न्यायिक और कार्यपालक मजिस्ट्रेटों की स्थानांतरण और वापसी की शक्तियाँ: BNSS 2023 की धारा 450, 451 और 452

Himanshu Mishra

8 May 2025 10:15 PM IST

  • न्यायिक और कार्यपालक मजिस्ट्रेटों की स्थानांतरण और वापसी की शक्तियाँ: BNSS 2023 की धारा 450, 451 और 452

    भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 ने भारत में दंड प्रक्रिया से संबंधित पुराने कानून, यानी भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की जगह ली है। नई संहिता में प्रक्रिया को अधिक व्यावहारिक, तर्कसंगत और न्यायोचित बनाने की दिशा में अनेक बदलाव किए गए हैं।

    अध्याय XXXIII इस संहिता में स्थानांतरण (transfer) से संबंधित प्रावधानों को समाहित करता है। इस अध्याय की धारा 446 से लेकर 452 तक विभिन्न स्तरों के न्यायालयों को शक्तियाँ प्रदान की गई हैं ताकि न्यायिक और कार्यपालक मजिस्ट्रेट अपने अधीनस्थ न्यायालयों को सौंपे गए मामलों को नियंत्रित, स्थानांतरित या वापस ले सकें।

    धारा 450 और 451 क्रमशः न्यायिक और कार्यपालक मजिस्ट्रेटों को यह अधिकार देती हैं कि वे किसी मामले को अपने अधीनस्थ मजिस्ट्रेटों को सौंपें या फिर वापस लें। वहीं धारा 452 यह सुनिश्चित करती है कि जब भी इस प्रकार का कोई आदेश पारित किया जाए, तो उसका कारण स्पष्ट रूप से दर्ज किया जाए।

    अब हम इन धाराओं को विस्तार से, सरल हिंदी में समझेंगे।

    धारा 450 – न्यायिक मजिस्ट्रेटों द्वारा मामलों को वापस लेना

    धारा 450 न्यायिक मजिस्ट्रेटों को अधिकार देती है कि वे अपने द्वारा सौंपे गए मामलों को वापस ले सकें और आवश्यकतानुसार स्वयं उसकी जांच या विचारण कर सकें।

    इस धारा में दो उपखंड हैं।

    धारा 450(1) – मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट की शक्ति

    इस उपखंड के अनुसार, कोई भी मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट किसी भी मामले को, जिसे उसने अपने अधीनस्थ किसी अन्य मजिस्ट्रेट को सौंपा हो, वापस ले सकता है। इसके अलावा वह उस मामले की खुद जांच या सुनवाई कर सकता है, या किसी अन्य ऐसे मजिस्ट्रेट को सौंप सकता है जो उस मामले की सुनवाई या जांच करने के लिए सक्षम हो।

    यह प्रावधान मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट को एक प्रशासनिक नियंत्रण की शक्ति प्रदान करता है, जिससे वह यह सुनिश्चित कर सके कि अधीनस्थ न्यायालयों में मामलों का न्यायोचित तरीके से निपटारा हो रहा है। यदि कोई कारण उत्पन्न हो जाए जिससे लगे कि मामला किसी अन्य न्यायालय में भेजा जाना उचित होगा, तो वह इसे वापस लेकर दोबारा सौंप सकता है।

    उदाहरण के लिए, यदि मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट ने एक संपत्ति विवाद का मामला प्रथम श्रेणी न्यायिक मजिस्ट्रेट को सौंपा था, लेकिन बाद में उन्हें जानकारी मिली कि संबंधित मजिस्ट्रेट के सामने पक्षकारों में से एक का पारिवारिक सदस्य कार्यरत है, तो निष्पक्षता बनाए रखने हेतु वे मामला वापस लेकर किसी अन्य मजिस्ट्रेट को सौंप सकते हैं या स्वयं सुनवाई कर सकते हैं।

    धारा 450(2) – किसी न्यायिक मजिस्ट्रेट की शक्ति

    यह उपखंड न्यायिक मजिस्ट्रेटों को यह शक्ति देता है कि वे उस मामले को वापस ले सकें जिसे उन्होंने भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 212(2) के तहत किसी अन्य मजिस्ट्रेट को सौंपा था।

    धारा 212(2) के अनुसार, कोई मजिस्ट्रेट उस मामले को, जिसे वह स्वयं नहीं सुन सकता या जिससे संबंधित कोई विशेष कारण है, किसी अन्य सक्षम मजिस्ट्रेट को सौंप सकता है। लेकिन धारा 450(2) के अनुसार, यदि आवश्यकता हो तो वह मामला पुनः वापस लेकर स्वयं जांच या विचारण कर सकता है।

    यह प्रावधान न्यायिक प्रक्रिया में लचीलापन देता है और न्यायिक विवेकाधिकार को मजबूत बनाता है।

    धारा 451 – कार्यपालक मजिस्ट्रेटों द्वारा मामलों का सौंपना और वापस लेना

    धारा 451 कार्यपालक मजिस्ट्रेटों को शक्तियाँ देती है। यह धारा विशेष रूप से जिलाधिकारी (District Magistrate) और उप-मंडलीय मजिस्ट्रेट (Sub-divisional Magistrate) के अधिकारों से संबंधित है।

    इस धारा के अनुसार, जिलाधिकारी या उप-मंडलीय मजिस्ट्रेट दो कार्य कर सकते हैं।

    पहला, वे अपने समक्ष लंबित किसी कार्यवाही को अपने अधीनस्थ किसी मजिस्ट्रेट को निपटाने के लिए सौंप सकते हैं।

    दूसरा, वे उस मामले को वापस ले सकते हैं जिसे उन्होंने किसी अधीनस्थ मजिस्ट्रेट को सौंपा था, और फिर उस मामले को या तो स्वयं निपटा सकते हैं या किसी अन्य उपयुक्त मजिस्ट्रेट को सौंप सकते हैं।

    यह प्रावधान कार्यपालक मजिस्ट्रेटों को एक व्यापक प्रशासनिक नियंत्रण देता है, जिससे वे यह सुनिश्चित कर सकें कि कार्यवाहियाँ दक्षतापूर्वक, निष्पक्ष रूप से और समयबद्ध ढंग से पूरी हो रही हैं।

    उदाहरण के रूप में, यदि किसी धारा 133 (सार्वजनिक उपद्रव हटाने से संबंधित) की कार्यवाही जिलाधिकारी के समक्ष प्रारंभ हुई थी और उन्होंने वह कार्यवाही किसी अन्य मजिस्ट्रेट को सौंप दी, लेकिन बाद में उन्हें प्रतीत होता है कि मामला संवेदनशील है और बेहतर होगा यदि वह स्वयं उस पर सुनवाई करें, तो वे उसे वापस ले सकते हैं।

    इसी प्रकार, यदि उप-मंडलीय मजिस्ट्रेट किसी धारा 145 (भूमि विवाद) की कार्यवाही किसी मजिस्ट्रेट को सौंपते हैं लेकिन आगे चलकर कोई प्रशासनिक या कानूनी जटिलता उत्पन्न होती है, तो वे उसे वापस लेकर स्वयं निर्णय कर सकते हैं।

    धारा 452 – आदेश देने का कारण दर्ज करना आवश्यक

    धारा 452 यह स्पष्ट करती है कि जब भी कोई सत्र न्यायाधीश, मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट, अन्य न्यायिक मजिस्ट्रेट, जिलाधिकारी या उप-मंडलीय मजिस्ट्रेट धारा 448, 449, 450 या 451 के अंतर्गत कोई आदेश पारित करते हैं, तो उन्हें उस आदेश का कारण स्पष्ट रूप से दर्ज करना अनिवार्य है।

    इसका उद्देश्य पारदर्शिता बनाए रखना और यह सुनिश्चित करना है कि न्यायिक या प्रशासनिक निर्णय मनमाना न हो। प्रत्येक स्थानांतरण या वापसी का कोई न कोई तार्किक कारण अवश्य होना चाहिए, और उसे न्यायालय की कार्यवाही में दर्ज किया जाना आवश्यक है।

    इसका व्यावहारिक महत्व यह है कि यदि कोई पक्ष उस आदेश के खिलाफ अपील करना चाहे, तो उसके पास यह जानने का आधार हो कि वह आदेश किस कारण से पारित किया गया था।

    पूर्ववर्ती प्रासंगिक धाराएँ जिनका संदर्भ आवश्यक है

    इन धाराओं को ठीक से समझने के लिए कुछ अन्य पूर्ववर्ती धाराओं को भी जानना ज़रूरी है।

    धारा 212 में यह प्रावधान है कि मजिस्ट्रेट, किसी विशेष परिस्थिति में, कोई मामला किसी अन्य मजिस्ट्रेट को सौंप सकता है। यह धारा 450 के उपखंड (2) का आधार है।

    धारा 446, 447, 448 और 449 में क्रमशः उच्चतम न्यायालय, उच्च न्यायालय और सत्र न्यायालयों को आपराधिक मामलों के स्थानांतरण और वापसी की शक्तियाँ प्रदान की गई हैं। इन धाराओं में स्थानांतरण के लिए आवेदन, स्थानांतरण के आधार, और अनुचित आवेदन करने पर जुर्माने तक का विस्तृत उल्लेख है।

    इस तरह देखा जाए तो, धारा 450 से 452 तक की धाराएँ अधीनस्थ न्यायालयों और मजिस्ट्रेटों के स्तर पर स्थानांतरण और वापसी की शक्तियाँ निर्धारित करती हैं, ताकि संपूर्ण न्यायिक संरचना में कार्य का समुचित बँटवारा और नियंत्रण सुनिश्चित किया जा सके।

    भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 की धारा 450, 451 और 452 न्यायिक और प्रशासनिक कार्य प्रणाली को अधिक लचीला, पारदर्शी और नियंत्रित बनाने के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। इन धाराओं के माध्यम से यह सुनिश्चित किया गया है कि न्यायिक अधिकारी और कार्यपालक मजिस्ट्रेट, आवश्यकता पड़ने पर अपने द्वारा सौंपे गए मामलों को पुनः नियंत्रित कर सकें, और न्याय के हित में उचित निर्णय ले सकें।

    इससे यह भी सुनिश्चित होता है कि न्यायिक प्रक्रिया में पक्षपात की कोई संभावना न रहे, और प्रत्येक कार्यवाही का लेखाजोखा उपलब्ध हो। कारण दर्ज करने की बाध्यता, जो धारा 452 में दी गई है, न्यायिक उत्तरदायित्व (Judicial Accountability) का एक सशक्त उदाहरण है।

    इस प्रकार, धारा 450, 451 और 452 न्यायिक तंत्र की आत्मा को मजबूती प्रदान करते हैं और भारतीय लोकतंत्र में निष्पक्ष न्याय सुनिश्चित करने की दिशा में एक सशक्त आधार तैयार करते हैं।

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