हरियाणा में फर्जी भूमि अधिग्रहण प्रक्रिया में निजी भवन निर्माताओं को अपना भूमि गंवाने वाले किसानों को सुप्रीम कोर्ट ने दिलाई राहत [निर्णय पढ़ें]

Update: 2018-03-13 15:58 GMT

हरियाणा के राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में 688 एकड़ बेशकीमती भूमि के अधिग्रहण में हुए घोटाले से जुड़े मामले रामेश्वर एवं अन्य बनाम हरियाणा राज्य में सुप्रीम कोर्ट ने किसानों को राहत देने वाले फैसले दिए हैं। यह मामला भूमि अधिग्रहण अधिनियम की आड़ में निजी भवन निर्माताओं द्वारा भूमि के फर्जी अधिग्रहण से जुड़ा है।

हरियाणा सरकार ने भूमि अधिग्रहण अधिनियम के तहत 688 एकड़ जमीन के अधिग्रहण की अधिसूचना जारी की थी। यह भूमि औद्योगिक टाउनशिप बसाने के लिए लिया जा रहा था। इस अधिसूचना के बाद कई निजी भवन निर्माताओं ने औने-पौने दाम पर किसानों से जमीन खरीद ली। कई किसानों को अपनी जमीन बेचने के लिए धमकियां दी गईं। किसानों से 20-25 लाख प्रति एकड़ की दर पर भूमि खरीदी गई जबकि बाद में कई किसानों को इतनी ही जमीन के लिए 80 लाख और इसके और बाद कईयों को 4.5 करोड़ रुपए तक मिले। बाद में इन बिल्डरों ने सरकार से आनन-फानन भवन निर्माण का लाइसेंस भी प्राप्त कर लिया।

बाद में किसानों को जब हकीकत का पता चला तो उन्होंने आंदोलन किया और पंजाब और हरियाणा हाई कोर्ट का दरवाजा भी खटखटाया।

पर हाई कोर्ट ने उनकी याचिका खारिज कर दी जिसके बाद वे सुप्रीम कोर्ट गए। इस बीच इस मामले में फर्जीवाड़े को लेकर एफआईआर दर्ज हुए और सीबीआई ने मामले की जांच शुरू कर दी।

सुप्रीम कोर्ट के जज आदर्श कुमार गोएल और यूयू ललित की पीठ ने जब मामले पर गौर किया तो उनको यह जानने में देर नहीं हुई कि किसानों को ठगा गया है। कोर्ट ने कहा, “जो जमीन प्रति एकड़ 25 लाख में खरीदी गई उसकी कीमत बाद में 80 लाख हो गई और बाद में डीएलएफ ने उतनी ही जमीन 4.5 करोड़ में खरीदी। फिर, 3.5 करोड़ प्रति एकड़ की कीमत ऐसी कंपनियों/लोगों को मिली जिसका इस मामले से कोई लेनादेना नहीं था और यह काफी अफसोसजनक है। इन कंपनियों ने भूमि के मूल मालिकों से जमीन भी नहीं खरीदी थी और न ही वे ऐसे डेवलपर थे जिनको इस जमीन पर निर्माण कार्य करना था। इस तरह के लोगों को ‘बिचौलिया’ कहा जा सकता है जो 3.5 करोड़ रुपए प्रति एकड़ की दर से भारी भरकम राशि डकार गए...

कोर्ट ने कहा कि हरियाणा शहरी क्षेत्र विकास और विनियमन अधिनियम, 1975 के तहत अधिग्रहण के लिए अधिसूचित क्षेत्र में विकास के लिए लाइसेंस नहीं जारी किया जा सकता है। पर न केवल ऐसा किया गया बल्कि इस तरह के आवेदनों के लंबित होने को अधिग्रहण से पैर खींचने का आधार भी बनाया। कोर्ट ने कहा कि जिसे सीधे रद्द कर दिया जाना चाहिए था उसको बिल्डरों और निजी लोगों को मदद पहुंचाने का आधार बना दिया गया।

कोर्ट ने वरिष्ठ एडवोकेट सीए सुन्दरम को इस मामले में कोर्ट का मददगार नियुक्त किया।

कोर्ट ने इस मामले में मुख्य रूप से उद्दार गगन बनाम संत सिंह और अन्य (2016) 11 SCC 378 मामले पर भरोसा किया। इस मामले में प्रश्न यह था कि अधिनियम की धारा 48 के तहत राज्य ने जो अधिग्रहण बंद किया क्या इसका प्रयोग भूमि का स्वामित्व उसके मूल स्वामी से लेकर निजी बिल्डरों को ट्रांसफर करने के लिए किया गया ताकि उनको लाभ पहुंचाया जा सके। भूमि के मूल स्वामियों ने भूमि अधिग्रहण की पूरी प्रक्रिया पर सवाल उठाया और हाई कोर्ट में इसको चुनौती दी। हाई कोर्ट ने रिलीज आर्डर को रोक दिया, अधिग्रहण को निरस्त कर दिया और निर्देश दिया कि भूमि उनके मूल स्वामियों को लौटा दिया जाए। सुप्रीम कोर्ट ने हाई कोर्ट के निर्णय को सही ठहराया पर उसने अधिग्रहण को नहीं छेड़ा और कहा कि भूमि राज्य के पास रहेगा।

निष्कर्ष

कोर्ट को भूस्वामियों के हितों के साथ साथ आम हितों का भी ख़याल रखना था। कोर्ट के आदेश मुख्य रूप से इस तरह से थे -




  •  भूस्वामियों और संबंधित बिल्डरों/निजी व्यक्तियों के बीच हुआ कारोबार फर्जी तरीके से हुआ।

  •  सरकार द्वारा अधिग्रहण को बीच में रोकना गलत था और इसको निरस्त किया जाता है।

  •  निजी बिल्डरों को भवन निर्माण के लिए दिए गए लाइसेंस को रद्द किया जाता है।

  •  भूमि अधिग्रहण की जिस प्रक्रिया को बीच में रोका गया उसे तार्किक परिणति तक पहुंचाया जाए।

  •  निजी बिल्डरों/खुदरा बिक्रेताओं ने जो पैसे दिए हैं उसे अधिनियम के तहत अवार्ड माना जाए।

  •  भूस्वामियों को अपनी जमीन के बदले और राशि की मांग करने का अधिकार है।

  •  भूमि के विकास पर या भूस्वामियों को दी गई जो राशि बिल्डरों ने खर्च की है वह उनको लौटाया जाएगा।


Full View

Similar News