ऊंचे पद पर काम करने वाला कर्मचारी बिना फॉर्मल प्रमोशन के भी उस पद की सैलरी पाने का हकदार: इलाहाबाद हाईकोर्ट

Update: 2025-11-24 07:57 GMT

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने हाल ही में कहा कि एक कर्मचारी जिसने ऊंचे पद पर ऑफिसिएटिंग कैपेसिटी में काम किया, भले ही वह रेगुलर प्रमोट न हुआ हो, वह उस समय के लिए उस ऊंचे पद के लिए मिलने वाली सैलरी पाने का हकदार है।

चीफ जस्टिस अरुण भंसाली और जस्टिस क्षितिज शैलेंद्र की बेंच ने कहा कि ऊंचे पद के लिए सैलरी न देना "कानून के खिलाफ और पब्लिक पॉलिसी के भी खिलाफ" होगा।

हाईकोर्ट उमा कांत पांडे नामक व्यक्ति की रिट याचिका पर विचार कर रहा था, जिसमें उसने सेंट्रल एडमिनिस्ट्रेटिव ट्रिब्यूनल (CAT), इलाहाबाद बेंच के उस ऑर्डर को खारिज कर दिया, जिसमें एक रेलवे टीचर के हेड मास्टर की सैलरी मांगने के दावे को खारिज कर दिया गया था।

संक्षेप में मामला

याचिकाकर्ता (पांडे) ईस्ट सेंट्रल रेलवे इंटर कॉलेज, मुगलसराय में ट्रेंड ग्रेजुएट टीचर (TGT) के तौर पर काम कर रहा था। 30 नवंबर, 2004 को मौजूदा हेड मास्टर (जूनियर विंग) के रिटायर होने के बाद याचिकाकर्ता को चार्ज संभालने और परमानेंट हेड की पोस्टिंग तक 'टीचर इंचार्ज' के तौर पर काम करने का निर्देश दिया गया।

पांडे ने लगभग 3 साल और चार महीने [1 दिसंबर, 2004 से 6 मार्च, 2008] तक ये काम किए। हालांकि, हेड मास्टर के पद के लिए मंज़ूर ज़्यादा पे-स्केल के उनके दावे का रेलवे ने विरोध किया।

प्रतिवादियों ने तर्क दिया कि याचिकाकर्ता को कभी भी इस पद पर प्रमोट नहीं किया गया। ऐसा कोई डिपार्टमेंटल नियम या कानूनी नियम नहीं था जिसके तहत पिटीशनर को हेड मास्टर को मंज़ूर सैलरी का हकदार माना जा सके।

यह तर्क दिया गया कि याचिकाकर्ता को सिर्फ़ एक "टेम्पररी कामचलाऊ उपाय" के तौर पर 'टीचर इंचार्ज' के तौर पर काम करने का निर्देश दिया गया, जिसमें सिर्फ़ रूटीन काम शामिल थे और इस तरह इससे उन्हें ज़्यादा पे-स्केल पाने का हक नहीं मिलेगा।

ट्रिब्यूनल ने रेलवे की दलील मान ली और कहा कि दावे को सपोर्ट करने के लिए कोई डिपार्टमेंटल नियम नहीं है और ऑफिस ऑर्डर में पे री-फिक्सेशन का ज़िक्र नहीं था।

इसके बाद पांडे ने हाईकोर्ट का रुख किया, जिसमें डिवीजन बेंच ने कहा कि 'टीचर इंचार्ज' के तौर पर अपने समय के दौरान, याचिकाकर्ता पर डिसिप्लिनरी कार्रवाई हुई और चार्जशीट और ऑफिस मेमोरेंडम में डिपार्टमेंट ने साफ तौर पर उन्हें 'हेड मास्टर (जूनियर विंग)' बताया था।

कोर्ट ने आगे कहा कि हालांकि डिपार्टमेंटल कार्रवाई में उन्हें कोई सज़ा नहीं दी गई, लेकिन, कार्रवाई शुरू होने से लेकर उनकी अपील तक, जिसे मान लिया गया, उन्हें लगातार जूनियर विंग का हेड मास्टर/प्रिंसिपल कहा जाता रहा।

कोर्ट ने कहा कि अगर रेस्पोंडेंट्स ने उन्हें हेड मास्टर की ज़िम्मेदारियों के लिए ज़िम्मेदार ठहराया और स्कूल को मैनेज करने में गलतियों के लिए चार्ज लगाया तो वे अब पलटकर यह दावा नहीं कर सकते कि सैलरी देने के मामले में उनकी ड्यूटी सिर्फ़ "रूटीन नेचर" की थी।

बेंच ने कहा कि अगर याचिकाकर्ता ने सिर्फ़ रूटीन काम किया होता तो स्कूल तीन साल से ज़्यादा समय तक काम नहीं कर सकता।

बेंच ने कहा,

"अगर याचिकाकर्ता ने सिर्फ़ रूटीन काम किया होता तो स्कूल तीन साल से ज़्यादा समय तक काम नहीं कर सकता। इसलिए याचिकाकर्ता का 3 साल 4 महीने के इतने लंबे समय तक काम करना, सुरक्षित रूप से ऑफ़िशिएटिंग कैपेसिटी में कहा जा सकता है, न कि किसी और कैपेसिटी में, जैसा कि रेस्पोंडेंट्स ने कहा है।"

इस तरह "डुअल चार्ज अलाउंस" के बारे में इंडियन रेलवे एस्टैब्लिशमेंट कोड (IREC) के नियमों पर रेलवे का भरोसा खारिज करते हुए कोर्ट ने कहा कि यह "पहले नहीं भरे गए" पद का एडिशनल चार्ज रखने का मामला नहीं था, बल्कि सुपरएनुएशन के कारण खाली हुई जगह पर कब्ज़ा करने का मामला था।

हाईकोर्ट ने सेल्वराज बनाम पोर्ट ब्लेयर के आइलैंड के लेफ्टिनेंट गवर्नर मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर भरोसा किया, जिसमें क्वांटम मेरिट के सिद्धांत पर चर्चा की गई।

यह सिद्धांत कहता है कि किसी व्यक्ति को उक्त उच्च वेतनमान में उपलब्ध परिलब्धियों के अनुसार उस समय के दौरान भुगतान किया जाना चाहिए, जब तक उसने वास्तव में उक्त पद पर काम किया हो, भले ही वह नियमित पदोन्नत न हुआ हो।

इसके अलावा, खंडपीठ ने सचिव-सह-चीफ इंजीनियर, चंडीगढ़ बनाम हरिओम शर्मा में सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर भी भरोसा किया, जिसमें यह माना गया था कि यदि किसी व्यक्ति को उच्च पद पर पदोन्नत किया जाता है या उस पद पर कार्य करने के लिए रखा जाता है या उसे उच्च पद पर रखने के लिए एक अस्थायी व्यवस्था की जाती है तो उच्च पद के लिए उसे वेतन देने से इनकार करना कानून के विपरीत होगा और सार्वजनिक नीति के भी खिलाफ होगा। यहां तक ​​कि इस तरह की शर्त वाले किसी भी अनुबंध या समझौते को अनुबंध अधिनियम की धारा 23 के मद्देनजर कानून में लागू नहीं किया जा सकेगा।

इस प्रकार, यह देखते हुए कि ट्रिब्यूनल ने रिकॉर्ड की पूरी तरह से जांच किए बिना मूल आवेदन को 'सरसरी तौर पर' खारिज कर दिया था। TGT के तौर पर पहले से मिली सैलरी को एडजस्ट करने के बाद 1 दिसंबर 2004 से 6 मार्च 2008 तक के समय के लिए 6500-10500।

इसके अलावा, कोर्ट ने 2010 में O.A. फाइल करने की तारीख से असल पेमेंट होने तक सैलरी के अंतर पर 6% सालाना रेट से सिंपल इंटरेस्ट देने का आदेश दिया।

Case title - Uma Kant Pandey vs. Union of India and 3 others

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