आरोपी द्वारा हस्ताक्षरित विस्तृत रिकवरी मेमो गिरफ्तारी के आधारों की लिखित सूचना की आवश्यकता को पूरा करता है: इलाहाबाद हाईकोर्ट

Update: 2025-12-20 04:30 GMT

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने हाल ही में फैसला सुनाया कि एक विस्तृत रिकवरी मेमो (फर्द बरामदगी), जो उसी समय तैयार किया गया हो, जिसमें लागू की गई दंडात्मक धाराएं शामिल हों और जिस पर आरोपी के हस्ताक्षर हों, वह भारत के संविधान के अनुच्छेद 22 (1) के तहत गिरफ्तारी के आधारों की लिखित रूप में सूचना देने की आवश्यकता को पूरा करता है।

कोर्ट ने कहा कि जहां ऐसा कोई दस्तावेज़ मौजूद है, वहां औपचारिक गिरफ्तारी मेमो में आधारों की तकनीकी चूक घातक नहीं होगी, क्योंकि यह गिरफ्तारी के आधार की सूचना देने की आवश्यकता का पर्याप्त अनुपालन है। इससे हिरासत अवैध नहीं होगी या रिमांड आदेश गलत नहीं होगा।

हाईकोर्ट ने टिप्पणी की,

"हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि गिरफ्तारी मेमो में आधारों को शामिल न करना, जबकि वे साथ ही तैयार किए गए और हस्ताक्षरित रिकवरी मेमो में विस्तार से बताए गए, एक प्रक्रियात्मक अनियमितता है, न कि कोई घातक क्षेत्राधिकार संबंधी दोष जो रिमांड आदेश रद्द करने का कारण बने। याचिकाकर्ता को उसके अधिकारों के बारे में सूचित किया गया और मुख्य संवैधानिक और वैधानिक आदेशों का पर्याप्त रूप से पालन किया गया।"

जस्टिस सलिल कुमार राय और जस्टिस प्रमोद कुमार श्रीवास्तव की खंडपीठ ने इस प्रकार नितिन कुमार सिंह द्वारा दायर आपराधिक रिट याचिका खारिज की। हाईकोर्ट ने कहा कि जब आरोपी को उसकी हिरासत के आधारों के बारे में स्पष्ट रूप से पता था तो न्यायपालिका को सार के बजाय रूप को प्राथमिकता नहीं देनी चाहिए।

संक्षेप में मामला

याचिकाकर्ता ने मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट, हापुड़ द्वारा 18 मई, 2025 को पारित न्यायिक रिमांड आदेश रद्द करने के लिए हाईकोर्ट में याचिका दायर की। याचिकाकर्ता ने तर्क दिया कि मोनाड यूनिवर्सिटी में फर्जी डिग्रियों के एक बड़े रैकेट से जुड़े मामले में उसकी गिरफ्तारी अवैध और शुरू से ही अमान्य है।

याचिकाकर्ता की ओर से पेश हुए सीनियर एडवोकेट विनय सरन ने तर्क दिया कि गिरफ्तारी संविधान के अनुच्छेद 22(1) और CrPC की धारा 50 (BNSS 2023 की धारा 47) के अनिवार्य प्रावधानों का उल्लंघन है, क्योंकि उनके मुवक्किल को औपचारिक रूप से गिरफ्तारी के आधारों के बारे में सूचित नहीं किया गया था।

मुख्य तर्क यह था कि पुलिस द्वारा तैयार किए गए गिरफ्तारी मेमो में गिरफ्तारी के आधारों का उल्लेख करने वाला कोई अलग कॉलम नहीं था। इसलिए पंकज बंसल बनाम भारत संघ और प्रबीर पुरकायस्थ बनाम राज्य (एनसीटी दिल्ली) के मामलों में सुप्रीम कोर्ट के फैसलों के अनुसार, आरोपी की पूरी हिरासत दूषित थी और बाद का रिमांड आदेश "जहरीले पेड़ का फल" बन गया। दूसरी ओर, एडिशनल गवर्नमेंट एडवोकेट रूपक चौबे द्वारा प्रतिनिधित्व किए गए राज्य ने तर्क दिया कि पुलिस कार्रवाई 17 मई, 2025 को जारी किए गए वैध सर्च वारंट के तहत की गई।

यह बताया गया कि मौके पर एक विस्तृत रिकवरी मेमो सावधानीपूर्वक तैयार किया गया, जिसमें नकली मार्कशीट, डिग्री और इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों की बरामदगी की सूची थी और यह मेमो आरोपी व्यक्तियों को पढ़कर सुनाया गया और उन्होंने स्वेच्छा से इस पर हस्ताक्षर किए।

राज्य ने तर्क दिया कि इस कार्रवाई ने BNSS की धारा 47 की अनिवार्य आवश्यकता को "सार रूप में" पूरा किया, क्योंकि आरोपियों को कार्रवाई के अधिकार और उद्देश्य के बारे में पूरी तरह से सूचित किया गया।

सुप्रीम कोर्ट के फैसले स्टेट ऑफ़ कर्नाटक बनाम श्री दर्शन 2025 LiveLaw (SC) 801 पर भरोसा करते हुए यह तर्क दिया गया कि केवल प्रक्रियात्मक कमियां या आधारों को व्यापक रूप से दस्तावेज़ करने में देरी, जहां पर्याप्त अनुपालन का स्पष्ट सबूत है, यह घोषित करने का आधार नहीं हो सकता कि हिरासत अवैध है।

हाईकोर्ट की टिप्पणियां

बेंच के लिए लिखते हुए जस्टिस श्रीवास्तव ने अनुच्छेद 21 और अनुच्छेद 22(1) के बीच संबंध का उल्लेख किया और कहा कि पंकज बंसल और प्रबीर पुरकायस्थ के मामलों में यह अनिवार्य था कि गिरफ्तारी के आधार लिखित रूप में बताए जाएं ताकि आरोपी कानूनी सलाह और जमानत मांग सकें।

हालांकि, वर्तमान मामले को उन मामलों से अलग करते हुए बेंच ने कहा कि उन मामलों के विपरीत जहां कोई लिखित जानकारी नहीं दी गई, या जहां आधार केवल मौखिक थे, वर्तमान मामले में एक रिकवरी मेमो मौजूद है।

कोर्ट ने इस प्रकार टिप्पणी की:

"वर्तमान मामले में समकालीन रूप से तैयार किया गया और याचिकाकर्ता द्वारा हस्ताक्षरित रिकवरी मेमो में बरामद वस्तुओं का स्पष्ट रूप से विवरण दिया गया... और संबंधित दंडात्मक धाराओं को सूचीबद्ध किया गया। यह दस्तावेज़ गिरफ्तारी के तथ्यात्मक और कानूनी आधारों का एक सीधा, लिखित और प्रभावी संचार है, जिससे अनुच्छेद 22(1) की मूल संवैधानिक आवश्यकता पूरी हुई।"

हाईकोर्ट ने माना कि गिरफ्तारी मेमो में तकनीकी चूक एक ठीक की जा सकने वाली अनियमितता है, न कि कोई घातक संवैधानिक दोष, जहां आरोपी ने मामले के तथ्यों का विवरण देने वाले दस्तावेज़ पर हस्ताक्षर किए।

कोर्ट ने तर्क दिया कि अनुच्छेद 22(1) का उद्देश्य गिरफ्तारी के आधारों की जानकारी सुनिश्चित करना है। इस मामले में चूंकि याचिकाकर्ता ने रिकवरी मेमो पर हस्ताक्षर किए, इसलिए "संवैधानिक जनादेश की भावना" के अनुसार अपराध के बारे में उसका वास्तविक ज्ञान संरक्षित है।

बेंच ने निष्कर्ष निकाला,

"यह सिद्धांत अदालतों को प्रक्रियात्मक कमी (अरेस्ट मेमो में गायब आधार) के शब्दों पर नहीं, बल्कि अनुच्छेद 22(1) के तहत संवैधानिक जनादेश की भावना पर ध्यान केंद्रित करने का अधिकार देता है। इस मिसाल पर भरोसा करते हुए हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि याचिकाकर्ता की वास्तविक जानकारी - जो साथ में दिए गए रिकवरी मेमो पर उनके हस्ताक्षर और स्वीकृति से साबित होती है - संवैधानिक आवश्यकता को पूरी तरह से पूरा करती है, जिससे अरेस्ट मेमो में कमी एक गैर-घातक तकनीकी खामी बन जाती है जो पूरी हिरासत प्रक्रिया को रद्द करने का कारण नहीं बनती है।"

इस प्रकार, इसने इस तर्क को खारिज कर दिया कि अरेस्ट मेमो के विशिष्ट प्रारूप में आधारों का खुलासा न करने से अपने आप पूर्वाग्रह हुआ।

नतीजतन, हाईकोर्ट ने माना कि मजिस्ट्रेट द्वारा अभियोजन पत्रों, जिसमें रिकवरी मेमो भी शामिल है, उसकी जांच करने के बाद पारित रिमांड आदेश वैध है और उसमें कोई विकृति नहीं है।

इस प्रकार, कोर्ट ने रिट याचिका खारिज की और याचिकाकर्ता को सक्षम अदालत के समक्ष नियमित जमानत याचिका दायर करने का उपाय अपनाने के लिए कहा, जिसका फैसला उसके अपने गुणों के आधार पर किया जाएगा।

याचिकाकर्ता की ओर से वकील आशुतोष मिश्रा और शशांक पांडे भी पेश हुए।

Case title - Nitin Kumar Singh @ Nitin Kumar vs. State of UP and 4 Others

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