बच्चे की कस्टडी के मामलों से निपटने के लिए नियमित सिविल कोर्ट या फैमिली कोर्ट रिट न्यायालयों की तुलना में बेहतर स्थिति में क्यों हैं? सुप्रीम कोर्ट ने समझाया
Shahadat
9 Sept 2024 10:08 AM IST
सुप्रीम कोर्ट ने रिट कार्यवाही में बच्चे (1 से 3 वर्ष की आयु के बीच के बच्चे) की कस्टडी में बाधा डालने के हाईकोर्ट के आदेश की निंदा की। उसने समझाया कि रिट कोर्ट के बजाय नियमित सिविल कोर्ट या फैमिली कोर्ट बच्चे की कस्टडी के मामलों से निपटने के लिए लाभप्रद स्थिति में क्यों हैं।
न्यायालय द्वारा दिए गए कानून के बिंदु पर मुख्य कारणों में से एक यह है कि नाबालिग की कस्टडी और संरक्षकता से संबंधित विवाद का सबसे अच्छा निर्णय संरक्षकता और वार्ड अधिनियम (JWD Act) के तहत की गई महत्वपूर्ण कार्यवाही में किया जा सकता है।
न्यायालय के अनुसार, ऐसे मामलों से निपटने वाले नियमित न्यायालय निम्नलिखित कारणों से रिट न्यायालय की तुलना में लाभप्रद स्थिति में हैं:
“बाल हिरासत के मामलों से निपटने वाले नियमित सिविल/फैमिली कोर्ट लाभप्रद स्थिति में हैं। न्यायालय अक्सर बच्चे के साथ बातचीत कर सकता है। व्यावहारिक रूप से सभी फैमिली कोर्ट में चाइल सेंटर/खेल क्षेत्र होता है। किसी बच्चे को खेल केंद्र में लाया जा सकता है, जहां न्यायिक अधिकारी बच्चे से बातचीत कर सकता है। पक्षकारों को एक ही स्थान पर बच्चे से मिलने की अनुमति दी जा सकती है। इसके अलावा, हिरासत के मामलों से निपटने वाला न्यायालय साक्ष्य दर्ज कर सकता है। न्यायालय बच्चे का मनोवैज्ञानिक मूल्यांकन करने के लिए विशेषज्ञों को नियुक्त कर सकता है। यदि किसी पक्ष को बच्चे से मिलने की अनुमति देने की आवश्यकता है तो सिविल कोर्ट या फैमिली कोर्ट इसकी निगरानी करने की बेहतर स्थिति में है।”
जस्टिस अभय एस ओक और जस्टिस ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह की खंडपीठ ने टिप्पणी की कि बाल हिरासत से निपटने वाले बंदी प्रत्यक्षीकरण रिट के बारे में सिद्धांतों को भी संक्षेप में प्रस्तुत किया:
1. बंदी प्रत्यक्षीकरण रिट विशेषाधिकार रिट है। यह असाधारण उपाय है। यह विवेकाधीन उपाय है।
2. हाईकोर्ट के पास हमेशा मामले के तथ्यों के आधार पर रिट क्षेत्राधिकार का प्रयोग न करने का विवेक होता है। यह सब व्यक्तिगत मामलों के तथ्यों पर निर्भर करता है;
3. यदि हाईकोर्ट बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका में यह पाता है कि प्रतिवादियों द्वारा बच्चे की अभिरक्षा अवैध थी तो किसी मामले में हाईकोर्ट भारत के संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत क्षेत्राधिकार का प्रयोग करने से इनकार कर सकता है।
4. यदि हाईकोर्ट का यह विचार है कि जिस स्तर पर बंदी प्रत्यक्षीकरण की मांग की गई, उस समय नाबालिग की कस्टडी में बाधा डालना उसके कल्याण और हित में नहीं होगा।
5. जहां तक नाबालिग बच्चों की अभिरक्षा के संबंध में निर्णय का संबंध है तो एकमात्र सर्वोपरि विचार नाबालिग का कल्याण है। पक्षकारों के अधिकारों को बच्चे के कल्याण पर हावी होने की अनुमति नहीं दी जा सकती। यह सिद्धांत नाबालिग के संबंध में बंदी प्रत्यक्षीकरण की मांग करने वाली याचिका पर भी लागू होता है।
जब न्यायालय नाबालिग के संबंध में बंदी प्रत्यक्षीकरण के मुद्दे पर विचार करता है तो न्यायालय बच्चे को चल संपत्ति नहीं मान सकता है और अभिरक्षा में बाधा के बच्चे पर पड़ने वाले प्रभाव पर विचार किए बिना अभिरक्षा हस्तांतरित नहीं कर सकता है। ऐसे मुद्दों पर यंत्रवत् निर्णय नहीं लिया जा सकता। न्यायालय को मानवीय विचारों के आधार पर कार्य करना होगा। आखिरकार, न्यायालय पैरेंस पैट्रिया के सिद्धांत की अनदेखी नहीं कर सकता।
केस टाइटल: सोमप्रभा राणा एवं अन्य बनाम मध्य प्रदेश राज्य एवं अन्य सीआरएल.ए. नंबर 3821/2023