'निंदनीय': इलाहाबाद हाईकोर्ट ने छात्रा के तीसरे वर्ष के परिणाम गलत तरीके से रोकने और उसका भविष्य बर्बाद करने के लिए लखनऊ विश्वविद्यालय पर दो लाख रुपये का जुर्माना लगाया

Update: 2024-07-24 08:57 GMT

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने हाल ही में याचिकाकर्ता छात्रा के खिलाफ मनमाने आदेश पारित करने के लिए लखनऊ विश्वविद्यालय पर 2 लाख रुपए का जुर्माना लगाया। यह देखते हुए कि 2009 की उसकी परीक्षा रद्द करने का आदेश 2012 में पारित किया गया था, लेकिन याचिकाकर्ता को कभी भी इसकी सूचना नहीं दी गई, जस्टिस आलोक माथुर ने कहा कि

“यह मामला सीधे तौर पर छात्रा के शैक्षिक भविष्य से जुड़ा है, जिसे बीएससी तृतीय वर्ष की परीक्षा में बैठने और आगे की शिक्षा प्राप्त करने से वंचित कर दिया गया, जिसका वह हकदार हो सकती थी। लखनऊ विश्वविद्यालय की कार्रवाई न केवल प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत का उल्लंघन है, बल्कि इससे उम्मीदवार के भविष्य पर हानिकारक प्रभाव पड़ता है और ऐसी कार्रवाई निंदनीय है।”

पृष्ठभूमि

2009 में याचिकाकर्ता बीएससी तृतीय वर्ष की छात्रा थी, जब वह परीक्षा में शामिल हुई थी। परिणाम घोषित होने के बावजूद, याचिकाकर्ता के परिणाम 6 विषयों में उत्तर पुस्तिकाओं में कथित हेरफेर के कारण रोक दिए गए थे। प्रतिवादी विश्वविद्यालय ने याचिकाकर्ता के अंकों या उसके कथित कदाचार के संबंध में कोई आदेश पारित नहीं किया।

वर्ष 2010 में याचिकाकर्ता को कारण बताओ नोटिस जारी कर आरोपों का जवाब देने को कहा गया। यद्यपि याचिकाकर्ता ने जवाब प्रस्तुत किया, लेकिन उसे कोई निर्णय नहीं बताया गया। वर्ष 2012 में परीक्षा समिति ने याचिकाकर्ता द्वारा ली गई परीक्षा को रद्द कर दिया। चूंकि यह निर्णय उसे नहीं बताया गया, इसलिए याचिकाकर्ता वर्ष 2012-13 की परीक्षा में शामिल नहीं हो सकी।

वर्ष 2014 में जब याचिकाकर्ता ने हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया, तो विश्वविद्यालय ने कहा कि पहले ही एक आदेश पारित किया जा चुका है, जिसमें कहा गया है कि याचिकाकर्ता कदाचार की दोषी है। इस आदेश के विरुद्ध याचिकाकर्ता ने फिर से हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया।

निष्कर्ष

न्यायालय ने पाया कि समिति ने उत्तर पुस्तिकाओं के साथ छेड़छाड़ की मात्र “संभावना” पर भरोसा किया, हालांकि, इसके लिए कोई फैक्ट फाइंडिंग जांच नहीं की गई। यह पाया गया कि परीक्षा समिति का आदेश अनुमानों और अनुमानों पर आधारित था।

न्यायालय ने पाया कि समिति के 2014 के आदेश में स्पष्ट रूप से कहा गया था कि 2009 की परीक्षा रद्द करने के आदेश के बारे में याचिकाकर्ता को कभी नहीं बताया गया और विश्वविद्यालय प्राधिकारियों की ओर से की गई चूक के लिए जांच शुरू की जानी चाहिए। न्यायालय ने पाया कि विश्वविद्यालय ने कहीं भी यह नहीं कहा कि ऐसी कोई जांच की गई है।

न्यायालय ने माना कि याचिकाकर्ता को उसके खिलाफ लगाए गए अस्पष्ट आरोपों के समर्थन में कारण बताओ नोटिस के साथ कोई सामग्री नहीं दी गई। इसके अलावा यह माना गया कि “जांच के दौरान किसी व्यक्ति को दोषी ठहराने के लिए केवल आदेश पारित करना पर्याप्त नहीं है, लेकिन यह भी उतना ही आवश्यक और अनिवार्य है कि जांच कार्यवाही के समापन पर ऐसा आदेश वास्तव में अपराधी को सूचित किया जाना चाहिए। आदेश की सूचना न दिए जाने से वह अस्तित्वहीन हो जाता है और संबंधित पक्ष को सूचित न किए गए आदेश के अनुपालन में कोई कार्रवाई नहीं की जा सकती।”

तदनुसार, आरोपित आदेश को इस सीमा तक निरस्त कर दिया गया कि इसने याचिकाकर्ता के 2009 में आयोजित परीक्षाओं के प्रश्नपत्रों को रद्द कर दिया तथा दोषी अधिकारियों के विरुद्ध जांच के निर्देश देने वाले भाग को बरकरार रखा।

न्यायालय ने माना कि कथित घटना के 3 वर्ष पश्चात आदेश पारित करने की विश्वविद्यालय की कार्रवाई ने छात्रा को उसकी भावी शिक्षा से वंचित कर दिया। न्यायालय ने विश्वविद्यालय की उस कार्रवाई को "निंदनीय" माना।

रेवाजीतु बिल्डर्स एंड डेवलपर्स बनाम नारायणस्वामी एंड संस एंड अदर्स में, जहां सर्वोच्च न्यायालय ने जुर्माना लगाने के उद्देश्य निर्धारित किए थे, उस पर भरोसा करते हुए जस्टिस माथुर ने याचिकाकर्ता को हुई असुविधा के लिए क्षतिपूर्ति के रूप में लखनऊ विश्वविद्यालय पर 2 लाख रुपए का जुर्माना लगाया।

केस टाइटल: प्रियंका दुबे बनाम उत्तर प्रदेश राज्य, प्रधान सचिव, उच्च शिक्षा, सिविल सचिवालय तथा अन्य के माध्यम से। [WRIT - C NO- 1007064 of 2015]

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