SC/ST (अत्याचार निवारण) अधिनियम का मामला फिर पहुंचा सुप्रीम कोर्ट, पुनर्विचार याचिका दाखिल तो वहीं गुजरात HC के अग्रिम जमानत देने को चुनौती
अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम,1989 पर सुप्रीम कोर्ट की जो जजों की पीठ द्वारा सुरक्षा उपाय के लिए दिशा निर्देश जारी करने के बाद मामला फिर से सुप्रीम कोर्ट पहुंच गया है।
एक ओर लोक जनशक्ति पार्टी (एलजेपी) ने सुप्रीम कोर्ट में सोमवार को 20 मार्च के फैसले पर पुनर्विचार याचिका दाखिल की है तो वहीं इस फैसले पर भरोसा जताते हुए गुजरात हाईकोर्ट द्वारा आरोपी को अग्रिम जमानत देने के फैसले को भी सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई है।
अपनी याचिका में राम विलास पासवान की अगुवाई वाली और एनडीए के एक सहयोगी एलजेपी ने कहा है कि 20 मार्च के फैसले को विभिन्न अध्ययनों, संसदीय बहसों और रिपोर्टों और कानून की सिफारिशों के संदर्भ में एक बड़े बेंच द्वारा पुनर्विचार करने की आवश्यकता है।
एससी / एसटी कानून के लिए कहा गया है कि गिरफ्तारी अनिवार्य नहीं होने के परिणामस्वरूप ये अधिनियम कमजोर होगा और अनुसूचित जाति / अनुसूचित जनजाति के लोगों के प्रति उत्पीड़न को बढ़ावा देगा। एलजेपी ने अदालत से अनुरोध किया कि मौखिक सुनवाई करने के लिए दो से अधिक न्यायाधीशों की एक बड़ी पीठ मामले में सुनवाई करे।
इससे पहले मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा, न्यायमूर्ति एएम खानविलकर और न्यायमूर्ति डी.वाई. चंद्रचूड की पीठ के सामने गुजरात उच्च न्यायालय द्वारा अनुसूचित जनजाति से संबंधित जमीन हथियाने के आरोपी बिल्डरों को अग्रिम जमानत देने का मामला पहुंचा। अप्रत्यक्ष रूप से नोटिस जारी कर अदालत मई के पहले सप्ताह में विचार करने के लिए सहमत हो गयी है कि क्या सर्वोच्च न्यायालय का फैसला सही है या नहीं। अपीलकर्ता अर्जुन शंकरभाई राठौड के लिए उपस्थित वरिष्ठ वकील दुष्यंत दवे ने तर्क दिया कि बालूभाई रविभाई अहिर और अन्य लोगों को अग्रिम जमानत देते हुए उच्च न्यायालय ने 20 मार्च के फैसले पर भरोसा किया और आरोप लगाया कि अभियुक्त के खिलाफ शिकायत दुर्भावनापूर्ण है। वकील ने कहा कि इस परेशानी वाले मुद्दे पर एक राष्ट्रीय बहस शुरु हो गई है और अगर अन्य सर्वोच्च न्यायालय के फैसले पर भरोसा करते हैं, तो अनुसूचित जाति / अनुसूचित जनजातीय अधिनियम के तहत सभी अभियुक्त जमानत पर रिहा हो जाएंगे। उन्होंने न्यायमूर्ति एके गोयल और न्यायमूर्ति यू यू ललित के फैसले को निलंबित करने का अनुरोध किया। वरिष्ठ वकील ने कहा कि उच्च न्यायालय यह विचार करने में विफल रहा है कि शिकायतों में की गई जांच ने स्पष्ट रूप से साबित कर दिया है कि आरोपी ने भूमि हथियाई
है और ये एफआईआर दुर्भावनापूर्ण नहीं हैं जिसके चलते उन्हें अग्रिम जमानत देकर रिहा कर दिया जाए। वहीं वरिष्ठ वकील अभिषेक मनु सिंघवी और यतीन ओझा ने उच्च न्यायालय के फैसले पर रोक का जोरदार विरोध करते हुए कहा कि ये आरोप झूठे हैं और अग्रिम जमानत देने के दौरान सभी पहलुओं पर विचार किया गया था।
गौरतलब है कि 20 मार्च को सुप्रीम कोर्ट ने अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम,1989 (अनुसूचित जाति / अनुसूचित जनजाति अधिनियम) के प्रावधानों के दुरुपयोग को रोकने के निर्देश जारी किए थे। न्यायमूर्ति ए के गोएल और न्यायमूर्ति यू यू ललित की दो जजों की पीठ ने इस सवाल का परीक्षण किया था कि क्या अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) (एससी / एसटी) अधिनियम 1989 के प्रावधानों का दुरुपयोग रोकने के लिए प्रक्रियात्मक सुरक्षा उपाय जारी किए जा सकते हैं।
पीठ ने कहा, "हम यह निर्देश देते हैं कि अत्याचार अधिनियम के तहत अपराधों के संबंध में गिरफ्तारी के लिए किसी भी अन्य स्वतंत्र अपराध के अभाव में, यदि कोई आरोपी व्यक्ति सार्वजनिक कर्मचारी है तो नियुक्ति प्राधिकारी की लिखित अनुमति के बिना और यदि व्यक्ति एक सार्वजनिक कर्मचारी नहीं है तो जिले के वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक की लिखित अनुमति के बिना गिरफ्तारी नहीं हो सकती।ऐसी अनुमतियों के लिए किए जाने वाले कारणों को रिकॉर्ड किया जाना चाहिए और गिरफ्तार किए जाने वाले व्यक्ति और संबंधित अदालत में पेश किया जाना चाहिए। मजिस्ट्रेट को दर्ज कारणों पर अपना दिमाग लागू करना चाहिए और आगे हिरासत में रखने की अनुमति केवल तभी दी जानी चाहिए अगर दर्ज किए गए कारण मान्य हैं। एफआईआर दर्ज होने से पहले गलत जांच से बचने के लिए प्रारंभिक जांच कि मामला अत्याचार अधिनियम के मापदंडों में पड़ता है और ये कोई जानबूझकर दाखिल शिकायत नहीं है।”
पीठ ने निर्देश जारी किए कि अत्याचार अधिनियम के तहत मामलों में अग्रिम जमानत के अनुदान के खिलाफ कोई पूर्ण रोक नहीं है, अगर प्रथम दृष्टया कोई मामला नहीं बनता या जहां न्यायिक जांच की जा रही है और पहली नजर में शिकायत झूठी या जानबूझकर दर्ज पाई गई।
अत्याचार अधिनियम के तहत मामलों में गिरफ्तारी के कानून के दुरुपयोग को देखते हुए, एक सार्वजनिक नौकर की गिरफ्तारी केवल नियुक्ति प्राधिकारी और गैर-सरकारी कर्मचारी की गिरफ्तारी एस.एस.पी. की स्वीकृति के बाद ही हो सकती है जो उचित मामलों में दी जा सकती है और इसके लिए कारण दर्ज करना आवश्यक है। आगे की हिरासत के लिए मजिस्ट्रेट द्वारा इस तरह के कारणों की जांच की जानी चाहिए।
निर्दोष को झूठी शिकायत से बचाने के लिए संबंधित डीएसपी द्वारा प्रारंभिक जांच हो सकती है, यह पता लगाने के लिए कि आरोपों में अत्याचार अधिनियम के तहत आरोप तुच्छ या प्रेरित नहीं हैं।
दिशानिर्देशों का कोई भी उल्लंघन अनुशासनात्मक कार्रवाई के साथ साथ अवमानना कार्रवाई योग्य होगा।