13 सितम्बर को रेयान अंतर्राष्ट्रीय विद्यालय के प्रमुख पदाधिकारी फ्रांसिस थॉमस द्वारा सर्वोच्च न्यायालय से वरिष्ठ अधिवक्ता श्री के टी एस तुलसी के माध्यम से ये प्रार्थना की गयी कि सर्वोच्च न्यायालय ,उनके मुक़दमे की सुनवाई जो कि सोहना जनपद में चल रही है उसे दिल्ली स्थानांतरित करा दे क्योकि सोहना न्यायालय के स्थानीय अधिवक्ताओ ने सामूहिक रूप से किसी भी दोषी का न्यायालय में प्रतिनिधित्व न करने का निर्णय लिया है |
ये विरोध और निर्णय 8 सितम्बर 2017 की उस घटना के विरोध में घटना के तुरंत एक दिन बाद यानी 9 सितम्बर को लिया गया जिसमें रेयान अंतर्राष्ट्रीय विद्यालय के कक्षा 2 में पढने वाला एक बच्चा विद्यालय के शौचालय में कटे गले के साथ मृत पाया गया , उसके उपरांत पुलिस ने विद्यालय की बस में कार्यरत कंडक्टर को बच्चे की हत्या की आरोप में गिरफ्तार कर लिया और साथ में विद्यालय के प्रमुख पदाधिकारी फ्रांसिस थॉमस को भी |
18 सितम्बर 2017 को सर्वोच्च न्यायालय ने डिस्ट्रिक् बारएसोसिएशन के सदस्यों को ये निर्देश दिया कि विशेष न्यायाधिकारी के समक्ष उक्त मुकदमे से सम्बंधित कार्यवाही को किसी भी तरीके से न रोका जाए , इस पर सर्वोच्च न्यायालय को ये कौंसिल की तरफ से सूचित किया गया कि कौंसिल ने अपने पिछले निर्णय को वापस ले लिया है जिसमे किसी भी अधिवक्ता को किसी भी दोषी का न्यायालय के सामने प्रतिनिधित्व करना मना किया गया था | मुख्य न्यायधीश दीपक मिश्रा ने टिप्पणी करते हुए कहा कि :-
"एक दोषी का वकील के जरिये प्रतिनिधित्व का अधिकार है और बार किसी भी वकील को दोषी की जगह उपस्थित होने में अवरोध न होने देने के लिए कर्त्व्यबाध्य है। हम बिना हिचकिचाहट के यह कहते है कि कोई भी दोषी , चाहे कोई भी अपराध हो , के पास अपने वकील के जरिये प्रतिनिधित्व का अधिकार है। बार की परंपरा उसे अधिकृत नहीं करती कि कोई भी बार एसोसिएशन इस तरीके का निर्णय पारित करे।"
कालांतर में भी इस तरह के कई निर्णय देश की कई स्थानीय अधिवक्ता परिषदों ने या संगठनों ने पास किये है , ये उन मामलो में जरूर देखा जाता यदि वो कथित आतंकवाद के सन्दर्भ में हो , कभी कभी तो यह विरोध शाब्दिक न हो कर शारीरिक हिंसा पर उतर जाता है और किसी दोषी के लिए खड़े होने वाले अधिवक्ता को हिंसा का शिकार होना पड़ता है | लखनऊ के अधिवक्ता मोहम्मद शोएब को कोर्ट परिसर में वकीलों द्वारा ही पीटा गया क्योकि वो 2007 लखनऊ कोर्ट ब्लास्ट का दोषी के लिए पेश हो रहे थे और बाद में उसके विरुद्ध लगे चार्ज को वापस ले लिया गया मान लीजिये अगर उस तथा कथित आतंकवादी के लिए बार के अनुरोध पर कोई खड़ा नहीं होता तो ? उसका दोष तो सिद्ध हो जाता | दिल्ली के साथी वकील चित्रांशुल सिन्हा भी अपने लेख में इसी विषय पर अपनी राय रखते हुए कहते है कि वकीलों को अपनी व्यक्तिगत सोच को अलग रखते हुए और इस बात को ध्यान में रखते हुए कि वह न्यायालय के अधिकारी के रूप में कार्य कर रहे है उन्हें इस बात पर ज्यादा ज़ोर देना चाहिए कि न्याय प्रभावशाली ढंग से मिले |
उपरोक्त तथ्यों के सन्दर्भ में मेरा प्रश्न यह है कि किसी के दोष सिद्धि की ज़िम्मेदारी किसकी है ? वकीलों की, समाज की या फिर न्यायालय की ? समाज न्याय के शासन (रूल ऑफ़ लॉ ) से शासित होता है और उसकी परिधि में सिर्फ न्यायालय ही किसी का दोष सिद्ध कर सकता है | किसी भी दोषी को भारतीय संविधान अनुच्छेद 22 के अनुसार ये पूरा अधिकार है कि उसे कभी भी अपनी पसंद के वकील से सलाह लेने और अपने पक्ष में बचाव करने के लिए नहीं रोका जाए |
बार कौंसिल ऑफ़ इंडिया ने वकीलों के लिए जो व्यावसायिक आचरण और शिष्टाचार के जो मानक तैयार किये है और जिसमे भारतीय संविधान की मूल भावना निहित है , उनके अनुसार भी ऐसा करना विधि सम्मत नहीं है |
वकीलों द्वारा किसी दोषी के कानूनी प्रतिनिधित्व में अड़चन पैदा करने वाली सोच को हम भीड़ की सोच के सामानांतर रख कर देख सकते हैं जिसकी मूलतः अतार्किक सोच होती है जो इस व्यवसाय को प्रबुद्ध जैसे विशेषण से दूर ले जाती है | इन सब मसलो पर वकीलों के आचरण को देखने वाली संस्था बार कौंसिल ऑफ़ इंडिया की भूमिका पर भी प्रश्नचिह्न है |
रेयान अंतर्राष्ट्रीय विद्यालय के मामले में तो डिस्ट्रिक्ट बार एसोसिएशन ने तो अपना निर्णय वापस ले लिया पर क्या कभी किसी एसोसिएशन ने आतंक वाद वाले मसलों मे वकीलों के खिलाफ पारित किये हुए निर्णय वापस लिए हैं ? इस तरह का चरित्र किसी भी संगठन के स्वंतंत्र होने, धर्मनिरपेक्ष और समतापरक होने पर सवाल उठाता है |
शशांक सिंह,अधिवक्ता ,सर्वोच्च न्यायालय