बच्चों से बलात्कार के मामले में मौत की सजा देने के अध्यादेश को दिल्ली हाइकोर्ट में चुनौती; कोर्ट ने जारी किया नोटिस [याचिका पढ़े]

Update: 2018-06-03 11:59 GMT

दिल्ली हाइकोर्ट ने शुक्रवार को आपराधिक कानून (संशोधन) अध्यादेश, 2018 को चुनौती देने वाली याचिका पर नोटिस जारी किया है। इस अध्यादेश में 12 साल से कम आयु की लड़की से बलात्कार करने वाले को मौत की सजा और अन्य कड़ी सजा देने का प्रावधान है।

कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश गीता मित्तल और न्यायमूर्ति सी हरि शंकर की पीठ ने एक एनजीओ अपनेआप वुमेन वर्ल्डवाइड की याचिका पर नोटिस जारी किया। इस मामले की अगली सुनवाई अब 31 जुलाई को होगी।

यह अध्यादेश 21 अप्रैल 2018 को जारी किया गया जिसके निम्न प्रावधानों चुनौती दी गई है :




  1. बलात्कार के मामले में आईपीसी की धारा 376 के तहत न्यूनतम सजा को सात साल से बढ़ाकर 10 साल करना।

  2. 16 साल से कम उम्र की लड़की से बलात्कार करने वाले को कम से कम 20 साल की जेल। ऐसा आईपीसी की धारा 376 के तहत एक उपधारा 3 जोड़कर किया गया है।

  3. 12 साल से कम उम्र की लड़की से बलात्कार के मामले में 20 साल का सश्रम कैद या मौत की सजा। ऐसा आईपीसी की धारा 376डी में धारा 376 डीए जोड़कर किया गया है।

  4. 16 साल से कम उम्र की लड़की से सामूहिक बलात्कार के मामले में आवश्यक रूप से आजन्म कैद की सजा। ऐसा आईपीसी की धारा 376डी में धारा 376 डीए जोड़कर किया गया है।

  5. 12 साल से कम उम्र की लड़की से सामूहिक बलात्कार के मामले में आवश्यक रूप से उम्र कैद या मौत की सजा। ऐसा आईपीसी की धारा 376डी में धारा 376 डीबी जोड़कर किया गया है।

  6. सीआरपीसी की धारा 173(1A) का संशोधन जिसमें एक बच्चे से बलात्कार की घटना की जांच की अवधि को 3 महीने से घटाकर 2 महीना कर दिया गया है। यह आरोप लगाया गया है की यह संशोधन जेंडर-विशेष को ध्यान में रखकर किया गया है और इस तरह पुरुषों को इससे अलग रखा गया है।


यह कहा गया है की जो संशोधन किया गया है वह पोक्सो अधिनियम के प्रावधानों के विपरीत है।




  1. 16 साल से कम उम्र की लड़की के साथ बलात्कार करने वाले को अग्रिम जमानत नहीं देने का प्रावधान।

  2. सीआरपीसी में धारा 439(1) को जोड़ना जिसके द्वारा आम अभियोजक को नोटिस प्राप्त होने के 15 दिनों के अंदर अग्रिम जमानत से संबंधित आवेदन का नोटिस देने को जरूरी बनाया गया है।


याचिकाकर्ता ने कहा कि यह अध्यादेश कठुआ और उन्नाव की घटना पर लोगों के आक्रोश को देखते हुए लाया गया और मुद्दे पर विशेष ध्यान नहीं दिया गया. याचिका में कहा गया है की यह अध्यादेश आरोपी का अधिकार ले लेता है, उस पर आयु के कारण भेद करता है जबकि अन्य वर्गों के ऐसे लोगों को नजरअंदाज करता है जो कि इसके शिकार हो सकते हैं।


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