Section 217 CrPC | न्यायालय आरोपों में बदलाव करता है तो पक्षकारों को गवाहों को वापस बुलाने/री-एक्जामाइन करने का अवसर दिया जाना चाहिए: सुप्रीम कोर्ट

Shahadat

12 Jun 2024 10:47 AM IST

  • Section 217 CrPC | न्यायालय आरोपों में बदलाव करता है तो पक्षकारों को गवाहों को वापस बुलाने/री-एक्जामाइन करने का अवसर दिया जाना चाहिए: सुप्रीम कोर्ट

    सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि आरोपों में बदलाव की स्थिति में पक्षकारों को ऐसे बदले गए आरोपों के संदर्भ में गवाहों को वापस बुलाने या री-एक्जामाइन करने का अवसर प्रदान किया जाना चाहिए। साथ ही आरोपों में बदलाव के कारणों को निर्णय में दर्ज किया जाना चाहिए।

    जस्टिस ऋषिकेश रॉय और जस्टिस सतीश चंद्र शर्मा की खंडपीठ ने कहा,

    न्यायालय निर्णय सुनाए जाने से पहले किसी भी आरोप में बदलाव या वृद्धि कर सकता है, लेकिन जब आरोपों में बदलाव किया जाता है तो अभियोजन पक्ष और बचाव पक्ष दोनों को सीआरपीसी की धारा 217 के तहत ऐसे बदले गए आरोपों के संदर्भ में गवाहों को वापस बुलाने या री-एक्जामाइन करने का अवसर दिया जाना चाहिए। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि यदि न्यायालय द्वारा आरोपों में बदलाव किया जाता है, तो इसके कारणों को निर्णय में दर्ज किया जाना चाहिए।"

    न्यायालय ने दो कानूनी कमियों के आधार पर अभियुक्त की दोषसिद्धि खारिज की, अर्थात, धारा 302 के साथ धारा 34 के तहत बदले गए आरोपों को अभियुक्त को पढ़कर नहीं सुनाया गया और न ही उन्हें समझाया गया। अभियोजन पक्ष द्वारा ऐसा कोई साक्ष्य प्रस्तुत नहीं किया गया, जिससे यह पता चले कि अपराध करते समय अभियुक्त की ओर से 'सामान्य इरादा' मौजूद था।

    अभियुक्त के विरुद्ध भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 302 के साथ धारा 149 के तहत आरोप तय किया गया। हालांकि, बाद में अभियुक्त के विरुद्ध धारा 302 के साथ धारा 34 के तहत आरोप तय किया गया। आरोप में किए गए बदलाव को अभियुक्त को पढ़कर नहीं सुनाया गया और न ही उसे समझाया गया। इसके अलावा, आरोप में किए गए बदलाव के कारणों को निर्णय में दर्ज नहीं किया गया।

    रोहतास बनाम हरियाणा राज्य के मामले का संदर्भ देते हुए न्यायालय ने कहा कि जब किसी आरोप को 'सामान्य उद्देश्य' से बदलकर 'सामान्य इरादे' कर दिया जाता है तो किसी दिए गए मामले में सामान्य इरादे के अस्तित्व को अभियोजन पक्ष द्वारा प्रासंगिक साक्ष्य के साथ स्थापित किया जाना चाहिए, क्योंकि 'सामान्य उद्देश्य' और 'सामान्य इरादे' को एक-दूसरे के बराबर नहीं माना जा सकता।

    अदालत ने कहा,

    "अदालत की यह भी जिम्मेदारी है कि वह आईपीसी की धारा 34 की सहायता से किसी व्यक्ति को दोषी ठहराने से पहले साक्ष्य का विश्लेषण और आकलन करे। महत्वपूर्ण बात यह है कि केवल सामान्य इरादे के आधार पर ही आईपीसी की धारा 34 लागू नहीं हो सकती, जब तक कि ऐसे सामान्य इरादे को आगे बढ़ाने के लिए कोई कार्रवाई न की जाए।"

    अदालत ने कहा,

    "दुर्भाग्य से, अपीलकर्ताओं के सामान्य इरादे को अभियोजन पक्ष द्वारा आरोपित अपराध से जोड़ने के लिए कभी भी स्थापित नहीं किया गया। इसके अलावा, न्यायालय द्वारा सामान्य इरादे के पहलू पर कोई चर्चा नहीं की गई।"

    तदनुसार, न्यायालय ने अभियुक्तों को संदेह का लाभ दिया। इसलिए उनकी दोषसिद्धि खारिज कर दी।

    केस टाइटल: मधुसूदन और अन्य बनाम मध्य प्रदेश राज्य

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