सुप्रीम कोर्ट ने कहा, अपीली अदालत का सजा को स्थगित करना जन प्रतिनिधित्व अधिनियम के तहत सांसदों और विधायकों की अयोग्यता को समाप्त कर देगा [निर्णय पढ़ें]

Update: 2018-09-28 11:27 GMT

सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को कहा कि सीआरपीसी की धारा 389 के तहत अगर अपीली अदालत किसी सांसद या विधायक की सजा को स्थगित कर देती है तो जनप्रतिनिधित्व की अधिनियम, 1951 की धारा 8 की उपधारा 1, 2, और 3 के तहत अयोग्य ठहराने का प्रावधान लागू नहीं हो सकता।

मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा की अध्यक्षता में डीवाई चंद्रचूड़ और एएम खानविलकर की पीठ ने एनजीओ लोक प्रहरी की याचिका पर सुनवाई करते हुए यह बात कही। एनजीओ ने अपनी याचिका में मांग की थी कि चूंकि कानून के तहत सजा पर रोक लगाने का प्रावधान नहीं है, पर अगर इसे अपीली अदालत द्वारा स्थगित किया जाता है तो इस तरह के स्थगन का असर यह नहीं हो कि अयोग्य करार देने का फैसला ही बदल दिया जाए और सदस्य की सदस्यता पिछले प्रभाव से लागू हो जाए और संबन्धित सदस्य का सीट उसको सजा दिये जाने की घोषणा के दिन से खाली माना जाए।

यह गौर करने वाली बात है कि धारा 389 अपीली अदालत को यह अधिकार देता है कि वह किसी व्यक्ति की सजा को जो कि उसके समक्ष अपील के रूप में लंबित है, को निलंबित कर दे।

इस बारे में लिखे अपने फैसले में न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने रवीकान्त एस पाटील बनाम सार्वभौम एस बागली (2006) और लिली थॉमस बनाम भारत संघ (2013) मामलों में आए फैसलों पर भरोसा करते हुए कहा,

“...यह स्थापित तथ्य है कि अपीली अदालत को उचित मामलों में धारा 389 के तहत सजा को निलंबित करने के अलावा इसे स्थगित करने का अधिकार है। स्थगन का अधिकार एक अपवाद है। इस अधिकार पर अमल से पहले, अपीली अदालत को इसके परिणाम से अवगत कराया जाना चाहिए कि अगर सजा को स्थगित नहीं किया गया तो क्या होगा। अगर एक बार सजा को अपीली अदालत द्वारा स्थगित कर दिया जाता है तो जन प्रतिनिधित्व कानून, 1951 की धारा 8 की उपधारा 1, 2 और 3 लागू नहीं हो सकता...”।

सुप्रीम कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि इस दलील में कोई दम नहीं है कि अपीली अदालत को धारा 389 के तहत जो अधिकार दिया गया है उसमें सजा को स्थगित करने का अधिकार नहीं है – “स्पष्टतः अपीली अदालत को इस तरह का अधिकार है”।


 

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