SC/ST Act | प्रथम दृष्टया अपराध सिद्ध होने तक अग्रिम जमानत पर रोक नहीं: सुप्रीम कोर्ट

Shahadat

24 Aug 2024 5:33 AM GMT

  • SC/ST Act | प्रथम दृष्टया अपराध सिद्ध होने तक अग्रिम जमानत पर रोक नहीं: सुप्रीम कोर्ट

    सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 (SC/ST Act) की धारा 18 के तहत अग्रिम जमानत पर रोक तब तक लागू नहीं होती, जब तक कि आरोपी के खिलाफ अधिनियम के तहत प्रथम दृष्टया मामला सिद्ध न हो जाए।

    कोर्ट ने कहा,

    "यदि शिकायत में संदर्भित सामग्री और शिकायत को प्रथम दृष्टया पढ़ने पर अपराध के लिए आवश्यक तत्व सिद्ध नहीं होते हैं तो धारा 18 का प्रतिबंध लागू नहीं होगा और अदालतों के लिए गिरफ्तारी से पहले जमानत देने की याचिका पर उसके गुण-दोष के आधार पर विचार करना खुला होगा।"

    कोर्ट ने इस बार प्रकाश डाला कि ऐसे मामलों में अदालतों को आरोपी को गिरफ्तारी से पहले जमानत देने से पूरी तरह से रोका नहीं जा सकता।

    जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस मनोज मिश्रा की खंडपीठ ने विधायक पीवी श्रीनिजिन के खिलाफ कथित अपमानजनक टिप्पणी करने के आपराधिक मामले में मलयालम यूट्यूब न्यूज चैनल 'मरुनादन मलयाली' के संपादक शाजन स्कारिया को अग्रिम जमानत देते हुए यह बात कही।

    स्कारिया ने जिला खेल परिषद के अध्यक्ष के रूप में श्रीनिजिन द्वारा खेल छात्रावास के कथित कुप्रबंधन के बारे में न्यूज प्रसारित की थी। न्यायालय ने केरल हाईकोर्ट द्वारा जून 2023 में दिए गए उस फैसले को खारिज कर दिया, जिसमें उन्हें अग्रिम जमानत देने से इनकार किया गया था।

    न्यायालय ने कहा कि ऐसे मामलों में जहां कथित आपत्तिजनक सामग्री सोशल मीडिया पर अपलोड होने के कारण सार्वजनिक डोमेन में उपलब्ध है, अदालतों को उन सामग्रियों की जांच करने का विवेकाधिकार होना चाहिए, जिन पर शिकायत दर्ज की गई।

    न्यायालय ने कहा,

    "हम केवल इतना कह सकते हैं कि इस तरह के मामलों में अदालतों को शिकायत में किए गए कथनों की पुष्टि करने के अलावा उन सामग्रियों को देखने का विवेकाधिकार होना चाहिए, जिनके आधार पर शिकायत दर्ज की गई।"

    अधिनियम की धारा 18 में कहा गया कि सीआरपीसी की धारा 438, जो अग्रिम जमानत का प्रावधान करती है, अधिनियम के तहत अपराध करने के आरोपी व्यक्ति की गिरफ्तारी से जुड़े किसी भी मामले के संबंध में लागू नहीं होगी। धारा 18-ए में प्रावधान है कि अधिनियम के तहत किसी भी व्यक्ति के खिलाफ एफआईआर दर्ज करने से पहले कोई प्रारंभिक जांच की आवश्यकता नहीं है, न ही किसी आरोपी की गिरफ्तारी के लिए मंजूरी की आवश्यकता है। इसके अतिरिक्त, संशोधन किसी भी अदालत के फैसले या निर्देश के बावजूद अधिनियम के तहत मामलों में सीआरपीसी की धारा 438 की अनुपयुक्तता पर फिर से जोर देता है।

    न्यायालय ने पृथ्वी राज चौहान बनाम भारत संघ के मामले में अपने फैसले का हवाला देते हुए कहा कि यदि कोई शिकायत अधिनियम के तहत प्रथम दृष्टया मामला स्थापित नहीं करती है तो धारा 18 और 18-ए (आई) द्वारा बनाया गया प्रतिबंध लागू नहीं होगा, जिससे अदालतों को आरोपी को गिरफ्तारी से पहले जमानत देने की अनुमति मिल जाएगी।

    विलास पांडुरंग पवार बनाम महाराष्ट्र राज्य मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अधिनियम, 1989 की धारा 18 सीआरपीसी की धारा 438 को लागू करने पर रोक लगाती है, लेकिन न्यायालयों को यह सत्यापित करना चाहिए कि अधिनियम के तहत प्रथम दृष्टया मामला बनता है या नहीं।

    न्यायालय ने कहा कि अधिनियम की धारा 18 के तहत "किसी व्यक्ति की गिरफ्तारी" की अभिव्यक्ति केवल उन मामलों में अग्रिम जमानत पर रोक लगाती है, जहां सीआरपीसी की धारा 60ए के साथ धारा 41 के तहत वैध गिरफ्तारी की जा सकती है।

    न्यायालय ने कहा,

    "यह कहा जा सकता है कि अधिनियम, 1989 की धारा 18 के तहत रोक केवल उन मामलों पर लागू होगी, जहां अधिनियम, 1989 के तहत अपराध किए जाने की ओर इशारा करने वाली प्रथम दृष्टया सामग्री मौजूद है। हम ऐसा इसलिए कहते हैं क्योंकि केवल तभी जब प्रथम दृष्टया मामला बनता है, तब सीआरपीसी की धारा 41 के तहत निर्धारित गिरफ्तारी-पूर्व आवश्यकताओं को पूरा किया जा सकता है।"

    न्यायालय ने कहा कि जब शिकायत या एफआईआर पढ़ने पर अधिनियम के तहत अपराध का गठन करने के लिए आवश्यक तत्व स्पष्ट नहीं होते हैं तो प्रथम दृष्टया कोई मामला अस्तित्व में नहीं आता है।

    न्यायालय ने कहा कि यदि शिकायत या एफआईआर में आरोपों को प्रथम दृष्टया पढ़ने पर अधिनियम के तहत अपराध का गठन करने के लिए आवश्यक तत्व प्रकट नहीं होते हैं तो अधिनियम की धारा 18 के तहत प्रतिबंध लागू नहीं होगा।

    न्यायालय ने इस बात पर जोर दिया कि यह एकमात्र ट्रायल हैस जिसे तब लागू किया जाना चाहिए जब कोई आरोपी अधिनियम के तहत अग्रिम जमानत मांगता है।

    न्यायालय ने कहा कि कोई आरोपी यह तर्क दे सकता है कि भले ही आरोपों में अधिनियम के तहत अपराध किए जाने का खुलासा हो, लेकिन अग्रिम जमानत की याचिका पर विचार किया जाना चाहिए। इस आधार पर कि एफआईआर या शिकायत राजनीतिक या निजी प्रतिशोध के कारण स्पष्ट रूप से झूठी है। हालांकि, ऐसे दावों को केवल हाईकोर्ट द्वारा सीआरपीसी की धारा 482 के तहत अपनी अंतर्निहित शक्तियों या संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत अपने असाधारण अधिकार क्षेत्र के तहत संबोधित किया जा सकता है।

    न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि यदि अपराध के लिए आवश्यक सभी तत्व शिकायत में मौजूद हैं तो आरोपी के लिए अग्रिम जमानत का उपाय उपलब्ध नहीं हो पाता है।

    न्यायालय ने आगे कहा कि किसी मामले के प्रथम दृष्टया अस्तित्व का निर्धारण करना न्यायालयों का कर्तव्य है।

    न्यायालय ने कहा,

    “मामले के प्रथम दृष्टया अस्तित्व का निर्धारण करने का कर्तव्य न्यायालयों पर डाला गया, जिससे यह सुनिश्चित किया जा सके कि अभियुक्त को अनावश्यक रूप से अपमानित न किया जाए। न्यायालयों को यह निर्धारित करने के लिए प्रारंभिक जांच करने से नहीं कतराना चाहिए कि शिकायत/एफआईआर में तथ्यों का वर्णन वास्तव में अधिनियम, 1989 के तहत अपराध का गठन करने के लिए आवश्यक आवश्यक तत्वों का खुलासा करता है या नहीं।”

    न्यायालय ने यह भी कहा कि न्यायालयों की यह भूमिका तब और भी महत्वपूर्ण हो जाती है, जब प्रथम दृष्टया निष्कर्ष अभियुक्त को अग्रिम जमानत मांगने से रोकता है, जो व्यक्तिगत स्वतंत्रता का एक महत्वपूर्ण पहलू है।

    न्यायालय ने यह भी कहा कि इंटरनेट और सोशल मीडिया के आगमन के साथ इसी तरह के मामले अधिक बार सामने आने की संभावना है। न्यायालय ने कहा कि ऐसा नहीं है कि अपीलकर्ता ने सार्वजनिक सभा में शिकायतकर्ता का अपमान किया हो या उसे अपमानित किया हो, जिसे स्थापित करने के लिए गवाहों के बयानों की आवश्यकता होगी। जिस आपत्तिजनक सामग्री पर शिकायत आधारित थी, वह सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर अपलोड होने के कारण पहले से ही सार्वजनिक डोमेन में उपलब्ध थी।

    केस टाइटल: शाजन स्कारिया बनाम केरल राज्य

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