इलाहाबाद हाईकोर्ट ने मेडिकल लापरवाही मामले में डॉक्टर को राहत देने से किया इनकार, कहा- 'प्राइवेट हॉस्पिटल पैसे ऐंठने के लिए मरीजों को ATM की तरह इस्तेमाल करते हैं'

Update: 2025-07-25 05:33 GMT

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने यह देखते हुए कि निजी अस्पताल/नर्सिंग होम मरीजों को 'गिनी पिग/ATM' की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं ताकि उनसे पैसे ऐंठ सकें, गुरुवार को डॉक्टर द्वारा दायर याचिका खारिज कर दी। इस याचिका में कथित तौर पर सर्जरी में देरी के कारण भ्रूण की मौत के संबंध में उसके खिलाफ 2008 में दर्ज एक मामले को रद्द करने की मांग की गई थी।

जस्टिस प्रशांत कुमार की पीठ ने कहा कि आवेदक (डॉ. अशोक कुमार राय) सर्जरी के लिए सहमति प्राप्त करने और ऑपरेशन करने के बीच 4-5 घंटे की देरी को उचित ठहराने में विफल रहे, जिसके कारण कथित तौर पर बच्चे की मौत हो गई।

अदालत ने अपने कड़े शब्दों वाले आदेश में कहा,

"किसी भी मेडिकल पेशेवर, जो पूरी लगन और सावधानी के साथ अपना काम करता है, उसकी रक्षा की जानी चाहिए, लेकिन उन डॉक्टरों की बिल्कुल भी नहीं जिन्होंने उचित सुविधाओं, डॉक्टरों और बुनियादी ढांचे के बिना नर्सिंग होम खोल लिए हैं और मरीजों को केवल पैसे ऐंठने के लिए बहका रहे हैं।"

संक्षेप में मामला

इस मामले में 29 जुलाई, 2007 को FIR दर्ज की गई। इसमें आरोप लगाया गया कि आवेदक के छोटे भाई की गर्भवती पत्नी को आवेदक द्वारा संचालित नर्सिंग होम में भर्ती कराया गया था।

आरोप लगाया गया कि मरीज के परिवार ने 29 जुलाई, 2007 को सुबह लगभग 11 बजे सिजेरियन सर्जरी के लिए सहमति दी थी, लेकिन सर्जरी शाम 5:30 बजे ही की गई, तब तक भ्रूण की मृत्यु हो चुकी थी।

इसके बाद जब मरीज के परिवार वालों ने आपत्ति जताई तो डॉक्टर (आवेदक) के कर्मचारियों और उनके सहयोगियों ने कथित तौर पर उनकी पिटाई की।

FIR में यह भी आरोप लगाया गया कि आवेदक ने ₹8,700 लिए और ₹10,000 अतिरिक्त मांगे। साथ ही डिस्चार्ज स्लिप देने से भी इनकार कर दिया।

प्रस्तुत तर्क

समन के साथ-साथ भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 304ए, 315, 323 और 506 के तहत पूरी आपराधिक कार्यवाही को चुनौती देते हुए आवेदक ने FIR में यह तर्क दिया कि उसके पास मरीज के इलाज के लिए आवश्यक चिकित्सा योग्यता थी।

यह भी तर्क दिया गया कि मेडिकल बोर्ड द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट के अनुसार, कथित पीड़िता का इलाज करने में आवेदक के खिलाफ ऐसी कोई मेडिकल लापरवाही साबित नहीं हुई है।

निरस्तीकरण याचिका का विरोध करते हुए शिकायतकर्ता के वकील ने तर्क दिया कि भर्ती के समय मरीज की हालत स्थिर थी। फिर भी सर्जरी में देरी हुई क्योंकि आवेदक के नर्सिंग होम में एनेस्थेटिस्ट नहीं था।

यह भी प्रस्तुत किया गया कि मेडिकल बोर्ड की क्लीन चिट अविश्वसनीय है, क्योंकि महत्वपूर्ण दस्तावेज, जिनमें भ्रूण की मृत्यु 'लंबे समय तक प्रसव' के कारण बताई गई पोस्टमार्टम रिपोर्ट और एक विरोधाभासी ऑपरेशन रिपोर्ट शामिल है, उसके समक्ष प्रस्तुत नहीं किए गए।

अतिरिक्त सरकारी वकील ने भी इसी तरह की दलीलें दीं, जिन्होंने कहा कि आवेदक द्वारा समय पर सर्जरी न करने के कारण ही भ्रूण की मृत्यु हुई।

हाईकोर्ट का आदेश

हाईकोर्ट ने बोर्ड के निष्कर्षों पर भरोसा करने से इनकार किया, क्योंकि उसने पाया कि पोस्टमार्टम रिपोर्ट और दूसरे ऑपरेशन थिएटर नोट जैसे कई महत्वपूर्ण दस्तावेज़ उसके समक्ष प्रस्तुत नहीं किए गए।

यह भी ध्यान दिया गया कि एनेस्थेटिस्ट को लगभग साढ़े तीन बजे बुलाया गया था, जिससे पता चलता है कि तैयारी और सुविधाओं का अभाव था।

इस देरी को महत्वपूर्ण मानते हुए एकल जज ने इस प्रकार टिप्पणी की:

"यह पूरी तरह से एक दुस्साहस का मामला है, जहां डॉक्टर ने मरीज को भर्ती किया और मरीज के परिवार के सदस्यों से ऑपरेशन की अनुमति लेने के बाद समय पर ऑपरेशन नहीं किया, क्योंकि उसके पास सर्जरी करने के लिए आवश्यक डॉक्टर (अर्थात एनेस्थेटिस्ट) नहीं था।"

मेडिकल लापरवाही के मामलों में डॉक्टरों को दी जाने वाली सुरक्षा के संबंध में पीठ ने डॉ. सुरेश गुप्ता बनाम दिल्ली सरकार और अन्य 2004 तथा जैकब मैथ्यू बनाम पंजाब राज्य और अन्य 2005 के मामलों में सुप्रीम कोर्ट के निर्णयों का हवाला देते हुए कहा कि यह सुरक्षा केवल तभी लागू की जा सकती है, जब मेडिककल पेशेवर ने अपने कर्तव्य को कुशलतापूर्वक निभाया हो, जैसा कि किसी अन्य डॉक्टर ने दी गई परिस्थितियों में किया होता।

पीठ ने कहा कि यदि डॉक्टर मरीज़ का इलाज करते समय सामान्य देखभाल नहीं करता है तो आपराधिक दायित्व बनता है।

इस पृष्ठभूमि में अदालत ने मामले के तथ्यों का हवाला देते हुए कहा कि यह एक 'क्लासिक' मामला है, जहां बिना किसी कारण के ऑपरेशन में 4-5 घंटे की देरी हुई। साथ ही पोस्टमार्टम रिपोर्ट से पता चला कि भ्रूण की मृत्यु लंबे समय तक प्रसव पीड़ा के कारण हुई।

अदालत ने आगे कहा कि यह तथ्य मरीज़ को धोखा देने में डॉक्टर/आवेदक की दुर्भावनापूर्ण मंशा को स्पष्ट रूप से दर्शाता है।

इसके अलावा, निजी स्वास्थ्य सेवा की स्थिति पर व्यापक टिप्पणी में न्यायालय ने मेडिकल पेशेवरों को तुच्छ मुकदमों से बचाने की आवश्यकता को स्वीकार किया, लेकिन साथ ही यह भी कहा:

"निःसंदेह, हां, डॉक्टर को मेडिकल लापरवाही के चंगुल से बचाना आवश्यक है, अन्यथा किसी भी ऑपरेशन/सर्जरी में किसी भी विफलता के लिए आपराधिक मुकदमा शुरू होने का डॉक्टरों में भय और भय व्याप्त हो जाता। यह तथ्य है कि कोई भी चिकित्सा पेशेवर, जो अपने पेशे को पूरी लगन और सावधानी से करता है, उसे संरक्षित किया जाना चाहिए... यह सुरक्षा तभी लागू हो सकती है, जब मेडिकल पेशेवर ने अपना कर्तव्य कुशलतापूर्वक निभाया हो, जैसा कि कोई भी अन्य डॉक्टर इन परिस्थितियों में करता।"

मामले के तथ्यों के संबंध में न्यायालय ने कहा कि रोगी के भर्ती होने का समय, सर्जरी का समय और रोगी के परिवार के सदस्य से सहमति लेने का समय इस मामले में तीन महत्वपूर्ण पहलू हैं, जिन्हें साक्ष्य प्रस्तुत करने के बाद देखा जाना चाहिए।

इस पृष्ठभूमि में CrPC की धारा 482 के तहत हस्तक्षेप करने का कोई आधार न पाते हुए न्यायालय ने याचिका खारिज कर दी।

Case title - Dr. Ashok Kumar Rai vs. State of U.P. and another 2025 LiveLaw (AB) 264

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