NDPS Act - वाणिज्यिक मात्रा में मादक पदार्थों के मामलों में धारा 37 की शर्तें पूरी न होने पर लंबी हिरासत और ट्रायल में देरी ज़मानत का आधार नहीं: सुप्रीम कोर्ट
Shahadat
14 Nov 2025 1:33 AM IST

सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को कहा कि NDPS Act की धारा 37 के तहत अनिवार्य दोहरी शर्तों के पूरा न होने पर, मादक पदार्थों की वाणिज्यिक मात्रा से जुड़े मामलों में मुकदमे में देरी या लंबी कैद अपने आप में ज़मानत देने का औचित्य नहीं ठहरा सकती। कोर्ट ने बॉम्बे हाईकोर्ट के दो आदेशों को रद्द कर दिया, जिनमें राजस्व खुफिया निदेशालय (DRI) द्वारा जांच की गई कोकीन और मेथामफेटामाइन की बड़ी ज़ब्ती के आरोपी विगिन के. वर्गीस को ज़मानत दी गई।
जस्टिस अरविंद कुमार और जस्टिस एन. वी. अंजारिया की खंडपीठ ने मामले को नए सिरे से विचार के लिए हाईकोर्ट को भेज दिया।
मामले की पृष्ठभूमि
अभियोजन पक्ष के अनुसार, DRI ने 6-7 अक्टूबर, 2022 को दक्षिण अफ्रीका से आयातित एक रेफ्रिजरेटेड कंटेनर से 50.232 किलोग्राम कोकीन ज़ब्त की, जो एक ऐसी कंपनी के नाम पर थी जिसके वर्गीस निदेशक हैं। कथित तौर पर यह प्रतिबंधित माल घोषित माल के साथ मिश्रित हरे सेबों के डिब्बों के अंदर छिपाया गया था।
संघ ने 2 अक्टूबर, 2022 को पहले हुई एक ज़ब्ती पर भी प्रकाश डाला, जिसमें 198.1 किलोग्राम मेथामफेटामाइन और 9.035 किलोग्राम कोकीन शामिल थे, जो कथित तौर पर उसी नेटवर्क से जुड़े थे।
अभियोजन पक्ष ने NDPS Act की धारा 67 के तहत दर्ज बयानों का हवाला देते हुए दावा किया कि वर्गीस ने आयात का समन्वय किया, एक विदेशी सहयोगी के साथ संपर्क किया और रसद की निगरानी की।
हाईकोर्ट ने अनिवार्य वैधानिक सीमा की अनदेखी की
सुप्रीम कोर्ट ने माना कि हाईकोर्ट ने महत्वपूर्ण सामग्री पर विचार किए बिना और यह अनिवार्य संतुष्टि दर्ज किए बिना ज़मानत दी:
1. यह मानने के उचित आधार हैं कि अभियुक्त दोषी नहीं है।
2. ज़मानत पर रहते हुए उसके द्वारा कोई अपराध करने की संभावना नहीं है।
जैसा कि धारा 37(1)(बी) के तहत आवश्यक है।
हाईकोर्ट ने मुख्यतः लंबी हिरासत, मुकदमे में संभावित देरी, पूर्ववृत्त के अभाव और ज्ञान के प्रत्यक्ष प्रमाण के अभाव पर भरोसा किया। सुप्रीम कोर्ट ने वाणिज्यिक मात्रा से जुड़े NDPS मामलों में इस दृष्टिकोण को कानूनी रूप से अव्यावहारिक पाया।
आगे कहा गया,
“तत्पश्चात्, हाईकोर्ट ने इन आधारों के आधार पर यह निष्कर्ष दर्ज किया कि यह मानने के उचित आधार मौजूद हैं कि आवेदक कथित अपराध का दोषी नहीं है। लंबी कैद और संभावित देरी को जमानत का औचित्य माना। ऐसा निष्कर्ष कोई आकस्मिक अवलोकन नहीं है। धारा 37(1)(बी)(ii) के तहत यह वैधानिक सीमा है, जो विवेकाधीन राहत के अधिकार को समाप्त करती है और जमानत प्रदान करना अनिवार्य रूप से उपलब्ध सामग्री के सावधानीपूर्वक मूल्यांकन पर आधारित होना चाहिए। इस प्रकार का निष्कर्ष, यदि अभियोजन पक्ष के सक्रिय नियंत्रण और पूर्ववर्ती संलिप्तता के दावों पर विचार किए बिना दिया जाता है तो ऐसे साक्ष्य के मूल्यांकन में बाधा उत्पन्न होने का जोखिम होता है, जो प्रथम दृष्टया निचली अदालत के अधिकार क्षेत्र में होगा।
यह कोर्ट सामान्यतः जमानत प्रदान करने पर विचार करते समय हाईकोर्ट द्वारा प्रयोग किए गए विवेकाधिकार का सम्मान करता है। हालांकि, मादक दवाओं की व्यावसायिक मात्रा से जुड़े अपराध एक अलग वैधानिक आधार पर आते हैं। धारा 37 जमानत प्रदान करने पर एक विशिष्ट प्रतिबंध लगाती है और कोर्ट को संतुष्टि दर्ज करने के लिए बाध्य करती है। दंड प्रक्रिया संहिता के तहत सामान्य परीक्षणों के अतिरिक्त, ऊपर उल्लिखित दोहरी आवश्यकताओं पर भी विचार किया जाएगा।”
यह मानते हुए कि हाईकोर्ट ने अभियोजन पक्ष के अभियुक्त की पूर्व संलिप्तता और प्रमुख अपराधिक परिस्थितियों के दावे को नज़रअंदाज़ किया था, सुप्रीम कोर्ट ने ज़मानत आदेश रद्द कर दिया।
मामला हाईकोर्ट को भेज दिया गया, जिसे धारा 37 के अनुसार ज़मानत याचिका पर पुनर्विचार करना होगा और चार हफ़्तों के भीतर एक तर्कसंगत आदेश पारित करना होगा।
एक अंतरिम उपाय के रूप में वर्गीज़ उन्हीं शर्तों के तहत ज़मानत पर तब तक बने रहेंगे, जब तक कि हाईकोर्ट अपना नया निर्णय नहीं सुना देता। किसी भी उल्लंघन से अभियोजन पक्ष को तत्काल रद्दीकरण की मांग करने का अधिकार मिल जाएगा।
सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि उसने मामले के गुण-दोष पर कोई राय व्यक्त नहीं की।
Case : Union of India v. Vigin K Varghese

