संविधान के अनुच्छेद 21 और धारा 313 CrPC के तहत निष्पक्ष सुनवाई का अधिकार
Himanshu Mishra
15 Feb 2025 12:57 PM

सुप्रीम कोर्ट ने जय प्रकाश तिवारी बनाम मध्य प्रदेश राज्य (2022) मामले में निष्पक्ष सुनवाई (Fair Trial) और धारा 313 दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) के महत्व पर विचार किया। यह धारा आरोपी को मौका देती है कि वह अपने खिलाफ पेश किए गए सबूतों (Evidence) पर सफाई दे सके।
इस फैसले में न्यायालय ने जांच की कि क्या इस कानूनी प्रक्रिया का सही से पालन न करने से आरोपी को नुकसान (Prejudice) हुआ। यह लेख इस केस में उठाए गए प्रमुख कानूनी मुद्दों पर चर्चा करेगा, खासकर धारा 313 CrPC की भूमिका पर, जो कि न्याय दिलाने के लिए बहुत जरूरी है।
धारा 313 CrPC: सफाई देने का अधिकार (Right to Explain)
धारा 313 CrPC यह सुनिश्चित करती है कि अभियोजन पक्ष (Prosecution) द्वारा पेश किए गए सभी सबूतों (Evidence) को आरोपी के सामने स्पष्ट रूप से रखा जाए और उसे सफाई देने का अवसर मिले। इस धारा का उद्देश्य प्राकृतिक न्याय (Natural Justice) के सिद्धांतों को लागू करना है, जिससे आरोपी को अपना पक्ष रखने का पूरा मौका मिल सके।
सुप्रीम कोर्ट ने रीना हजारिका बनाम असम राज्य (2019) मामले में कहा था कि यदि धारा 313 CrPC के तहत आरोपी को सही से सफाई देने का अवसर नहीं दिया गया, तो यह उसके लिए गंभीर नुकसानदायक हो सकता है।
इसी तरह, सतबीर सिंह बनाम हरियाणा राज्य (2021) में सुप्रीम कोर्ट ने चेतावनी दी थी कि धारा 313 को केवल औपचारिकता (Formality) के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए, बल्कि अदालत को सावधानीपूर्वक और स्पष्ट प्रश्न पूछने चाहिए ताकि आरोपी अपनी स्थिति ठीक से समझा सके।
संविधान का अनुच्छेद 21 और कानूनी सुरक्षा (Article 21 and Legal Protection)
निष्पक्ष सुनवाई (Fair Trial) भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत एक मौलिक अधिकार (Fundamental Right) है, जो हर व्यक्ति को जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता (Personal Liberty) का अधिकार देता है।
सुप्रीम कोर्ट ने जय प्रकाश तिवारी मामले में कहा कि धारा 313 CrPC केवल एक कानूनी प्रावधान (Statutory Provision) नहीं है, बल्कि यह एक संवैधानिक सुरक्षा (Constitutional Safeguard) भी है ताकि किसी निर्दोष व्यक्ति को गलत तरीके से दोषी न ठहराया जाए। यदि आरोपी को अपनी सफाई देने का उचित अवसर नहीं दिया जाता, तो यह उसके मौलिक अधिकार (Fundamental Right) का उल्लंघन (Violation) होगा।
सबूतों का भार (Burden of Proof) और बचाव का अधिकार (Right to Defense)
किसी भी आपराधिक मामले (Criminal Case) में दोष सिद्ध करने की पूरी जिम्मेदारी अभियोजन पक्ष (Prosecution) पर होती है। यदि आरोपी अपने पक्ष में कोई सफाई या वैकल्पिक कहानी (Alternative Explanation) प्रस्तुत करता है, तो उसे इसे पूरी तरह से सिद्ध करने की जरूरत नहीं होती। उसे केवल "संभावनाओं के संतुलन" (Preponderance of Probabilities) के आधार पर इसे स्थापित करना होता है।
सुप्रीम कोर्ट ने एम. अब्बास बनाम केरल राज्य (2001) मामले में कहा था कि अगर आरोपी कोई संभावित बचाव प्रस्तुत करता है, तो अभियोजन पक्ष पर यह जिम्मेदारी होती है कि वह इसे गलत साबित करे। इसी तरह परमिंदर कौर बनाम पंजाब राज्य (2020) मामले में अदालत ने कहा कि अगर आरोपी कोई मजबूत बचाव पेश करता है, तो अदालत को इसे हल्के में नहीं लेना चाहिए, बल्कि सावधानी से इसकी जांच करनी चाहिए।
इस मामले में, आरोपी ने दावा किया कि वह घटना के समय अपने गांव में था और उसने दो गवाह (Witnesses) भी पेश किए, जिन्होंने इस तथ्य की पुष्टि की। लेकिन निचली अदालतों (Lower Courts) ने बिना किसी ठोस कारण के इस बचाव (Defense) को खारिज कर दिया। सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसले को त्रुटिपूर्ण (Flawed) माना और दोहराया कि अदालतों को आरोपी के बचाव का ठीक से विश्लेषण करना चाहिए।
गवाहों की विश्वसनीयता (Reliability of Witnesses) पर विचार
इस मामले में एक महत्वपूर्ण मुद्दा यह था कि अभियोजन पक्ष ने गवाहों (Witnesses) के बयानों पर अत्यधिक निर्भरता दिखाई, खासकर उन गवाहों पर जो पीड़ित (Complainant) के करीबी रिश्तेदार थे। शिकायतकर्ता (Complainant) की माँ मुख्य गवाह थी, लेकिन उनके बयान में कई विसंगतियां (Inconsistencies) थीं।
पहले उन्होंने कहा कि वह घटना के समय अपने बेटे के साथ बाहर गई थीं और उन्होंने आरोपी को देखा था, लेकिन बाद में उन्होंने कहा कि वह केवल गोली चलने की आवाज सुनकर बाहर आई थीं।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि भले ही कोई करीबी रिश्तेदार गवाह हो, इसका मतलब यह नहीं कि उसका बयान हमेशा संदेहास्पद (Doubtful) होगा। लेकिन ऐसे गवाहों के बयानों की गहराई से जांच होनी चाहिए, जैसा कि भास्करराव बनाम महाराष्ट्र राज्य (2018) और राजस्थान राज्य बनाम मदन (2019) मामलों में स्पष्ट किया गया था।
अदालत ने यह भी पाया कि स्वतंत्र गवाहों (Independent Witnesses) के बयानों में भी गंभीर विरोधाभास (Contradictions) थे। कुछ गवाहों ने पुलिस द्वारा जब्त (Seized) किए गए हथियार (Weapon) को देखने से इनकार कर दिया, जबकि कुछ अन्य गवाहों ने विरोधाभासी बयान दिए। इन विरोधाभासों को देखते हुए, सुप्रीम कोर्ट ने अभियोजन पक्ष की कहानी को संदेहास्पद माना।
साक्ष्यों की समीक्षा का महत्व (Importance of Evidence Evaluation)
अदालत ने यह भी कहा कि अदालतों को सबूतों (Evidence) का सावधानीपूर्वक मूल्यांकन करना चाहिए और सिर्फ अटकलों (Conjectures) के आधार पर किसी को दोषी नहीं ठहराना चाहिए। इस मामले में अभियोजन पक्ष ने दावा किया कि आरोपी के पास से मोटरसाइकिल और देसी कट्टा (Country-made Pistol) बरामद किया गया। लेकिन कोई बैलिस्टिक रिपोर्ट (Ballistic Report) नहीं थी जो इस कट्टे को घटना से जोड़ सके।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि जब किसी अपराध में इस्तेमाल किए गए हथियार की फॉरेंसिक जांच (Forensic Examination) नहीं की जाती, तो केवल हथियार बरामद होने से आरोपी को दोषी नहीं ठहराया जा सकता। अदालत ने अशरफ अली बनाम असम राज्य (2008) का हवाला दिया, जिसमें कहा गया था कि जब तक बरामद हथियार को वैज्ञानिक प्रमाणों (Scientific Evidence) से अपराध से नहीं जोड़ा जाता, तब तक केवल हथियार मिलने से आरोपी को दोषी नहीं माना जा सकता।
अंतिम निर्णय (Final Ruling) और सुप्रीम कोर्ट का फैसला
सभी तथ्यों और परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए, सुप्रीम कोर्ट ने आरोपी की सजा को रद्द (Overturn) कर दिया। अदालत ने कहा कि धारा 313 CrPC का सही से पालन नहीं किया गया और अभियोजन पक्ष आरोपी की दोषसिद्धि (Conviction) को संदेह से परे साबित नहीं कर सका।
सुप्रीम कोर्ट ने आरोपी को तत्काल रिहा (Release) करने का आदेश दिया और कहा कि आपराधिक मामलों में निष्पक्ष सुनवाई (Fair Trial) सुनिश्चित करना अदालत का कर्तव्य है।
जय प्रकाश तिवारी मामला इस बात का महत्वपूर्ण उदाहरण है कि आपराधिक मामलों में कानूनी प्रक्रियाओं (Legal Procedures) का सख्ती से पालन क्यों जरूरी है।
यह फैसला दोबारा याद दिलाता है कि धारा 313 CrPC केवल एक औपचारिकता (Formality) नहीं, बल्कि न्याय का एक अनिवार्य हिस्सा है। अदालतों को चाहिए कि वे सबूतों (Evidence) का सही से विश्लेषण करें, गवाहों के बयानों को सावधानी से परखें, और यह सुनिश्चित करें कि आरोपी को अपनी सफाई देने का पूरा मौका मिले।
सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में अभियोजन पक्ष की कमजोरियों को उजागर करते हुए फिर से न्याय के बुनियादी सिद्धांतों (Basic Principles of Justice) की पुष्टि की।