सुप्रीम कोर्ट में BNS और BNSS प्रावधानों की वैधता को चुनौती
Shahadat
22 Nov 2024 9:07 AM IST
भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (BNSS) और भारतीय न्याय संहिता, 2023 (BNS) के विभिन्न प्रावधानों की संवैधानिक वैधता को चुनौती देते हुए सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की गई, जिन्होंने 1 जुलाई से दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) और भारतीय दंड संहिता, 1860 (IPC) की जगह ली।
याचिका में BNSस और BNSS के निम्नलिखित प्रावधानों को चुनौती दी गई-
- धारा 111 और 113, BNS- जो संगठित अपराध और आतंकवादी अधिनियम के अपराधों को पेश करती है। चुनौती का प्राथमिक आधार यह है कि उक्त अपराधों को बिना किसी प्रक्रियात्मक सुरक्षा उपायों के सामान्य दंड कानून में पेश किया गया, जैसा कि UAPA, MCOCA जैसे विशेष कानूनों के तहत निहित है। इस प्रकार, उक्त प्रावधान अनुच्छेद 14 और 21 का उल्लंघन करते हैं।
- धारा 152 BNS- याचिकाकर्ता का तर्क है कि यह प्रावधान IPC की धारा 124 ए के तहत राजद्रोह के अपराध को फिर से पेश करता है, जिसे डब्ल्यूपी (सी) नंबर 682/2021 में सुप्रीम कोर्ट के आदेश दिनांक 11.05.2022 के बाद से स्थगित रखा गया। यह तर्क दिया गया कि BNS की धारा 152 के तहत राजद्रोह के अपराध को नए अवतार में फिर से पेश करना भारत संघ द्वारा डब्ल्यूपी (सी) नंबर 682/2021 में दिए गए वचन की अवहेलना है, जिसमें कहा गया कि वह राजद्रोह के अपराध के संबंध में अपनी स्थिति पर पुनर्विचार कर रहा है। इसके अलावा, BNS की धारा 152 की भाषा अस्पष्ट और अतिव्यापक है। इस प्रकार, सत्तारूढ़ व्यवस्था के खिलाफ असंतोष को रोकने के लिए इसका दुरुपयोग किया जा सकता है। इसलिए BNS की धारा 152 को अनुच्छेद 14, 19 और 21 का उल्लंघन करने के कारण समाप्त किया जाना चाहिए।
- धारा 173(3) BNSS- यह तर्क दिया गया कि यह प्रावधान पुलिस को 3 साल से 7 साल तक की सजा वाली शिकायतों में प्रारंभिक जांच के आधार पर FIR दर्ज करने का असीमित अधिकार देता है। यह ललिता कुमारी बनाम उत्तर प्रदेश सरकार, (2014) 2 एससीसी 1 के सिद्धांत का उल्लंघन करता है, जिसमें कहा गया कि यदि सूचना से संज्ञेय अपराध का खुलासा होता है तो FIR अनिवार्य है।
- धारा 187(3) BNSS अधिकतम 15 दिनों की पुलिस हिरासत को समाप्त कर देता है। इस प्रकार पुलिस की ज्यादतियों के खिलाफ सुरक्षा उपायों और अनुच्छेद 21 के तहत विचाराधीन कैदी के अधिकार को समाप्त कर देता है।
- BNSS की धारा 223 शिकायत आधारित मामलों और FIR द्वारा शुरू किए गए मामलों के बीच भेदभावपूर्ण अंतर पैदा करती है, जिससे शिकायत आधारित मामलों में आरोपी को संबंधित मजिस्ट्रेट द्वारा अपराध के संज्ञान से पहले सुनवाई की अनुमति मिलती है।
यह याचिका BSF के रिटायर कमांडेंट आजाद सिंह कटारिया ने दायर की।
पिछले महीने मन्नारगुडी बार एसोसिएशन ने BNSS के कुछ प्रावधानों को चुनौती देते हुए सुप्रीम कोर्ट में एक रिट याचिका दायर की थी।