भूमि पर अतिक्रमण का खतरा और सार्वजनिक उद्देश्य के लिए प्रस्तावित उपयोग, भूमि अधिग्रहण अधिनियम की धारा 17 के तहत तात्कालिकता खंड लागू करने के लिए पर्याप्त नहीं: इलाहाबाद हाईकोर्ट
इलाहाबाद हाईकोर्ट ने दोहराया है कि केवल अतिक्रमण का खतरा और यह कहना कि भूमि का उपयोग सार्वजनिक उद्देश्य के लिए नियोजित विकास हेतु किया जाना है, भूमि अधिग्रहण अधिनियम, 1894 की धारा 17 के तहत तात्कालिकता खंड लागू करने और भूस्वामियों की आपत्तियाँ मांगने, उनकी सुनवाई करने और उन पर निर्णय लेने की वैधानिक आवश्यकता से छूट देने को उचित नहीं ठहराएगा।
गाजियाबाद विकास प्राधिकरण द्वारा शुरू की गई 2004 की अधिग्रहण कार्यवाही पर विचार करते हुए और सुप्रीम कोर्ट के विभिन्न निर्णयों का हवाला देते हुए जस्टिस मनोज कुमार गुप्ता और जस्टिस अनीश कुमार गुप्ता की खंडपीठ ने कहा,
“नियोजित विकास के लिए भूमि का अधिग्रहण एक सार्वजनिक उद्देश्य है, और बार-बार यह माना गया है कि यह अपने आप में अधिनियम की धारा 17 के तहत शक्ति के प्रयोग को उचित ठहराने के लिए पर्याप्त नहीं है।”
यह भी माना गया कि आवासीय योजनाओं के विकास में वर्षों लग जाते हैं, और ऐसे मामलों में धारा 5ए के तहत आपत्तियों की आवश्यकता को समाप्त करने के लिए तात्कालिकता प्रावधान का प्रयोग सामान्यतः उचित नहीं है।
याचिकाकर्ता ने भूमि अधिग्रहण अधिनियम, 1894 की धारा 4(1) के तहत 16.10.2004 की भूमि अधिग्रहण अधिसूचनाओं और अधिनियम की धारा 6 के तहत सार्वजनिक प्रयोजन के लिए भूमि उपयोग घोषित करने वाली अधिसूचनाओं की वैधता को चुनौती देते हुए 2005 में हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया था। गाजियाबाद विकास प्राधिकरण, गाजियाबाद द्वारा 'नियोजित विकास योजना के तहत आवासीय कॉलोनी के निर्माण' के लिए भूमि का अधिग्रहण किया जा रहा था।
बाद में अधिनियम की धारा 17 के तहत तात्कालिकता शक्तियों का प्रयोग उसी अधिग्रहण के लिए किया गया, जिसके परिणामस्वरूप भूमि स्वामियों की आपत्तियों पर सुनवाई की अनिवार्य आवश्यकता समाप्त हो गई। कुछ भूमि स्वामियों ने अधिग्रहण के खिलाफ हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया। याचिकाएं स्वीकार कर ली गईं और हाईकोर्ट के आदेश को जीडीए ने सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी।
सुप्रीम कोर्ट ने इस आधार पर मामले को हाईकोर्ट को वापस भेज दिया कि कुछ दस्तावेज़ उसके समक्ष पहली बार प्रस्तुत किए गए थे और उन्हें पहले हाईकोर्ट के समक्ष प्रस्तुत किया जाना चाहिए था।
तदनुसार, हाईकोर्ट के समक्ष यह मुद्दा था कि क्या आपत्तियों पर सुनवाई की आवश्यकता को उचित रूप से समाप्त किया गया था और क्या किसी सक्षम प्राधिकारी ने राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र योजना बोर्ड अधिनियम, 1985 के प्रावधानों के तहत क्षेत्रीय योजना, उप-क्षेत्रीय योजना और मास्टर प्लान को मंजूरी दी थी।
न्यायालय ने कहा कि पिछली खंडपीठ ने कहा था कि चूंकि धारा 4 के तहत अधिसूचना के 4 वर्ष बाद तात्कालिकता खंड लागू किया गया था, इसलिए कोई तात्कालिकता नहीं थी और अधिग्रहण पर आपत्ति करने का पर्याप्त अधिकार प्राधिकरण द्वारा नहीं छीना जा सकता था। इसके अलावा, पहले यह माना गया था कि आवासीय विकास के लिए अनुमोदन 1985 के अधिनियम के अनुरूप नहीं थे।
1984 के अधिनियम की धारा 17 में तात्कालिकता खंड की प्रयोज्यता के संबंध में जस्टिस गुप्ता की अध्यक्षता वाली पीठ ने कहा,
“धारा 17 के तहत शक्ति का प्रयोग केवल तात्कालिकता या अप्रत्याशित आपात स्थिति में ही किया जा सकता है। चूंकि यह प्रावधान सामान्य प्रक्रिया का अपवाद है और प्रभावित व्यक्ति के प्रस्तावित अधिग्रहण पर आपत्ति करने के मूल्यवान अधिकार को छीन लेता है, इसलिए उक्त प्रावधान के तहत शक्ति का प्रयोग अधिक सावधानी और सतर्कता की आवश्यकता रखता है।”
न्यायालय ने कहा कि यद्यपि तात्कालिकता लागू करने की आवश्यकता व्यक्तिपरक संतुष्टि पर आधारित है, यह एक कोरी औपचारिकता नहीं होनी चाहिए। इसने कहा कि एक बार जब धारा 17 के तहत तात्कालिकता लागू करने वाली अधिसूचनाएं न्यायालय के समक्ष आ जाती हैं, तो तात्कालिकता को उचित ठहराने के लिए प्रासंगिक सामग्री प्रस्तुत की जानी चाहिए। इसने आगे कहा कि केवल इसलिए कि इसमें सार्वजनिक उद्देश्य शामिल है, तात्कालिकता खंड लागू करना पर्याप्त नहीं होगा।
सुप्रीम कोर्ट के विभिन्न निर्णयों के आधार पर, न्यायालय ने यह भी माना कि अवैध अतिक्रमण का खतरा भी तात्कालिकता खंड लागू करने के लिए पर्याप्त कारण नहीं होगा।
सुप्रीम कोर्ट के विभिन्न निर्णयों का हवाला देते हुए न्यायालय ने कहा,
“इस प्रकार जो कानूनी सिद्धांत उभर कर आता है, वह यह है कि केवल सार्वजनिक उद्देश्य का अस्तित्व ही प्राधिकरण को अधिनियम की धारा 17(1) और 17(4) को स्वतः लागू करने की शक्ति प्रदान करने के लिए पर्याप्त नहीं है, जब तक कि तात्कालिकता इतनी व्यापक न हो कि वह स्वयं ही जाँच से छूट देने का आधार बन सके। ऐसे मामले में भी, उपयुक्त सरकार को यह ध्यान रखना होगा कि ऐसी तात्कालिकता योजना की प्रकृति में ही अंतर्निहित है।”
यह देखते हुए कि तात्कालिकता खंड को लागू करने का एकमात्र सुसंगत कारण अवैध अतिक्रमण की आशंका और सार्वजनिक उद्देश्य के लिए उपयोग था, न्यायालय ने माना कि ये धारा 17 को लागू करने के लिए पर्याप्त आधार नहीं थे। इसने माना कि चूंकि विकास योजना में काफी समय लगता है, इसलिए ऐसा नहीं है कि 1984 के अधिनियम की धारा 5ए के तहत आपत्तियां दर्ज करने, उनकी सुनवाई करने और उन पर निर्णय लेने के लिए समय नहीं दिया जा सकता था।
“वर्तमान योजना, जो नियोजित विकास कार्यक्रम के तहत एक आवासीय कॉलोनी के विकास से संबंधित है, इतनी जरूरी नहीं थी धारा 5-ए के तहत आपत्तियों की प्रक्रिया के कारण हुई कुछ महीनों की देरी से योजना ही ख़तरे में पड़ जाती। जैसा कि पहले ही देखा जा चुका है, धारा 6 की अधिसूचना जारी करने में लगा समय ही जांच के लिए पर्याप्त था। राज्य सरकार सार्वजनिक उद्देश्य और अधिनियम की धारा 5-ए के तहत जांच की व्यवस्था करने की वास्तविक तात्कालिकता के बीच अंतर करने में विफल रही।
तदनुसार, न्यायालय ने माना कि धारा 5ए के तहत आपत्तियों की आवश्यकता को समाप्त करने वाली धारा 17 के तहत अधिसूचनाएं अवैध थीं और उन्हें रद्द कर दिया गया। हालांकि, न्यायालय ने पाया कि भूमि का एक बड़ा हिस्सा, जो निर्विवाद था और जीडीए द्वारा अधिग्रहित था, विकसित हो चुका था और उसके आसपास आबादी बस गई थी।
भूमि मालिकों और जीडीए के हितों को संतुलित करने के लिए न्यायालय ने सहारा इंडिया कमर्शियल कॉरपोरेशन लिमिटेड एवं अन्य बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य, हामिद अली खान (मृत) कानूनी प्रतिनिधियों के माध्यम से एवं अन्य बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य तथा नोएडा औद्योगिक विकास प्राधिकरण बनाम रवींद्र कुमार में सुप्रीम कोर्ट के निर्णयों का हवाला दिया।
न्यायालय ने कहा कि जिन भूमि मालिकों ने अधिग्रहण को चुनौती नहीं दी थी और जिन्हें कोई मुआवजा नहीं मिला था, उनमें कोई अंतर नहीं है क्योंकि जीडीए ने स्वयं कार्यवाही स्थगित रखी थी और भूमि को गैर-अधिसूचित करने का भी प्रस्ताव रखा था (हालांकि बाद में उक्त प्रस्ताव वापस ले लिया गया)।
न्यायालय ने माना कि जीडीए विवादित भूमि के किसी भी हिस्से को निर्धारित मुआवजे के भुगतान के अधीन रख सकता है। 01.01.2014, भूमि अर्जन, पुनर्वासन और पुनर्व्यवस्थापन में उचित प्रतिकर और पारदर्शिता का अधिकार अधिनियम, 2013 के लागू होने की तिथि है और यह आदेश में उल्लिखित सार्वजनिक सूचना जारी करके किया जाएगा। इसमें यह भी कहा गया है कि जहां जीडीए अधिग्रहण के लिए इस विकल्प का प्रयोग नहीं करता है, वहां भूमि सभी भारों से मुक्त होकर मूल स्वामी को वापस कर दी जाएगी।
केस: हातम सिंह व अन्य बनाम उत्तर प्रदेश राज्य, सचिव आवास एवं शहरी नियोजन एवं अन्य के माध्यम से [रिट - सी संख्या - 4986/2005]