आधार पर चौथे दिन की सुनवाई : एडवोकेट श्याम दीवान ने धारा 59 पर अपनी दलील पेश की
आधार पर सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ के समक्ष अपनी दलील जारी रखते हुए एडवोकेट श्याम दीवान ने कहा, “इस धारा के प्रावधानों के अनुसार सिर्फ केंद्र सरकार जिसने अधिसूचना के बाद 28 जनवरी 2009 को यूआईडीए की स्थापना की, इस अधिनियम के लागू होने के बाद पिछले प्रभाव से कार्रवाई कर सकता है।
“इस तरह की सुविधा निजी संस्थाओं जैसे पंजीकरण एजेंसियों को प्राप्त नहीं है।”
न्यायमूर्ति एके सीकरी ने बीच में हस्तक्षेप करते हुए कहा, “इस क़ानून के लागू होने के पहले ही यूआईडीए ने पंजीकरण एजेंसियों की नियुक्ति की थी।” इस पर दीवान ने कहा, “अधिनियम-पूर्व के समय यूआईडीए और निजी संस्थाओं के बीच कोई गुप्त करार नहीं था।”
न्यायमूर्ति सिकरी ने कहा, “लेकिन यूआईडीए की स्थापना केंद्र सरकार ने की है। इसलिए वह सारी गतिविधियों का केंद्र है।”
“अधिसूचना तो सिर्फ सरकार को सहमति पत्र पर हस्ताक्षर करने की कार्रवाई को संरक्षित करता है लेकिन रजिस्ट्रार की नहीं।”।
“लेकिन रजिस्ट्रार की कार्रवाई का केंद्र भी एमओयू ही होता है”, ऐसा कहना था न्यायमूर्ति डीवाई चंद्रचूड़ का।
दीवान ने कहा, “रजिस्ट्रार हो सकता है कि एमओयू का हिस्सा हो, पर उनकी किसी भी कार्रवाई के बारे में यह नहीं कहा जा सकता कि यह केंद्र सरकार की कार्रवाई है। और पंजीकरण एजेंसी तो एमओयू के तहत आते भी नहीं हैं। इस तरह, अधिनियम के लागू होने के पहले जो पंजीकरण हुए उसे धारा 59 के तहत जायज करार नहीं दिया जा सकता।”
न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने पूछा, “इस क़ानून के लागू होने के पहले क्या निजी संस्थाएं आधार की मांग कर रही थी? क्योंकि आप कह रहे हैं कि इन्हें धारा 59 के तहत जायज नहीं ठहराया जा सकता।”
दीवान ने कहा, “हमें इस बारे में सुनिश्चित आंकड़े जमा करने होंगे।”
न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने कहा, “न्यायमूर्ति केएएस पुत्तस्वामी फैसले में कहा गया है कि निजता के अधिकार पर कोई भी अतिक्रमण किसी उपयुक्त क़ानून के तहत ही होना चाहिए। धारा 59 द्वारा अधिनियम-पूर्व इसके उल्लंघन से निपटने का प्रयास किसी कानूनी कल्पना की तरह है। हमें इस बात पर विचार करना होगा कि इन कार्रवाइयों से कैसे निपटा जाए।”
दीवान ने कहा, “संज्ञानात्मक सहमति इस संदर्भ में महत्त्वपूर्ण है। अधिनियम के पहले सभी तरह के उल्लंघनों को इस आधार पर वैध नहीं बनाया जा सकता कि इस तरह की सहमति तो हमेशा से रही है। अगर इस अधिनियम को संवैधानिक रूप से सही ठहरा भी दिया जाता है तो भी धारा 59 की व्याख्या तो जरूरी है।”
इसके बाद वरिष्ठ वकील ने अधिनियम 2016 को चुनौती देने वाले आधारों के बारे में इस तरह से बताया -
“पहली चिंता तो यह है कि आधार कार्यक्रम कैसे राज्य द्वारा निगरानी को सफल बनाता है।
दूसरा, लोगों की निजता का अतिक्रमण 2010 से लेकर 2016 तक बिना किसी कानूनी अनुमति के किया गया। और इस बारे में क़ानून के बन जाने के बाद भी लोगों को अपने सभी गतिविधियों के बारे में डिजिटल फुटप्रिंट और सूचनाओं की व्यापक प्रोफाइलिंग द्वारा राज्य को बताने के लिए बाध्य किया जा रहा है।
तीसरा है सीमित प्रशासन की परिकल्पना जिसको संविधान में भी जगह दी गई है। राज्य को आधार नंबर जारी नहीं करने या जारी आधार नंबर को निष्क्रिय बना देने का अधिकार देकर राज्य को किसी भी व्यक्ति को व्यावहारिक रूप से मार देने का स्विच थमा दिया गया है। सरकार में पारदर्शिता लाने के बदले नागरिकों को राज्य के सामने पारदर्शी होने के लिए बाध्य किया जा रहा है।
चौथी चिंता है, आधार अधिनियम को धन विधेयक के रूप में पेश करना और इस बारे में अरविंद दातार और कपिल सिब्बल विस्तार से बताएंगे।
पांचवां है वह तरीका जिसके द्वारा संवेदनशील जानकारियाँ जमा की जा रही हैं, उन्हें स्टोर किया जा रहा है और उनको प्राप्त किया जा रहा है। ये तरीके बहुत ही असुरक्षित हैं और इसलिए अनुच्छेद 14 और 21 का उल्लंघन करते हैं। पंजीकरण करने वाली एजेंसियों का यूआईडीएआई के साथ कोई प्रत्यक्ष संबंध नहीं है; एक बार पंजीकरण हो जाने के बाद इससे बाहर आने का कोई तरीका नहीं है; और यहाँ तक कि पंजीकरण के लिए किसी व्यक्ति की बायोमेट्रिक और जनसांख्यिकीय सूचनाओं के लिए सहमति के बारे में हम यह नहीं कह सकते कि लोगों ने सब कुछ ठीक से समझबूझ कर किया है।”
दीवान ने कहा, “इसके अलावा, ऐसा कोई विश्वसनीय तरीका नहीं है जिसके द्वारा इस डेटा का सत्यापन हो सके। फिर चूंकि, बायोमेट्रिक आईडी का सिर्फ एक संभावित सबूत है, यह सामाजिक सुरक्षा योजनाओं से लोगों के बाहर हो जाने का कारण बन रहा है। अगर बायोमेट्रिक मैच नहीं करता तो एक जीवित व्यक्ति जो सामने में खड़ा है, किसी भूत से ज्यादा और कुछ नहीं है।”
दीवान ने कहा, “लोकतंत्र में किसी नागरिक को इस तरह अपनी पहचान के लिए किसी बहुत ही आक्रामक तरीके के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता। “प्रमाणीकरण रिकार्ड” से प्रमाणीकरण का समय और इसका आग्रह करने वाले की पहचान के बारे में जाना जा सकता है। ये रिकॉर्ड कई सालों के लिए स्टोर किये जाते हैं। फिर, यह परिकल्पना कि सेंट्रल आइडेंटिटीज डाटा रिपॉजिटरी (सीआईडीआर) सभी सूचनाओं के लिए एक केंद्रीकृत डेटाबेस है, अपने आप में अधिनायकवादी होने का सबूत है।”
इसके बाद सीआईडीआर पर इस तरह से सवाल-जवाब हुआ -
न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ – “सीआईडीआर का प्रबंधन कौन करता है?”
दीवान – “राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर सीआईडीआर के बारे में आम सूचनाएं उपलब्ध नहीं हैं।”
न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ – “क्या यूआईडीएआई का कोई सोर्स कोड है?”
दीवान – “नहीं, यह मालिकाना प्रकृति का है”।
धारा 3 जिसमें आधार संख्या के प्रावधानों का जिक्र है, दीवान ने कहा, “कृपया उप-खंड (1) के वाक्य पर ध्यान दीजिए जिसमें कहा गया है ‘प्राप्त करने का हक़ होगा’। इसका अर्थ यह है कि आधार संख्या प्राप्त करना व्यक्ति का अधिकार है और यह बाध्यकारी नहीं है। इसलिए, खंड 7 असंवैधानिक है क्योंकि यह लोगों को आधार की वजह से एक कानूनी अधिकार से वंचित करता है।”
दीवान ने कहा, “आम नागरिक को जरूरत से अधिक निगरानी से सुरक्षा का अधिकार है बशर्ते कि वह क़ानून का उल्लंघन नहीं करता हो।”
इसके बाद बहस इस ओर मुड़ गया कि आधार नंबर को किन परिस्थितियों में रद्द किया जा सकता है। दीवान ने कहा, “प्राधिकरण को किसी के आधार नंबर को रद्द करने का अधिकार है अगर उसको लगता है कि यह फर्जी है। प्राधिकरण उस व्यक्ति को सीधे ‘स्विच ऑफ’ कर देगा।
न्यायमूर्ति एके सिकरी ने पूछा, “अगर कोई आधार नंबर फर्जी तरीके से प्राप्त किया गया है तो उसे रद्द क्यों नहीं किया जा सकता है?”
दीवान ने कहा, “चिंता इस तरह का अधिकार देने से है”।
न्यायमूर्ति एके सिकरी ने कहा, “इस तरह की चिंता तो तभी होगी जब शक्ति का दुरूपयोग होता है?”
न्यायमूर्ति एएम खानविलकर ने कहा, “इसके अतिरिक्त, अगर कोई नंबर गलती से रद्द कर दिया गया है तो इस गलती को ठीक करने का भी प्रावधान है।”
अंत में दीवान ने बायोमेट्रिक डेटा को साझा करने के बारे में अन्य कानूनों का जिक्र किया और इससे जुड़े सुरक्षात्मक उपायों की भी -
जनगणना अधिनियम 1948 की धारा 15; यह जनगणना के रिकार्ड्स को सार्वजनिक करने पर प्रतिबन्ध लगाता है या इसे साक्ष्य के रूप में प्रयोग पर रोक लगाता है।
धारा 7, बंदी पहचान अधिनियम,1920; बरी होने पर फोटो और अन्य रिकार्ड्स को नष्ट कर देने का प्रावधान है।
धारा 32A, पंजीकरण अधिनियम 1908; इसके तहत पंजीकरण के लिए दिए जाने वाले सभी दस्तावेजों पर फोटो और अंगूठे का निशान लगाने का नियम है – “यह कानूनी और उद्देश्य के आनुपातिकता का उदाहरण है,” दीवान ने कहा।
धारा 6, बॉम्बे हैबिचुअल ओफेंडर्स अधिनियम 1959; यह जिला मजिस्ट्रेट को पंजीकृत अपराधकर्मियों की उंगलियाँ, तलहत्थी, पैर के छाप और उनके फोटोग्राफ लेने का अधिकार देता है – “इस अधिनियम में भी पांच साल के बाद पंजीकरण को रद्द करने का प्रावधान है।