भिन्न शारीरिक क्षमता वालों को आरटीआई अधिनियम के लाभ से वंचित नहीं किया जा सकता; सुप्रीम कोर्ट ने उन तक सूचना पहुंचाने के लिए तकनीक का पता लगाने को कहा [निर्णय पढ़ें]

Update: 2018-09-28 11:41 GMT

सुप्रीम कोर्ट ने वृहस्पतिवार को सूचना का अधिकार अधिनियम की धारा 6 को चुनौती देने वाली याचिका का निपटारा किया। इसमें कहा गया था की यह धारा निरक्षर, नहीं देख सकने वाले और अन्य तरह की अशक्तता के शिकार लोगों के साथ भेदभाव करता है।

मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा, एएम खानविलकर और डीवाई चंद्रचूड़ की पीठ ने याचिकाकर्ता असीर जमाल को निर्देश दिया की वह उचित अधिकारी का दरवाजा खटखटाएँ और उन्हें सूचना का अधिकार अधिनियम के तहत किसी और तरीके से सूचना दिये जाने के बारे में बताएं।

असीर जमाल ने सुप्रीम कोर्ट में अर्जी देकर कहा था कि आरटीआई अधिनियम की धारा 6 शारीरिक रूप से सक्षम और अक्षमों के बीच भेदभाव करता है और इस तरह यह संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन करता है। यह भी कहा गया कि इस अधिनियम के कुछ प्रावधान हड्डियों से संबंधित विकलांगता से ग्रस्त लोगों, गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन करने वालों और जिनकी इंटरनेट तक पहुँच नहीं है, उनके काम के नहीं हैं।

इस प्रावधान की संवैधानिकता पर गौर करने से इनकार करते हुए पीठ ने एटॉर्नी जनरल के बयान को दर्ज किया कि केंद्रीय सार्वजनिक सूचना अधिकारी या राज्य सार्वजनिक सूचना अधिकारी का यह दायित्व है कि वह इस तरह का अनुरोध करने वाले व्यक्ति की मौखिक मदद करें और उसको लिख लें। पीठ ने कहा कि जहां तक हम इसके प्रावधानों को समझते हैं, यह अधिकारी का कर्तव्य है कि वह इस तरह के व्यक्ति की बात को सुने और उसे कागज पर लिख ले।

एटॉर्नी जनरल ने पीठ से कहा कि अनेक राज्य 2012 से ब्रेल में सूचनाएँ उपलब्ध करा रहे हैं और आरटीआई के वेबसाइट पर ऐसे कई हॉटलाइन नंबर दिये गए हैं जो टोल-फ्री हैं।

इसके बाद पीठ ने अपने आदेश में कहा, “हमें नहीं लगता कि इस बारे में आगे कोई और निर्देश जारी करने की जरूरत नहीं है और आवेदनकर्ता को उपयुक्त अधिकारी तक अपनी बात पहुंचाने की छूट है ताकि वह किसी अन्य माध्यम से आरटीआई के तहत सूचनाओं को हासिल कर सके...सूचना समर्थवान बनाताआ है... उचित अथॉरिटीज को यह निर्देश देना उचित होगा कि वह ऐसी किसी उन्नत तकनीक की मदद लें ताकि सूचना देने के नए तरीकों को लागू किया जा सके। हम इस बारे में आश्वस्त हैं कि अगर याचिकाकर्ता इस बारे में बताते हैं तो इसका संज्ञान लिया जा सकता है...”।


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