इलाहाबाद हाईकोर्ट ने मॉब लिंचिंग रोकने के सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों पर उत्तर प्रदेश सरकार की 'निष्क्रियता' पर उठाए सवाल

Update: 2025-10-15 04:17 GMT

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने तहसीन एस. पूनावाला बनाम भारत संघ (2018) मामले में सुप्रीम कोर्ट के बाध्यकारी निर्देशों को लागू करने में उत्तर प्रदेश सरकार की स्पष्ट निष्क्रियता पर सवाल उठाया। इन निर्देशों में देश भर में मॉब लिंचिंग रोकने के लिए निवारक, उपचारात्मक और दंडात्मक उपाय निर्धारित किए गए।

यह देखते हुए कि इन निर्देशों के सात साल बाद भी राज्य द्वारा क्या कार्रवाई की गई, इस पर कोई स्पष्टता नहीं है, कोर्ट ने कहा कि जुलाई 2018 में पुलिस महानिदेशक (DGP) द्वारा जारी परिपत्र, सरकार की नीति और प्रशासनिक रुख को दर्शाने वाला औपचारिक सरकारी आदेश (GO) जारी करने के संवैधानिक दायित्व का स्थान नहीं ले सकता।

कोर्ट ने टिप्पणी की,

"आश्चर्यजनक रूप से लगभग सात वर्ष पहले उपरोक्त निर्देश जारी किए जाने के बावजूद, अभी तक यह ज्ञात नहीं है कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा जारी निर्देशों का पालन करने के लिए राज्य सरकार द्वारा क्या कार्रवाई की गई। गोरक्षकों से संबंधित मामले अभी भी प्रकाश में आ रहे हैं।"

यह टिप्पणी जस्टिस अब्दुल मोइन और जस्टिस अबधेश कुमार चौधरी की खंडपीठ ने की, जो उत्तर प्रदेश गोहत्या निवारण अधिनियम, 1955 के तहत दर्ज FIR को चुनौती देने वाली याचिका पर सुनवाई कर रही थी।

याचिकाकर्ता को अंतरिम संरक्षण प्रदान करते हुए कोर्ट ने अपनी जांच का विस्तार एक बड़े प्रणालीगत मुद्दे गोहत्या अधिनियम के आकस्मिक प्रयोग और सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों के बावजूद गोरक्षकों पर अंकुश लगाने में राज्य की विफलता तक कर दिया।

अपने 17 पृष्ठों के आदेश में कोर्ट ने कहा कि छह दशक से भी अधिक समय पहले इलाहाबाद हाईकोर्ट द्वारा स्वयं स्पष्ट कानून निर्धारित किए जाने और सुप्रीम कोर्ट द्वारा पुनः पुष्टि किए जाने के बावजूद, पुलिस अधिकारी 1955 के अधिनियम के प्रावधानों के तहत "बाएं-दाएं" FIR दर्ज करना जारी रखे हुए, यहां तक कि ऐसे मामलों में भी जहाँ कोई अपराध नहीं बनता।

सुनवाई के दौरान, जब बार के एक सदस्य ने कोर्ट के समक्ष 26 जुलाई, 2018 को उत्तर प्रदेश के पुलिस महानिदेशक द्वारा जारी सर्कुलर प्रस्तुत किया, जो कथित तौर पर तहसीन पूनावाला फैसले के अनुपालन में है तो न्यायालय ने पाया कि यह प्रथम दृष्टया सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों के दायरे में नहीं आता।

खंडपीठ ने तर्क दिया कि सुप्रीम कोर्ट ने केवल पुलिस विभागों को ही नहीं, बल्कि राज्य सरकारों को भी मॉब लिंचिंग और विजिलेंसिज़्म के विरुद्ध नीतिगत कार्रवाई करने का निर्देश दिया।

खंडपीठ ने कहा,

"चूंकि सुप्रीम कोर्ट के निर्देश राज्य सरकार को हैं, इसलिए इस संबंध में सरकारी आदेश जारी किया जाना चाहिए, जो सरकार के आधिकारिक निर्णय, नीति या प्रशासनिक निर्देशों को प्रतिबिंबित करे।"

कोर्ट ने इस बात पर ज़ोर दिया कि सरकारी आदेश आंतरिक सर्कुलर के विपरीत कार्यकारी निर्णय लेने की शक्ति रखता है।

आदेश में कहा गया,

"सरकारी आदेश भारत के संविधान के अनुच्छेद 162 के तहत राज्य की कार्यकारी शक्ति की अभिव्यक्ति है। तदनुसार, प्रथम दृष्टया, पुलिस महानिदेशक द्वारा जारी सर्कुलर सुप्रीम कोर्ट द्वारा जारी निर्देशों के अनुरूप नहीं है।"

इस पृष्ठभूमि में खंडपीठ ने प्रमुख सचिव (गृह) और पुलिस महानिदेशक, दोनों को तीन सप्ताह के भीतर व्यक्तिगत हलफनामा दाखिल करने का निर्देश दिया, जिसमें यह बताया जाए कि सुप्रीम कोर्ट के तहसीन पूनावाला के निर्देशों के अनुसरण में राज्य सरकार ने क्या ठोस कदम उठाए।

खंडपीठ ने स्पष्ट किया कि यदि निर्धारित अवधि के भीतर हलफनामे दाखिल नहीं किए जाते हैं तो दोनों सीनियर अधिकारियों को मामले में सहायता के लिए संबंधित अभिलेखों के साथ व्यक्तिगत रूप से कोर्ट में उपस्थित होना होगा।

मामले की अगली सुनवाई 7 नवंबर, 2025 को होगी।

Case title - Rahul Yadav vs. State Of U.P Thru. Secy. Home Lko. And 3 Others

Tags:    

Similar News