जिसे एपोस्टिल कन्वेंशन के रूप में भी जाना जाता है, विदेशी सार्वजनिक दस्तावेजों के लिए वैधीकरण की आवश्यकता को समाप्त करने के लिए अंतरराष्ट्रीय संधि (International Treaty) है। इसे एक देश द्वारा दूसरे देश के दस्तावेजों के प्रमाणीकरण की बोझिल प्रक्रिया को बदलने के लिए लाया गया था। यदि दो देश एपोस्टिल कन्वेंशन के हस्ताक्षरकर्ता हैं तो एक देश की सरकार द्वारा जारी किए गए दस्तावेज़ दूसरे देश में बिना किसी वेरिफिकेशन के आवश्यकता के कानूनी रूप से पहचाने जाने योग्य हैं।
अदालत ने कहा,
“भारत इस कन्वेंशन का हस्ताक्षरकर्ता होने के नाते अन्य अनुबंधित पक्ष (देश) द्वारा जारी किए गए किसी भी सार्वजनिक दस्तावेज़ को स्वीकार करने के लिए बाध्य है। इसलिए हेग एपोस्टिल कन्वेंशन के तहत अंतरराष्ट्रीय दायित्व के अनुसार, सभी संबंधित पक्षों द्वारा 'एपोस्टिल' दस्तावेज़ को भारत में वैध दस्तावेज़ के रूप में माना जाना चाहिए।”
जस्टिस महेश चंद्र त्रिपाठी और जस्टिस प्रशांत कुमार की पीठ ने कहा,
“भारत सरकार हेग कन्वेंशन की हस्ताक्षरकर्ता रही है। तदनुसार, विदेश मंत्रालय ने 18-11-2020 को 'एपोस्टिल' दस्तावेज़ को कानूनी दस्तावेज़ मानते हुए कार्यालय ज्ञापन जारी किया। यहां, जब याचिकाकर्ता ने अपनी वंशावली दिखाते हुए 'एपोस्टिल' दस्तावेज़ दिया तो प्रतिवादी नंबर 1 से 3 के लिए यह खुला नहीं है कि वे उस पर अविश्वास करें और संधि का पालन न करें, भले ही उन्होंने स्वयं हस्ताक्षर किए हों।"
पूरा मामला
याचिकाकर्ता संयुक्त राज्य अमेरिका का नागरिक है। हालांकि उसका जन्म गुयाना में हुआ है, लेकिन वह भारतीय मूल का है। याचिकाकर्ता के परदादा और दादा इलाहाबाद और पड़ोसी जिलों से थे और उन्हें जहाज द्वारा कोलकाता से गुयाना भेजा गया था। याचिकाकर्ता ने गुयाना के राष्ट्रीय अभिलेखागार से अपने दादा-दादी के इमिग्रेशन सर्टिफिकेट की एपोस्टील कॉपी अदालत के समक्ष प्रस्तुत की।
याचिकाकर्ता ने दावा किया कि उसने 2018 में मुंबई के मंदिर में भारतीय नागरिक से शादी की थी। वहीं अपने पति या पत्नी के माध्यम से ओवरसीज़ सिटिजनशिप ऑफ़ इंडिया कार्ड (OCI Card) के लिए उनका आवेदन अस्वीकार कर दिया गया, क्योंकि उनकी शादी सत्यापित नहीं है। दोनों कारणों से वीज़ा रूपांतरण के लिए याचिकाकर्ता का आवेदन अस्वीकार कर दिया गया, क्योंकि उसके वीज़ा के लिए न्यूनतम छह महीने की वैधता अवधि की आवश्यकता है।
जब याचिकाकर्ता ओसीआई कार्ड प्राप्त करने के लिए दर-दर भटक रही थी और इसी दौरान उसका वीजा समाप्त हो गया। तदनुसार, याचिकाकर्ता ने ओसीआई कार्ड देने और भारतीय मूल के आधार पर वीज़ा को एक्स-1 एंट्री वीज़ा में बदलने के लिए हाइकोर्ट का दरवाजा खटखटाया।
याचिकाकर्ता के वकील ने कहा कि याचिकाकर्ता को समय-समय पर बढ़ाया गया वीजा समाप्त हो गया और इसे आगे नहीं बढ़ाया जा रहा है। यह तर्क दिया गया कि भारत के विदेशी नागरिक के रूप में पंजीकरण प्रदान करने के लिए नागरिकता अधिनियम,1955 (Citizenship Act 1955) और नागरिकता नियम, 2009 (Citizenship Rules 2009) के तहत बर्थ सर्टिफिकेट अनिवार्य नहीं है। यह तर्क दिया गया कि याचिकाकर्ता ने अपने दावे के समर्थन में आवश्यक दस्तावेज जमा किए, जिसमें यह दर्शाया गया कि वह भारतीय मूल की है, क्योंकि उसके पूर्वज उत्तर प्रदेश में रहते थे।
यह तर्क दिया गया कि क्योंकि भारत और गुयाना दोनों 5 अक्टूबर 1961 के कन्वेंशन के हस्ताक्षरकर्ता थे, जो विदेशी सार्वजनिक दस्तावेजों (एपोस्टिल कन्वेंशन) के लिए वैधीकरण की आवश्यकता को समाप्त कर रहा था, गुयाना के राष्ट्रीय अभिलेखागार से इमिग्रेशन सर्टिफिकेट भारत में कानूनी रूप से मान्यता प्राप्त दस्तावेज है।
याचिकाकर्ता के वकील ने प्रस्तुत किया कि प्रतिवादी अधिकारियों ने विदेश मंत्रालय द्वारा जारी कार्यालय ज्ञापन दिनांक 18-11-2020 को नजरअंदाज कर दिया, जिसमें कहा गया कि एपोस्टिल दस्तावेज़ को एपोस्टिल कन्वेंशन,1961 के तहत अंतरराष्ट्रीय दायित्व के अनुसार, सभी संबंधितों द्वारा भारत में वैध दस्तावेज़ के रूप में माना जाना चाहिए।
प्रति कॉन्ट्रा, उत्तरदाताओं के वकील ने तर्क दिया कि याचिकाकर्ता अपने पति की पहली शादी से अलग होने की कॉपी प्रदान करने में दो बार विफल रही तदनुसार, उसका आवेदन बंद कर दिया गया।
आगे यह भी तर्क दिया गया कि विदेशी नागरिकों को वीजा का अधिकार नहीं है। इसे केंद्र सरकार द्वारा विदेशी अधिनियम, 1946 (foreigners Act 1946) की धारा 3(2) के तहत विनियमित किया जा सकता है, जो केंद्र सरकार को भारत में किसी भी विदेशी के प्रवेश, रहने और प्रस्थान को विनियमित करने का अधिकार देता है।
यह तर्क दिया गया कि याचिकाकर्ता को सूचित किया गया कि COVID-19 के प्रसार के कारण 2021 में ओसीआई कार्ड सेवाओं को अस्थायी रूप से निलंबित कर दिया गया। हालांकि, बाद में उससे कोई पत्राचार प्राप्त नहीं हुआ। इस तरह उक्त ओसीआई आवेदन पर आगे कार्रवाई नहीं की जा सकी।
यह तर्क दिया गया कि याचिकाकर्ता द्वारा गुयाना के अभिलेखागार से प्राप्त किए गए दस्तावेज अधिनियम, 1955 की धारा 7 ए (1) या धारा 7 ए (3) के तहत अनुच्छेद 5 और 8 के साथ OIC कार्ड रजिस्ट्रेशन के लिए पात्र नहीं थे।
भारत के संविधान के अनुसार,
“भारतीय मूल के आप्रवासियों के वंशजों के रूप में, जो ब्रिटिश शासन के दौरान गिरमिटिया मजदूरों के रूप में मॉरीशस, सूरीनाम, नीदरलैंड और रीयूनियन द्वीप में चले गए, उन्हें केवल मंत्रालय की मंजूरी के साथ विशेष छूट देकर OIC कार्ड रजिस्ट्रेशन के लिए पात्र बनाया गया।”
वहीं गुयाना के भारतीय प्रवासियों को विशेष छूट श्रेणी में शामिल नहीं किया गया, इसलिए गुयाना के अभिलेखागार से दस्तावेज़ के आधार पर OIC कार्ड देने के लिए याचिकाकर्ता का आवेदन स्वीकार नहीं किया जा सका। उत्तरदाताओं ने याचिकाकर्ता द्वारा प्रस्तुत किए जाने वाले संबंधित जिला मजिस्ट्रेट द्वारा जारी किए गए बर्थ सर्टिफिकेट की आवश्यकता पर जोर दिया।
हाईकोर्ट का फैसला
न्यायालय के समक्ष मुद्दा यह था कि क्या गुयाना के राष्ट्रीय अभिलेखागार द्वारा जारी एपोस्टिल प्रमाणपत्र को हेग कन्वेंशन, 1961 के तहत एक लीगल दस्तावेज माना जा सकता है।
कोर्ट ने कहा कि विदेश मंत्रालय द्वारा जारी 18-11-2020 के कार्यालय ज्ञापन में यह प्रावधान है कि एपोस्टिल कन्वेंशन पर हस्ताक्षर करने वाले किसी भी देश से एपोस्टिल दस्तावेज़ के आगे वेरिफिकेशन की कोई आवश्यकता नहीं है।
अदालत ने कहा कि क्योंकि याचिकाकर्ता ने गुयाना के राष्ट्रीय अभिलेखागार से अपने दादा-दादी के इमिग्रेशन सर्टिफिकेट संबंध में दस्तावेज प्राप्त किए और उन्हें विधिवत एपोस्टिल किया गया, इसलिए भारतीय अधिकारियों के पास उन पर अविश्वास करने का कोई कारण नहीं है, दोनों राष्ट्र एपोस्टिल कन्वेंशन के हस्ताक्षरकर्ता हैं।
न्यायालय ने माना कि उत्तरदाता "मुड़कर" नहीं कह सकते हैं कि जब भारत एपोस्टिल कन्वेंशन का हस्ताक्षरकर्ता है तो एपोस्टिल दस्तावेजों पर कार्यालय ज्ञापन अनिवार्य नहीं है।
आगे कहा गया,
“भारत के संविधान का अनुच्छेद 51 (सी) राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांत है, जिसमें कहा गया कि राज्य अंतरराष्ट्रीय कानून और संधि दायित्वों के प्रति सम्मान को बढ़ावा देने का प्रयास करेगा, जहां भारत अंतरराष्ट्रीय संधि पर हस्ताक्षरकर्ता राष्ट्र है और क़ानून ऐसी संधि को आगे बढ़ाने के लिए बनाए गए हैं, ऐसे क़ानून के संकीर्ण शाब्दिक निर्माण के बजाय उद्देश्यपूर्ण निर्माण को प्राथमिकता दी जाती है। इस तरह के क़ानून की व्याख्या पहले की घरेलू मिसालों के बजाय सामान्य स्वीकृति के व्यापक सिद्धांत पर की जाएगी, जिसका उद्देश्य संधि दायित्वों को पूरा करना है और उनके साथ असंगत नहीं होना चाहिए।"
एपोस्टिल कन्वेंशन की बाध्यकारी प्रकृति को मान्यता देते हुए कोर्ट ने लक्ष्मी कांत पांडे बनाम भारत सरकार और अन्य में सुप्रीम कोर्ट के फैसले, डॉ. संजय खंडूजा बनाम पंजाब नेशनल बैंक और अन्य में दिल्ली हाइकोर्ट के फैसले और अब्दुल मनाफ बनाम राज्य में केरल हाईकोर्ट के फैसले पर भरोसा किया।
न्यायालय ने माना कि जब भारत सरकार एपोस्टिल कन्वेंशन की हस्ताक्षरकर्ता है तो भारत संघ सहित प्रतिवादी एपोस्टिल दस्तावेजों पर अविश्वास नहीं कर सकते हैं। 'एपोस्टिल' दस्तावेज़ को कानूनी दस्तावेज मानते हुए दिनांक 18-11-2020 का कार्यालय ज्ञापन भी जारी किया गया।
न्यायालय ने माना कि याचिकाकर्ता ने अपना वंश स्थापित कर लिया, जैसा कि 1955 के अधिनियम के अनुसार आवश्यक था। वहीं उत्तरदाताओं की मांग के अनुसार उसे अपने वंश को साबित करने के लिए विशेष रूप से जन्म प्रमाण पत्र प्रदान करने की कोई आवश्यकता नहीं है।
तदनुसार, न्यायालय ने प्रतिवादी अधिकारियों को नागरिकता अधिनियम, 1955 की धारा 7ए के अनुसार याचिकाकर्ता के OIC कार्ड को संसाधित करने का निर्देश दिया और उन्हें याचिकाकर्ता के वीज़ा को परिवर्तित करने का भी निर्देश दिया, जिससे वह OIC कार्ड के लिए पात्र हो।
केस टाइटल- नारोमाटी देवी गणपत बनाम भारत संघ और अन्य ।
केस साइटेशन- लाइव लॉ (एबी) 30 2024
याचिकाकर्ता के वकील: विनीत कुमार सिंह, प्रतीक श्रीवास्तव, विक्रांत प्रताप सिंह और विपुल सिंह।
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