धारा 18 सीमा अधिनियम| सीमा विस्तार के लिए सीमा अवधि के भीतर दायित्व को स्वीकार किया जाना चाहिए: इलाहाबाद हाईकोर्ट

Update: 2024-08-10 10:49 GMT

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने कहा कि यदि सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम उद्यम विकास अधिनियम, 2006 के अंतर्गत दावा समय-सीमा के भीतर दायर नहीं किया जाता है, तो समय-सीमा समाप्त होने के बाद दूसरे पक्ष द्वारा दायित्व स्वीकार किए जाने पर इसे उठाया नहीं जा सकता।

सीमा अधिनियम की धारा 18 में प्रावधान है कि जहां कोई पक्ष दायित्व के संबंध में वाद या आवेदन दायर करने के लिए निर्धारित अवधि के भीतर अपने दायित्व को स्वीकार करता है, तो उस स्थिति में नई सीमा अवधि उस तिथि से शुरू होती है, जब ऐसे दायित्व को लिखित रूप में स्वीकार किया जाता है।

सीमा अधिनियम की धारा 18 का अवलोकन करते हुए मुख्य न्यायाधीश अरुण भंसाली और न्यायमूर्ति विकास बुधवार की पीठ ने कहा कि "सीमा विस्तार के उद्देश्य से स्वीकृति का लाभ उठाने के लिए यह अनिवार्य है कि स्वीकृति समय-सीमा के भीतर ही हो।"

पृष्ठभूमि

अपीलकर्ता ने एमएसएमईडी अधिनियम के तहत 40,17,889/- रुपये मूलधन और 3,25,59,035/- रुपये ब्याज का दावा करते हुए सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यम सुविधा परिषद से संपर्क किया। प्रतिवादी ने दावा 14 वर्षों से वर्जित होने के बारे में आपत्तियां उठाईं। यह माना गया कि वर्ष 1998 से 2001 के लिए दावा 2012 में नहीं उठाया जा सकता।

मध्यस्थता और सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 34 के तहत वाणिज्यिक न्यायालय के समक्ष, अपीलकर्ता ने तर्क दिया कि चूंकि प्रतिवादी ने वर्ष 2010 से 2014 में देयता स्वीकार की थी, इसलिए संदर्भ सीमा द्वारा वर्जित नहीं था।

यद्यपि अपीलकर्ता 2010 में एमएसएमईडी अधिनियम के तहत पंजीकृत हुआ था, लेकिन वाणिज्यिक न्यायालय ने माना कि वर्ष 2000 में अंतिम बार की गई आपूर्ति के लिए दावा सीमा अवधि के अंतर्गत वर्जित था। वाणिज्यिक न्यायालय के आदेश को अधिनियम की धारा 37 के तहत हाईकोर्ट के समक्ष चुनौती दी गई।

फैसला

न्यायालय ने पाया कि अपीलकर्ता ने परिषद के समक्ष कभी भी यह दावा नहीं किया कि 1998 से 2000 तक बकाया राशि का दावा सीमा अवधि के भीतर था, जबकि प्रतिवादी की ओर से आपत्ति थी। यह देखा गया कि यद्यपि अपीलकर्ता वर्ष 2010 से 2014 के दौरान प्रतिवादी द्वारा कुछ देयता की स्वीकृति पर भरोसा कर रहा था, लेकिन जिस तिथि को कार्रवाई का कारण उत्पन्न हुआ वह वर्ष 2000 था।

अदालत ने माना कि प्रतिवादी द्वारा देयता की स्वीकृति अपीलकर्ता द्वारा दावा उठाने के लिए निर्धारित सीमा अवधि के भीतर की जानी चाहिए थी। न्यायालय ने कहा कि वर्ष 2000 में उत्पन्न देयता की स्वीकृति, वर्ष 2010 में एक पुराने दावे को पुनर्जीवित नहीं करती है।

तदनुसार, वाणिज्यिक न्यायालय के आदेश के विरुद्ध अपील खारिज कर दी गई।

केस टाइटल: मेसर्स स्टैंडर्ड निवार मिल्स बनाम भारत सरकार गृह मंत्रालय खरीद विंग जैसलमेर हाउस [मध्यस्थता और सुलह अधिनियम 1996 की धारा 37 के तहत अपील दोषपूर्ण संख्या - 146/2024]

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