जानिए मजिस्ट्रेट के समक्ष परिवाद कैसे पेश किया जाता है
Shadab Salim
30 Jun 2020 6:09 PM GMT
किसी भी अपराध के घटित होने के बाद व्यथित पक्षकार के पास आरोपी के विरुद्ध आपराधिक कार्यवाही चलाने के दो मार्ग हैं। इन दोनों रास्तों से कोई भी व्यथित पक्षकार न्याय प्राप्त कर सकता है।
किसी भी संज्ञेय अपराध के मामले में दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 154 के अंतर्गत पुलिस को सूचना देकर एफआईआर दर्ज करवाने का अधिकार पीड़ित पक्षकार को प्राप्त है। हालांकि अपराध की रिपोर्ट पक्षकार ही दर्ज करवाए यह आवश्यक नहीं है।
जब FIR दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 154 के अंतर्गत दर्ज नहीं की जाती है, तब व्यथित पक्षकार के पास मजिस्ट्रेट के समक्ष निजी परिवाद के माध्यम से न्याय हेतु गुहार लगाना होती है। यह मजिस्ट्रेट को प्राप्त एक अद्भुत शक्ति है तथा पीड़ित को प्राप्त एक अद्भुत अधिकार भी है जो न्याय के सिरे को संभाले हुए है।
इस लेख में मजिस्ट्रेट को कौन सी धाराओं के अंतर्गत परिवाद किया जाता है तथा उसके बाद की क्या प्रक्रिया होती है, इस संबंध में विस्तारपूर्वक चर्चा की जा रही है।
मजिस्ट्रेट से परिवाद (Complaint)
दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 200 के अंतर्गत मजिस्ट्रेट को निजी परिवाद का आवेदन पीड़ित पक्षकार द्वारा दिया जाता है। ऐसा आवेदन उस परिस्थिति में दिया जाता है, जब पुलिस सीआरपीसी की धारा 154 के अंतर्गत किसी संज्ञेय अपराध एवं धारा 155 के अंतर्गत किसी असंज्ञेय अपराध की रिपोर्ट दर्ज नहीं करती है। यह आवश्यक नहीं है ऐसा आवेदन तभी प्रस्तुत किया जाए, जब पुलिस रिपोर्ट लिखने से इनकार कर दे एवं उसका अन्वेषण करने से इनकार कर दे, सहिंता में कहीं भी इस तरह का ज़िक्र नहीं है।
दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 200 के अंतर्गत परिवाद संस्थित किए जाने पर अनुरोध किया जाता है, ऐसा अनुरोध परिवाद को लाने वाला परिवादी करता है। धारा 200 परिवादी को यह अधिकार देती है
संहिता की धारा 200 परिवादी को परिवाद पेश करने के अधिकार देने के साथ ही अपराध के संज्ञान के पश्चात परिवादी के विचारण की प्रक्रिया भी उल्लेख करती है। परिवाद शब्द सहिंता की धारा 2 (घ) में परिभाषित किया गया है-
इस धारा में वर्णित उपधारा के अनुसार परिवाद से आशय मजिस्ट्रेट द्वारा कार्यवाही किए जाने की दृष्टि से किए गए ऐसे मौखिक या लिखित कथन से है जो किसी ज्ञात व अज्ञात व्यक्ति का अपराधी होना दर्शाता है, किंतु इसके अंतर्गत पुलिस रिपोर्ट सम्मिलित नहीं है, परंतु ऐसे किसी मामले में जो अन्वेषण के पश्चात किसी संज्ञेय अपराध का किया जाना प्रकट करता है पुलिस अधिकारी द्वारा की गई रिपोर्ट परिवाद मानी जाएगी तथा वह पुलिस अधिकारी उस रिपोर्ट का परिवादी माना जाएगा।
इस धारा में वर्णित उपबंधों के अनुसार परिवाद की आवश्यक शर्तें भी बतायी गयी है, वह निम्नलिखित हैंं-
1) यह कि परिवाद के आधार पर अपराध का संज्ञान करने वाला मजिस्ट्रेट परिवादी की ओर से उपस्थित साक्षी यदि कोई हो तो उसका शपथ पर परीक्षण करें।
2) यह कि ऐसे परीक्षण का सारांश लेखबद्ध (रिकॉर्ड) किया जाए।
3) यह कि मजिस्ट्रेट द्वारा ऐसे लेखबद्ध सारांश पर परिवादी तथा साक्षियों के हस्ताक्षर ले लिए जाएं।
अपराध का संज्ञान
जब दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 200 के अंतर्गत मजिस्ट्रेट को परिवाद कर दिया जाता है तो मजिस्ट्रेट परिवादी की परीक्षा के पश्चात दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 190 के अंतर्गत अपराध का संज्ञान कर लेता है।
चरण सिंह बनाम शांति देवी के वाद में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने अभिकथन किया कि दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 200 एवं धारा 202 के अंतर्गत जांच दोनों प्रकार के मामलों अर्थात मजिस्ट्रेट द्वारा वारंट के अधीन विचारणीय मामले तथा सेशन न्यायालय द्वारा विचारणीय मामलों में की जा सकती है। मजिस्ट्रेट यह उचित समझता है कि किसी प्रकार किसी प्रकरण सेशन को सुपुर्द करना न्याय के हित में नहीं होगा तो उसे परिवाद को खारिज करने की अधिकार शक्ति प्राप्त है।
परिवाद प्राप्त होने पर मजिस्ट्रेट के कर्तव्य
दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 202 के अधीन कोई परिवाद प्राप्त होने पर मजिस्ट्रेट के कर्तव्यों का वर्णन किया गया है। किसी अपराध का परिवाद मजिस्ट्रेट द्वारा प्राप्त किए जाने पर उसका यह कर्तव्य होगा कि मजिस्ट्रेट जब किसी ऐसे अपराध का परिवाद प्राप्त करता है, जिसके संज्ञान के लिए उसे अधिकृत किया गया है अथवा जो उसे धारा 192 के अंतर्गत सुपुर्द किया गया है तो वह मामले के अभियुक्त के विरुद्ध आदेशिका जारी करना विलंबित कर सकता है तथा या तो स्वयं ही मामले की जांच कर सकता है अथवा किसी पुलिस अधिकारी या ऐसे व्यक्ति को जिसे उचित समझे अन्वेषण करने का निर्देश दे सकता है ताकि यह पता लगाया जा सके कि मामले में कार्यवाही के लिए पर्याप्त आधार है अथवा नहीं।
घनश्याम कुमार शुक्ला बनाम उत्तर प्रदेश राज्य के वाद में अभिनिर्धारित किया कि सीआरपीसी की धारा 202 के अधीन जांच की परिधि केवल यह सुनिश्चित करने तक ही सीमित रहती है कि अभियुक्त के विरुद्ध परिवाद या रिपोर्ट में लगाए गए आरोप सत्य है या असत्य तथा परिवादी द्वारा प्रस्तुत किए गए तथ्यों के आधार पर अभियुक्त के विरुद्ध आदेशिका जारी करने के लिए प्रथम दृष्टया मामला बनता है या नहीं अर्थात उसके विरुद्ध प्रथम दृष्टया साक्ष्य उपलब्ध है या नहीं।
सीआरपीसी की धारा 202 के अधीन मजिस्ट्रेट द्वारा आदेशिका जारी की जाने के संबंध में स्थिति को अधिक स्पष्ट करते हुए छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय ने हरीराम सतीश पांडे के वाद में अभिकथन किया कि इस धारा के अंतर्गत अभियुक्त के विरुद्ध आदेशिका जारी करने हेतु मजिस्ट्रेट परिवाद में दिए गए तथ्यों तथा परिवादी उसके साक्षियों द्वारा दिए गए बयानों के आधार पर कार्यवाही कर सकता है परंतु वहां आई विटनेस की विश्वसनीयता को परखने के लिए पुलिस अन्वेषण रिपोर्ट में दी गयी जानकारी को विचार में नहीं ले सकेगा।
धारा 202 के अधीन जांच की परिधि बहुत ही सीमित होती है यह एक परिवाद द्वारा उसके समक्ष रखी गयी विषय वस्तु के आधार पर निश्चय करने तथा आदेशिका(समन और वारंट इत्यादि) जारी करने के लिए प्रथम दृष्टया मामला बनता है या नहीं।
इस स्तर पर अभियुक्त को मामले में सुने जाने का कोई अधिकार नहीं है और न ही वह इस प्रश्न पर कि उसके विरुद्ध आदेशिका जारी होनी चाहिए या नहीं पर सुने जाने के लिए पात्र है।
दिलावर सिंह बनाम दिल्ली राज्य के वाद में पुलिस द्वारा दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 156 तथा धारा 202 के अधीन अन्वेषण में अंतर स्पष्ट करते हुए अभिकथन किया गया है कि संहिता की धारा 156 के अंतर्गत पुलिस अधिकारी को संज्ञेय अपराध के अन्वेषण की शक्ति प्राप्त है, जबकि संहिता की धारा 202 मजिस्ट्रेट द्वारा अपराध का संज्ञान किए जाने के पश्चात पुलिस को अन्वेषण की है जिसका प्रयोग पुलिस तभी कर सकती है यदि मजिस्ट्रेट ने उसे इस हेतु निर्देशित किया हो, स्पष्ट है कि धारा 202 पुलिस द्वारा अन्वेषण का उद्देश्य होता है कि मजिस्ट्रेट के द्वारा मामले में आगे कार्यवाही की जाए अथवा नहीं।
परिवाद का खारिज किया जाना
दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 203 के अंतर्गत मजिस्ट्रेट को शक्ति प्रदान की गयी है कि उचित आधार के अभाव में वह परिवाद खारिज कर सकता है। इस धारा में वर्णित उपबंधों के अनुसार यदि परिवादी को साक्ष्यों द्वारा शपथ पर किए गए कथन के आधार पर धारा 202 के अधीन जांच या अन्वेषण के यदि कोई हो परिणाम पर विचार करने के पश्चात मजिस्ट्रेट इस निष्कर्ष पर पहुंचता है कि आगे कार्यवाही आवश्यक नहीं है तो परिवाद को खारिज कर देगा तथा परिवाद खारिज किए जाने के कारणों को भी लिखेगा।
सीआरपीसी की धारा 203 के उपबंध तब तक ही लागू होते है जब तक आदेशिका जारी नहीं की जाती अर्थात परिवाद में आरोप लगाए गए व्यक्ति को समन, वारंट इत्यादि जारी नहीं कर दिया जाता। मजिस्ट्रेट जिसे मामला अंतरित किया गया हो इस धारा के अधीन आदेश पारित करने के लिए सक्षम होगा।
परिवादी के अधिवक्ता को सुनवाई का अवसर दिए बिना परिवाद को निरस्त करता है तो इस कार्य को अनुचित माना जाएगा। धारा 200 से 203 को एक साथ पढ़ा जाना चाहिए। धारा 203 के अनुसार मजिस्ट्रेट निम्नलिखित आधारों में से किसी भी आधार पर मामले को नष्ट कर सकता है तथा आदेशिका जारी करने से इनकार कर सकता।
1) यदि वह परिवादी के लिखित कथन के आधार पर यह पाता है कि अभियुक्त के विरुद्ध कोई अपराध नहीं बनता है।
2) यदि वह परिवादी के अभिकथनो को अविश्वसनीय मानता है।
3) यदि वह परिवादी के साक्षियों को विश्वास करने योग्य नहीं समझता लेकिन ऐसे अविश्वास के लिए उसके पास कोई पर्याप्त कारण नहीं है तो धारा 200 के अधीन आगे जांच का निर्देश दे सकता है।
यदि मजिस्ट्रेट द्वारा धारा 203 के अंतर्गत परिवाद खारिज कर दिया जाता है, वैसे परिवाद खारिज होने के बाद सेशन कोर्ट और हाईकोर्ट के समक्ष अपील की जा सकती है।