सिर्फ आरोपी के द्वारा दिए आश्वासन के आधार पर जमानत न दें : सुप्रीम कोर्ट का हाईकोर्ट व ट्रायल कोर्ट को निर्देश
Shahadat
31 July 2025 2:57 PM IST

सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में अभियुक्त द्वारा ₹25 लाख जमा करने के वचन के आधार पर ज़मानत देने का आदेश अस्वीकृत कर दिया। इस बात पर ज़ोर दिया कि ज़मानत मामले के गुण-दोष के आधार पर दी जानी चाहिए, न कि अभियुक्त द्वारा दिए गए आश्वासनों के आधार पर।
न्यायालय ने हाईकोर्ट और निचली अदालतों को सामान्य निर्देश दिया कि वे नियमित ज़मानत या अग्रिम ज़मानत की याचिका पर मामले के गुण-दोष के आधार पर ही निर्णय लें, न कि आवेदक या उसके परिवार के सदस्य द्वारा किसी विशेष राशि जमा करने के वचन के आधार पर ज़मानत देने के लिए अपने विवेक का प्रयोग करें।
आगे कहा गया,
"इस आदेश द्वारा हम यह स्पष्ट करते हैं। वह भी निर्देशों के रूप में, कि अब से कोई भी निचली अदालत या कोई भी हाईकोर्ट, अभियुक्त द्वारा उचित राहत प्राप्त करने के उद्देश्य से दिए गए किसी भी वचन के आधार पर नियमित ज़मानत या अग्रिम ज़मानत देने का कोई आदेश पारित नहीं करेगा।"
न्यायालय ने कहा,
"हाईकोर्ट के साथ-साथ निचली अदालतें भी नियमित ज़मानत या अग्रिम ज़मानत की याचिका पर मामले के गुण-दोष के आधार पर ही निर्णय लेंगी। हाईकोर्ट और निचली अदालतें इस संबंध में अभियुक्त द्वारा दिए गए किसी भी वचन या बयान पर अपने विवेक का प्रयोग नहीं करेंगी।"
न्यायालय ने रजिस्ट्री को निर्देश दिया कि इस आदेश की एक-एक प्रति सभी हाईकोर्ट्स को यथाशीघ्र वितरित की जाए।
जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस आर महादेवन की खंडपीठ ने यह निर्देश ₹1.6 करोड़ की हेराफेरी से जुड़े मामले से संबंधित अपील पर निर्णय लेते हुए दिया, जिसमें अपीलकर्ता गजानन दत्तात्रेय गोरे ने विवादित राशि का कुछ हिस्सा जमा करने का वादा करते हुए हलफनामा दायर करके ज़मानत हासिल की थी। हालांकि, रिहाई के बाद उन्होंने भुगतान करने से इनकार कर दिया, जिसके बाद हाईकोर्ट ने उनकी ज़मानत रद्द कर दी।
हाईकोर्ट द्वारा ज़मानत रद्द करने के फैसले से व्यथित होकर अपीलकर्ता ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया।
हालांकि, जस्टिस पारदीवाला द्वारा लिखे गए आदेश ने हाईकोर्ट द्वारा ज़मानत रद्द करने का फैसला बरकरार रखा, लेकिन धन जमा करने के आधार पर ज़मानत देने की प्रथा की कड़ी आलोचना की और इसे "कठोर" और अनुचित बताया।
अदालत ने आगे कहा,
"इस प्रथा को रोकना होगा। मुक़दमेबाज़ अदालतों को बेवकूफ़ बना रहे हैं। इस तरह अदालत की गरिमा और सम्मान को ठेस पहुंचा रहे हैं... हमें उम्मीद और भरोसा है कि देश भर के हाईकोर्ट के साथ-साथ निचली अदालतें भी ऐसी गलती दोबारा नहीं दोहराएंगी।"
अदालत ने अपीलकर्ता के विरोधाभासी आचरण पर भी नाराज़गी जताई और न्यायपालिका को गुमराह करने की कोशिश के लिए ₹50,000 का जुर्माना लगाया। उसने शुरुआत में ज़मानत के लिए राशि जमा करने पर सहमति जताई, लेकिन बाद में शर्त को कठिन बताते हुए मुकर गया। इसके अलावा, अदालत ने भुगतान की शर्त पूरी हुई या नहीं, इसकी पुष्टि किए बिना अपीलकर्ता को रिहा करने के हाईकोर्ट के फैसले पर भी सवाल उठाया।
अदालत ने कहा,
"अपीलकर्ता ने न्याय का मज़ाक उड़ाया है। कहा जा सकता है कि उसने क़ानूनी प्रक्रिया का दुरुपयोग किया। अगर हाईकोर्ट अपीलकर्ता को ज़मानत पर रिहा करना ही चाहता था तो उसे पहले उसे एक निश्चित समयावधि में ज़मानत राशि जमा करने के लिए कहना चाहिए था और इस राशि जमा करने पर अपीलकर्ता को रिहा किया जा सकता था।"
सभी हाईकोर्ट को चेतावनी देते हुए अदालत ने कहा,
"जैसा भी हो, अब हमने खुद को पूरी तरह स्पष्ट कर दिया कि किसी भी अभियुक्त या उसके परिवार के सदस्यों द्वारा निश्चित राशि जमा करने के वचन के आधार पर हाईकोर्ट और ट्रायल कोर्ट नियमित जमानत या अग्रिम जमानत देने के लिए एक भी आदेश पारित नहीं करेंगे। याचिका पर कानून के अनुसार योग्यता के आधार पर सख्ती से फैसला किया जाएगा। यदि मामला योग्यता के आधार पर बनता है तो अदालत अपने विवेक का प्रयोग कर सकती है। यदि कोई मामला योग्यता के आधार पर नहीं बनता है तो अदालत नियमित जमानत या अग्रिम जमानत की याचिका को खारिज कर सकती है, जैसा भी मामला हो। हालांकि, किसी भी परिस्थिति में हाईकोर्ट या ट्रायल कोर्ट नियमित जमानत या अग्रिम जमानत का सशर्त आदेश पारित नहीं करेंगे।"
Cause Title: GAJANAN DATTATRAY GORE VERSUS THE STATE OF MAHARASHTRA & ANR.

