विदेशी लॉ फर्म भारत में ऑफिस नहीं खोल सकते; विदेशी वकील भारतीय मुवक्किलों को आते-जाते सलाह भर दे सकते हैं : सुप्रीम कोर्ट [निर्णय पढ़ें]

Update: 2018-03-13 12:31 GMT

सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को कहा कि विदेशी कानूनी फर्म भारत में न तो अपना ऑफिस खोल सकती हैं और न ही भारतीय अदालतों में प्रैक्टिस कर सकती हैं। लेकिन वे अपने भारतीय मुवक्किलों को आते-जाते अस्थाई तौर पर सलाह दे सकती हैं। कोर्ट ने केंद्र और बार काउंसिल ऑफ़ इंडिया (बीसीआई) को इस बारे में नियम बनाने को कहा है।

यह फैसला न्यायमूर्ति आदर्श कुमार गोएल और यूयू ललित की पीठ ने सुनाया।

इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने 21 फरवरी 2012 को एके बालाजी बनाम बार काउंसिल ऑफ़ इंडिया एवं अन्य मामले में दिए मद्रास हाई कोर्ट के फैसले को कुछ संशोधनों के साथ सही ठहराया। पीठ ने कहा -

(i) विदेशी वकील संक्षिप्त अवधि के लिए भारत आ कर अपने मुवक्किलों को सलाह दे सकते हैं।

(ii) विदेशी वकीलों को भारत आने और उन्हें अंतरराष्ट्रीय वाणिज्यिक मध्यस्थता की प्रक्रिया में भाग लेने से रोका नहीं जा सकता।

बीसीआई के वकील सीयू सिंह ने एडवोकेट अधिनियम 1961 की धारा 33 का उल्लेख किया जिसमें चार्टर्ड एकाउंटेंट्स, आयकर की प्रैक्टिस करने वालों आदि जो कि एडवोकेट के रूप में पंजीकृत हैं, उन्हें प्रैक्टिस करने की अनुमति दी गई है।

धारा 32 जो किसी ऐसे व्यक्ति को कोर्ट में पेश होने की अनुमति देता है जो कि एडवोकेट के रूप में पंजीकृत नहीं हैं, की चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि धारा 29 और 32 में इस तरह के प्रावधान नहीं है कि उन्हें पेश होने के अलावा किसी और बात की इजाजत भी हो।

इस संबंध में लॉयर्स कलेक्टिव बनाम बीसीआइ एवं अन्य मामले में 2009 में बॉम्बे हाई कोर्ट के फैसले का भी उल्लेख किया गया।

वरिष्ठ वकील राजीव दत्ता ने अमेरिकन मामले एनवाई लॉयर्स कंट्री एसोसिएशन का भी जिक्र किया जिसमें कहा गया कि यहां तक कि न्यूयॉर्क में एक मैक्सिकन वकील द्वारा मेक्सिकन कानून के अनुसार मेंक्सिको में तलाक पाने पर सलाह देने को गैर कानूनी माना जाता है।

मद्रास हाई कोर्ट के फैसले का समर्थन करते हुए कुछ लॉ फर्मों की पैरवी करने वाले वकील सजन पूवय्या ने कहा कि विदेशी क़ानून पर सलाह देने के लिए विदेशी वकीलों के भारत आने पर कोई प्रतिबन्ध नहीं है।

यूके के छह कानूनी फर्मों की ओर से अपनी दलील में वरिष्ठ वकील अरविंद दातर ने “आने जाने” की छूट को वैध करार देने की मांग की थी। मध्यस्थता के मामले के बारे में उन्होंने मद्रास हाई कोर्ट के समक्ष भारत सरकार की दलील को उद्धृत किया “...19 अगस्त 2010 को भारत सरकार ने अपने हलफनामे में कहा था कि याचिकाकर्ता ने विदेशी फार्मों को किसी मामले को सुलझाने की प्रक्रिया में भाग लेने, दस्तावेज तैयार करने और मध्यस्थता की अनुमति नहीं देने की जो बात कही है उसका प्रतिकूल असर होगा...”

ग्लोबल इंडियन लॉयर्स एसोसिएशन की पैरवी करते हुए नकुल दीवान ने कहा, “अधिनियम 1961 कानूनी फार्मों पर लागू नहीं होता बल्कि सिर्फ व्यक्तिगत वकीलों पर लागू होता है। यह अधिनियम किसी योग्य भारतीय वकील को दोहरी योग्यता लेने से मना नहीं करता। अधिनियम की धारा 24 और 47 के तहत पारस्परिकता सिर्फ नागरिकता पर आधारित है। और फिर, धारा 29, 30 और 33 के तहत क़ानून के पेशे की प्रैक्टिस से मतलब है सिर्फ भारतीय क़ानून की प्रैक्टिस।”

दुष्यंत दवे ने लंदन कोर्ट ऑफ़ इंटरनेशनल आर्बिट्रेशन की ओर से कहा कि इस संगठन को 1922 से ‘कोर्ट’ कहा जा रहा है और इसे बोलचाल की भाषा में नहीं समझा जाना चाहिए।

उन्होंने कहा, “भारत में विश्वसनीय मध्यस्थता का बिल्कुल अभाव है। हमारे यहाँ 99% तदर्थ मध्यस्थता होती है। एलसीआईए इंडिया की स्थापना इस स्थिति तो ठीक करने के लिए हुआ था पर यह आर्थिक रूप से सफल नहीं रहा इसलिए इसे बंद कर दिया गया। इसलिए वर्तमान एसएलपी निष्प्रभावी हो गया है और इसे निरस्त कर दिया जाना चाहिए। सो कृपया इस मांग को अस्वीकार कर दीजिये कि किसी भी विदेशी वकील को मध्यस्थता सहित प्रैक्टिस करने की इजाजत नहीं होगी”।

एएसजी मनिंदर सिंह ने 1961 की धरा 49(1)(e) के तहत अपने अधिकारों का प्रयोग करते हुए विदेशी वकीलों और विदेशी विधि फर्मों के भारत में प्रैक्टिस करने के बारे में नियम बनाने को कहा और अगर वह ऐसा नहीं कर पाता है तो फिर केंद्र सरकार को इस बारे नियम बनाने होंगे। उन्होंने कहा, “नियमों की जरूरत है। हम चाहते हैं कि विदेशी वकील यहाँ आएं ताकि भारतीय वकीलों को भी अन्य देशों में इस तरह के कार्यों की अनुमति देने से नहीं रोका जा सके। अगर बीसीआई नियम नहीं बनाता है तो केंद्र सरकार यह कार्य करेगी और नियम बनाएगी”।

पीठ ने इस मामले में 1 फरवरी को अपना फैसला सुरक्षित रखा था।


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