जेल में कैदियों के हालात को लेकर सख्त सुप्रीम कोर्ट, कहा अप्राकृतिक मौतों पर हाईकोर्ट ले संज्ञान
देश की जेलों में हिरासत के दौरान होने वाली खुदकुशी समेत अप्राकृतिक मौतौं पर सुप्रीम कोर्ट ने गहरी चिंता जताई है।
एक अहम आदेश सुनाते हुए जस्टिस मदन बी लोकुर और जस्टिस दीपक गुप्ता ने सभी हाईकोर्ट चीफ जस्टिस से कहा है कि वो जेल में खुदकुशी समेत सभी अप्राकृतिक मौत के मामलों में कैदी के परिवार को उचित मुआवजा देने के लिए स्वत: संज्ञान लेकर जनहित याचिका दर्ज करें और NCRB के दिए डेटा के मुताबिक 2012 से 2015 के बीच जेलों में हुई सभी अप्राकृतिक मौतों के मामलों का पता लगाने और उनके परिवार को उचित मुआवजा दिलाएं।
सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक महत्वपूर्ण फैसले में जेल सुधार के लिए ये दिशानिर्देश जारी किए है इनके मुताबिक सरकार को 'ओपन जेल' की व्यवस्था पर विचार करने की जरूरत है। जेलों में कैदियों के अननेचुरल मौत को रोकने के लिए जेल के भीतर स्वास्थ सेवाओं को दुरुस्त करने की जरूरत है। जेल का नाम बदलकर 'सुधार गृह' करने से केवल बात नहीं बनेगी। इसके लिए पर्याप्त उपाय करने की जरूरत है। कैदियों के सुधार के लिए एक बोर्ड बनाया जाना चाहिए जिसमें समाज के प्रबुध्द लोगों को शामिल किया जाय जो मॉडल जेल मैन्युअल का लागू कराये और कैदियों के सुधार में सहयोग करें।केंद्र सरकार सभी राज्यों को इस संबंध में एडवायजरी जारी करे और बताए कि एेसी मौतों की जांच भी जरूरी है। परिजनों से कैदियों से मुलाकात को बढ़ावा देना चाहिए। सरकार को कैदियों से मुलाकात के समय को बढ़ाने और मुलाकात के अवसर बढ़ाने पर विचार करना चाहिए। इसके अलावा कैदियों ओर उनके परिजनों के बीच बातचीत के लिए फोन और वीडियो कॉन्फ़्रेंसिंग की संभावनाओं पर विचार किया जाना चाहिए। न केवल परिजनों से बातचीत के लिए बल्कि कैदियों की उनके वकील से बात के लिए भी इस पर विचार होना चाहिए।सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि सरकार जेलों में बंद कैदियों द्वारा आत्म हत्या की घटनाओं को रोकने के लिए एक स्ट्रेटेजी तैयार करे। जिससे ऐसी घटनाओं को रोका जा सके। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि गृह मंत्रालय NCRB को आदेश जारी करे कि वह अपने डेटा में प्राकृतिक और अप्राकृतिक मौत के अंतर को स्पष्ट करे।
फैसला लिखते हुए जस्टिस लोकुर ने कहा है कि दूसरे समाज की तरह हम भी हिरासत में हिंसा और अप्राकृतिक मौतों से अनजान नहीं है। जब तक जेल प्रशासन पीडित की आवाज या मृतक की चुप्पी को ना सुने और इसके उपचार के लिए कदम ना उठाए, तब तक हिरासत में हिंसा की आलोचक आवाज का उद्देश्य हल नहीं होगा। जेल में प्रशासनिक ओहदे पर बैठे लोगों को इस मुद्दे पर संवेदनशीलता के सबसे बडे स्तर पर रहना होगा। इस मुद्दे पर देश की संवैधानिक अदालतें कई दशकों से झंडा उठाए हुए हैं।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि भले ही केंद्र सरकार की योजनाएं कागज पर अच्छी लगती हों और उसने अच्छी नीयत से जेल रिफार्म को लेकर कदम उठाए हों लेकिन जेलों में सुधार के लिए ये काफी नहीं हैं।
सुप्रीम कोर्ट ने ये भी कहा है कि ये वांछनीय है कि जेलों में भी संविधान के दिए अनुच्छेद 21 के तहत जीने के अधिकार को सुनिश्चित किया जाए। वरना ये अनुच्छेद 21 संविधान में एक मृत कागज बना रहेगा।