जानिए अपराध विधि (Criminal Law) में पुनरीक्षण (Revision) क्या होता है
Shadab Salim
28 July 2020 11:00 AM IST
अपर न्यायालय को अपील के साथ पुनरीक्षण (Revision) की शक्ति भी प्राप्त होती है। पुनरीक्षण के अंतर्गत अधीनस्थ न्यायालय द्वारा पारित किए गए निष्कर्ष, दंडादेश, आदेश की शुद्धता एवं वैधता और औचित्य के संबंध में अपर न्यायालय को अधिकारिता प्राप्त होती है।
भारतीय अपराध विधि के अंतर्गत दंड प्रक्रिया संहिता 1973 के अध्याय 30 में पुनरीक्षण (Revision) के संबंध में प्रावधान किए गए हैं। दंड प्रक्रिया संहिता 1973 की धारा 397 के अंतर्गत उच्च न्यायालय और सेशन न्यायालय को पुनरीक्षण की शक्तियां दी गयी हैं। इस शक्ति के अधीन हाईकोर्ट या सेशन न्यायालय अपने अधीनस्थ न्यायालयों द्वारा की गयी कार्यवाही के अभिलेखों (Records) को मंगवा सकता है तथा उसका परीक्षण कर सकता है। इस तरह के अभिलेखों को मंगवाने के बाद अधीनस्थ न्यायालय के आदेश के निष्पादन को निलंबित भी रख सकता है।
पुनरीक्षण की शक्ति हाईकोर्ट तथा सेशन न्यायालय दोनों को प्राप्त है, परंतु दोनों में से किसी एक को पुनरीक्षण के लिए याचिका की जा सकती है।
साधारण शब्दों में पुनरीक्षण का अर्थ (Revision under the Code of Criminal Procedure)
पुनरीक्षण में किसी निर्णय या दंडादेश की वैधता या औचित्य का प्रश्न अन्तर्ग्रस्त होता है। पुनरीक्षण लंबित और निर्णित दोनों ही मामलों में किया जा सकता है। किसी मामले के लंबित रहते हुए भी विधि की वैधता और विधि के प्रश्नों पर पुनरीक्षण किया जा सकता है।
पुनरीक्षण का एक विशेष रूप यह है कि पुनरीक्षण की मांग अधिकारपूर्वक नहीं की जा सकती अपितु पुनरीक्षण न्यायालय के विवेक पर निर्भर करता है।
यदि वह चाहे तो ही मामले में पुनरीक्षण करेगा अन्यथा नहीं करेगा। पुनरीक्षण विधि के प्रश्न पर ही किया जाएगा अतः केवल विशेष परिस्थितियों में तथ्य के प्रश्न पर पुनरीक्षण हो सकता है। न्यायालय पुनरीक्षण के आदेश के किसी मामले में सजा को बड़ा भी सकता है और क्षमादान भी कर सकता है तथा उन्मोचन (Discharge) भी कर सकता है। पुनरीक्षण दो स्तरों पर होता है प्रारंभिक एवं अंतिम।
दोबारा पुनरीक्षण ( Revision) का आवेदन नहीं किया जा सकता
सीआरपीसी की धारा 397 की उपधारा 3 के अनुसार यदि एक बार पुनरीक्षण आवेदन सेशन न्यायालय में दाखिल कर दिया गया हो तो इस हेतु दोबारा हाईकोर्ट में आवेदन ग्रहण नहीं किया जाएगा।
पुनरीक्षण आवेदन सीधे उच्च न्यायालय को किया जा सकता है तथा इसे सेशन न्यायालय में भी फाइल किया जा सकता है। यह आवश्यक नहीं है कि हाईकोर्ट में जाने के पहले पक्षकार सेशन न्यायालय के समक्ष पुनरीक्षण आवेदन प्रस्तुत करें। यदि सेशन न्यायालय द्वारा पुनरीक्षण को खारिज कर दिया जाए तो पुनरीक्षण हेतु उच्च न्यायालय में आवेदन नहीं किया जाएगा परंतु उच्च न्यायालय धारा 482 के अधीन उसे अंतर्निहित शक्तियों का प्रयोग करते हुए ऐसे पुनरीक्षण आवेदन को ग्रहण कर सकता है तथा उस दशा में धारा 397 (3) के वर्जन का नियम लागू नहीं होगा। यह बात पुरीनिपति जग्गा रेड्डी 1981 के मामले में कही गयी है।
बद्रीलाल बनाम मध्यप्रदेश राज्य 1989 के मामले में कहा गया है कि सीआरपीसी के अधीन पुनरीक्षण शक्ति अपेक्षाकृत सीमित है तथा उच्च न्यायालय इस अधिकारिता का प्रयोग अपने विवेक अनुसार करता है।
यदि किसी व्यक्ति द्वारा पुनरीक्षण हेतु सेशन न्यायालय में आवेदन किया गया हो तो उच्च न्यायालय उसे पुनरीक्षण हेतु स्वीकार नहीं करेगा इसी प्रकार यदि उच्च न्यायालय में पुनरीक्षण हेतु आवेदन किया गया हो तो सेशन न्यायालय मामले में पुनरीक्षण नहीं करेगा।
एन के बालू बनाम राज्य 1996 के मामले में कहा गया है कि यदि न्यायालय द्वारा पिटीशन लौटा दिया जाता है या न्यायालय उसे ग्रहण करने से इनकार करता है तो यह न्यायिक आदेश नहीं होने के कारण इसके विरुद्ध पुनरीक्षण पोषणीय नहीं होगा।
छैलदास बनाम हरियाणा राज्य 1975 के मामले में कहा गया है धारा 397 (3) के अनुसार यदि किसी व्यक्ति ने इस धारा के अंतर्गत उच्च न्यायालय में पुनरीक्षण हेतु आवेदन किया है तो वह व्यक्ति सेशन न्यायालय में यथास्थिति में पुनः द्वित्तीय पुनरीक्षण हेतु आवेदन नहीं कर सकेगा तथा न्यायालय इस प्रकार दायर किए गए द्वित्तीय पुनरीक्षण याचिका को ग्रहण करने से इनकार कर देगा।
प्रीतपाल सिंह बनाम ईश्वरी देवी के वाद में पति ने पत्नी तथा आवश्यक पुत्र को भरण पोषण दिए जाने संबंधी आदेश के विरुद्ध पुनरीक्षण आवेदन किया जो खारिज कर दिया गया। तत्पश्चात उसने अपने अवयस्क पुत्र के माध्यम से दूसरा पुनरीक्षण आवेदन दाखिल किया। उक्त आवेदन को इस आधार पर खारिज कर दिया गया कि मजिस्ट्रेट तथा पुनरीक्षण न्यायालय दोनों ने अवयस्क बच्चे के विरुद्ध कोई आदेश पारित नहीं किया इसलिए बच्चे के व्यथित (Aggrieved) होने का प्रश्न ही नहीं उठता है।
पुनरीक्षण की कार्यवाही अभियुक्त की उपस्थिति में किया जाना चाहिए
कोई भी पुनरीक्षण की कार्यवाही अभियुक्त की अनुपस्थिति में नहीं होना चाहिए। रघुराज सिंह रोसा बनाम शिव सुंदरम प्राइवेट लिमिटेड के मामले में यह कहा गया है कि अभियुक्त की गैरहाजिरी में पुनरीक्षण की कोई भी कार्यवाही नहीं होना चाहिए तथा अभियुक्त की उपस्थिति में ही पुनरीक्षण की शक्तियों का प्रयोग किया जाना चाहिए।
उच्च न्यायालय की पुनरीक्षण की शक्तियां (High Courts Power of Revision)
दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 401 के अंतर्गत उच्च न्यायालय को पुनरीक्षण की शक्तियों का उल्लेख किया गया है। यह धारा पुनरीक्षण हेतु हाईकोर्ट को सशक्त करती है। ज्ञातव्य है कि पुनरीक्षण संबंधी अधिकार का प्रयोग सदैव अपवादात्मक परिस्थिति में ही किया जाना चाहिए, जिस परिस्थिति में यह प्रतीत हो कि अधीनस्थ न्यायालय ने मामले में घोर अन्याय किया है।
मोतीलाल नेहरू बनाम सम्राट 1931 एक पुराने प्रकरण में कहा गया है कि अधीनस्थ न्यायालय के समक्ष साक्ष्य देते हुए किसी भी प्रकार की चुनौती नहीं दी गयी हो तथा इस तरह का साक्ष्य अधीनस्थ न्यायालय ने विधि के समस्त उपबंध की पूर्ति करते हुए लिया हो तो उस दशा में उसे पुनरीक्षण द्वारा चुनौती नहीं दी जा सकती है।
धारा 401 के अनुसार उच्च न्यायालय किसी भी ऐसी कार्यवाही में जिसमें उसने मामले से संबंधित अभिलेख मंगाया हो पुनरीक्षण के लिए उन सभी शक्तियों का प्रयोग कर सकता है जो शक्तियां उसे दंड प्रक्रिया संहिता 1973 की धारा 386 389 390 तथा 391 द्वारा अपील न्यायालय को एवं धारा 307 के अधीन सेशन न्यायालय को प्रदान की गयी है।
धारा 401 (2) के अनुसार कोई आदेश जो अभियुक्त पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है, अभियुक्त को व्यक्तिगत सुनवायी का अवसर दिए बिना पारित नहीं किया जाएगा।
इस धारा के अधीन कोई भी उपबंध उच्च न्यायालय को दोषमुक्ति के निष्कर्ष को दोषसिद्धि में परिवर्तित करने के लिए अधिकृत नहीं करती है। साथ ही साथ इस संहिता के अधीन अधीनस्थ न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध अपील हो सकती थी किंतु अपील नहीं की गयी है तो उक्त दशा में पुनरीक्षण का आवेदन नहीं किया जा सकता। किंतु धारा 401(5) के अनुसार अपील हो सकती थी किंतु व्यक्ति द्वारा पुनरीक्षण के लिए आवेदन किया गया है तो उच्च न्यायालय इस बात का समाधान हो जाने पर कि उसने गलत विश्वास में ऐसा आवेदन किया है ऐसे आवेदन को अपील में परिवर्तित करके एतदद्वारा कार्यवाही कर सकेगा।
शीतला प्रसाद बनाम श्रीकांत के प्रकरण में अभियुक्त की दोषमुक्ति के विरुद्ध पुनरीक्षण में साक्ष्य के अधीन मूल्यांकन का प्रश्न अन्तर्ग्रस्त था।
सेशन न्यायालय ने अभियुक्तों को अवैध जमाव तथा हमले के आरोप में धारा 148, 342, 300 427 भारतीय दंड संहिता 1860 के अधीन दंडित करके धारा 308 भारतीय दंड संहिता के आरोप से दोषमुक्त कर दिया था और उन्हें परिवीक्षा का लाभ देकर छोड़े जाने का आदेश पारित किया था।
एक प्राइवेट परिवादी द्वारा फाइल किए गए पुनरीक्षण में उच्च न्यायालय ने अभियुक्तों को आईपीसी की धारा 308 तथा धारा 324, 149 का दोषी पाया और प्रकरण सेशन को प्रतिप्रेषित (Remanded) कर दिया।
सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के निर्णय को पलटते हुए अभिकथन किया कि इस प्रकार का निर्णय केवल राज्य सरकार द्वारा फाइल की गयी अपील में ही अधिकृत किया जा सकता था। अतः उच्च न्यायालय ने अपनी पुनरीक्षण अधिकारिता में तात्विकता की भूल की है इसलिए उसका आदेश विधिमान्य नहीं है।
जगबीर सिंह बना पंजाब राज्य के मामले में उच्चतम न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि जब दंड प्रक्रिया संहिता 1973 की धारा 190 (1) ख के अधीन पुलिस रिपोर्ट पर अपराध का संज्ञान लिया हो तथा अभियुक्त दोषमुक्त कर दिया गया हो तब दोष मुक्ति के आदेश के विरुद्ध केवल राज्य ही उच्च न्यायालय में सहिंता की धारा 378 (1) के अधीन अपील कर सकता है। ऐसे मामले में परिवादी द्वारा संहिता की धारा 378(4) के अधीन अनुमति लेकर दोषमुक्ति के विरुद्ध उच्च न्यायालय में की गयी अपील को सहिंता की धारा 401 के अधीन पुनरीक्षण में परिवर्तित कराया जा सकता है।