NDPS Act | जब्ती और सैंपल-ड्राविंग धारा 52ए के अनुसार विधिवत दर्ज हो तो ट्रायल में प्रतिबंधित पदार्थ का न होना घातक नहीं: सुप्रीम कोर्ट
Shahadat
16 Sept 2025 11:26 AM IST

सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में कहा कि स्वापक औषधि और मन:प्रभावी पदार्थ अधिनियम (NDPS Act) के तहत मामलों में अभियोजन पक्ष का मामला केवल इसलिए विफल नहीं हो जाता, क्योंकि जब्त प्रतिबंधित पदार्थ अदालत में पेश नहीं किया गया, बशर्ते कि सूची और सैंपल-ड्राविंग रिकॉर्ड विधिवत तैयार किए गए हों और NDPS Act की धारा 52ए के अनुपालन में रिकॉर्ड में दर्ज किए गए हों।
जस्टिस मनोज मिश्रा और जस्टिस उज्जल भुइयां की खंडपीठ ने बॉम्बे हाईकोर्ट की नागपुर पीठ का वह आदेश रद्द कर दिया, जिसमें NDPS मामले में केवल इस आधार पर पुनर्विचार का निर्देश दिया गया था कि जब्त प्रतिबंधित पदार्थ निचली अदालत में पेश नहीं किया गया।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि न्याय की विफलता को रोकने के लिए केवल असाधारण परिस्थितियों में ही पुन: सुनवाई का आदेश दिया जा सकता है, जहां साक्ष्य अधिनियम की धारा 65बी के तहत विधिवत प्रमाणित इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्य, सूची तैयार करने के अभिलेखों के साथ पहले ही अभिलेख में प्रस्तुत किए जा चुके हैं, वहां प्रतिबंधित सामग्री प्रस्तुत न करना इस प्रक्रिया को उचित नहीं ठहरा सकता।
अदालत ने कहा,
“यदि जब्त की गई सामग्री, उससे सैंपल लेने और जब्त सामग्री से लिए गए सैंपल से संबंधित FSL रिपोर्ट के संबंध में विश्वसनीय साक्ष्य उपलब्ध हों तो मुकदमे के दौरान जब्त की गई प्रतिबंधित सामग्री को प्रस्तुत न करना घातक नहीं हो सकता। हालांकि, यह सुनिश्चित करने के लिए कि जब्त की गई प्रतिबंधित सामग्री प्रस्तुत न करने के कारण अभियोजन पक्ष के विरुद्ध कोई प्रतिकूल निष्कर्ष न निकाला जाए, धारा 52-ए के प्रावधानों के अनुसार तैयार किए गए दस्तावेज़, जिनमें जब्त की गई प्रतिबंधित सामग्री की सूची तैयार करने और उससे नमूने लेने के साक्ष्य शामिल हैं, अभिलेख में प्रस्तुत किए जाने चाहिए।”
यह मामला समन्वित छापों से उत्पन्न हुआ, जिसमें पुलिस ने दो स्थानों से लगभग 147 किलोग्राम गांजा जब्त किया। ट्रायल कोर्ट ने अपीलकर्ता समेत दो अभियुक्तों को दोषी ठहराया और दो अन्य को बरी कर दिया। हालांकि, अपील पर गुजरात हाईकोर्ट ने दोषसिद्धि रद्द की और पुनः सुनवाई का आदेश दिया, जिसमें प्रक्रियागत खामियों का हवाला दिया गया, जैसे - गवाहों की गवाही के दौरान अदालत में छापे का वीडियो न चलाना, रासायनिक परीक्षक से पूछताछ न करना और अदालत में भारी मात्रा में प्रतिबंधित सामग्री पेश न करना।
हाईकोर्ट के तर्क से असहमत होते हुए जस्टिस मनोज मिश्रा द्वारा लिखे गए फैसले में कहा गया कि यदि NDPS Act की धारा 52ए के तहत सूची, सीलबंद सैंपल और FSL रिपोर्ट विधिवत तैयार की गई हों तो जब्त की गई पूरी प्रतिबंधित सामग्री पेश न करना स्वतः ही घातक नहीं है।
अदालत ने कहा कि सुनवाई के रिकॉर्ड से पता चलता है कि पूरी जब्ती प्रक्रिया का उचित दस्तावेजीकरण किया गया, जिससे जब्ती और फोरेंसिक परिणामों के बीच स्पष्ट संबंध स्थापित होता है। इसलिए अदालत में इसकी अनुपस्थिति अभियोजन पक्ष के मामले के लिए घातक नहीं थी।
अदालत ने कहा,
"उपरोक्त साक्ष्यों से प्रथम दृष्टया, यह संकेत मिलता है कि ज़ब्त किया गया प्रतिबंधित सामान सूची तैयार करने के लिए सीलबंद अवस्था में भेजा गया। इसके बाद सूची तैयार की गई, सैंपल लिए गए और सीलबंद किए गए। नमूनों को सीलबंद अवस्था में FSL भेजा गया, जहां सील बरकरार पाई गई।"
मामले में जितेंद्र एवं अन्य बनाम मध्य प्रदेश राज्य (2004) 10 एससीसी 562, राजस्थान राज्य बनाम सहीराम (2019) 10 एससीसी 649 आदि का संदर्भ दिया गया।
इसके अलावा, अदालत ने स्पष्ट किया,
एक बार साक्ष्य अधिनियम की धारा 65बी(4) के तहत इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्य प्रमाणित हो जाने के बाद वह साक्ष्य के रूप में स्वीकार्य है। यह आवश्यक नहीं है कि साक्ष्य प्रत्येक गवाह को दिया जाए। अदालत ने आगे कहा कि यदि स्पष्टीकरण की आवश्यकता होती तो अपीलीय अदालत नए सिरे से सुनवाई का आदेश देने के बजाय CrPC की धारा 391 के तहत गवाहों को वापस बुला सकती है या और साक्ष्य स्वीकार कर सकती है।
हालांकि, हाईकोर्ट ने पाया कि संबंधित गवाह का बयान दर्ज करते समय प्रतिनिधि सैंपल अदालत के समक्ष नहीं खोला गया। बहरहाल, यह पुनर्विचार का निर्देश देने का आधार नहीं है, क्योंकि अपीलीय कोर्ट को CrPC की धारा 391 के तहत अतिरिक्त साक्ष्य लेने का अधिकार है, जिसका प्रयोग, अन्य बातों के अलावा, अदालत के अभिलेख में पहले से मौजूद किसी दस्तावेज़ या सामग्री को प्रदर्शित करने के लिए किया जा सकता है। यदि ये दोष अभियोजन पक्ष के लिए घातक हैं तो अपीलीय कोर्ट मामले के तथ्यों के आधार पर अपना निर्णय लेने के लिए स्वतंत्र है। हालांकि, किसी भी स्थिति में यह पुनर्विचार का निर्देश देने का आधार नहीं हो सकता।"
तदनुसार, अपील स्वीकार कर ली गई और मामले को छह महीने के भीतर नए सिरे से निर्णय के लिए हाईकोर्ट को भेजने का निर्देश दिया गया।

