NI Act में चेक बाउंस का क्राइम

Shadab Salim

24 April 2025 4:22 AM

  • NI Act में चेक बाउंस का क्राइम

    चेक एक इंस्ट्रूमेंट है जिसके बाउंस होने को क्राइम बनाया गया है। अपराध के रूप में चेकों के बाउंस से सम्बन्धित विधि 1988 के संशोधन से मूल रूप में धारा 138 से 142 तक थी। धारा 143-147, 2002 के संशोधन से प्रभावी 2003 से एवं धारा 148, 2018 में जोड़ी गयी। अब इस सम्बन्ध में विधि धारा 138 से 142 तक है। खातों में अपर्याप्त निधियों के कारण (चेक के लेखीवाल के खाते में) कतिपय चेकों के बाउंस की दशा में शास्तियों के सम्बन्ध में उक्त उपबन्ध अपने आप में सम्पूर्ण संहिता है।

    अध्याय 8 की धारा 91 से 104 तक के परक्राम्य लिखतों के बाउंस साथ ही साथ चेकों के बाउंस उसकी सूचना टिप्पण एवं प्रसाक्ष्य से सम्बन्धित है, परन्तु इसमें चेकों के बाउंस को अपराध के रूप में दण्ड की व्यवस्था नहीं है। 1988 के पूर्व चेकों का बाउंस केवल एक नैतिक आबद्धता के रूप में ली जाती थी।

    इस प्रकार लोग चेकों के संदाय (आदर) को महत्व नहीं देते थे और चेकों के बाउंस की घटनाएँ समाज में सामान्य रूप में होती थीं और कभी-कभी इसे कपट के माध्यम के रूप में भी अपनाया जाता था।

    अधिनियम में चेकों के बाउंस से निपटने के लिए कोई प्रभावी उपबन्ध नहीं थे जिससे लोगों में चेक के प्रति विश्वास एवं स्वीकार्यता नहीं थी। लोगों में संदाय के माध्यम में चेक था स्वीकार करने में संकोच एवं भय की स्थिति थी। चेक का धारक इसके बाउंस से व्यथित होकर असहाय था, क्योंकि चेक के लेखीवाल के विरुद्ध उसके पास कोई उपचार नहीं था। केवल भारतीय दण्ड संहिता की धारा 415 एवं 420 में क्रमश: छल, छल एवं बेईमानी पूर्वक आशय से सम्पत्ति को परिदत करने के लिए उत्प्रेरित करने का प्रावधान है, परन्तु कोर्ट की बाधाएं एवं जाल से न्याय पाना आसान नहीं था। अतः एक सहज, प्रभावी एवं त्वरित उपचार की आवश्यकता थी।

    इससे चेकों के बाउंस के लिए नई विधि की आवश्यकता हुई। इस प्रकार 1988 में अध्याय 17 "खातों में अपर्याप्त निधियों के कारण कतिपय चेकों के बाउंस की दशा में शास्तियाँ" को जोड़ा गया नयी धाराएँ 138 से 142 तक अधिनियम में जोड़ी गयी और 2002 में पुनः संशोधन से धाराएं 143 से 147 तक और 2018 में धारा 148 जोड़ी गयी। उक्त सभी उपबन्ध चेक के बाउंस को अपराध एवं उसके दण्ड के सम्बन्ध में सम्पूर्ण संहिता है।

    संशोधन के उद्देश्य मुख्यत: थे

    चेकों के प्रयोग की संस्कृति को प्रोत्साहित करना, एवं

    चेकों की विश्वसनीयता एवं स्वीकार्यता में अभिवृद्धि करना।

    इस विधि का प्रयोजन-

    परक्राम्य लिखत अधिनियम, 1881 का मुख्य उद्देश्य एवं प्रयोजन उस पद्धति को विधिमान्यता प्रदान करना है जिससे इसके अधीन अनुध्यात लिखतों को अन्य माल के समान परक्रामण द्वारा एक हाथ से दूसरे हाथ अन्तरित हो सकें। अधिनियम का उद्देश्य परक्राम्य लिखतों के सम्बन्ध में व्यवस्थित प्रमाणिक तौर पर निदेशक विधि का नियम प्रस्तुत करना है। अधिनियम का आशय पद्धति की विधिमान्यता से है जिसके अधीन व्यापारिक लिखतों को सामान्य माल जो एक हाथ से दूसरे हाथ को अन्तरित होते हैं, के समान बनाना है।

    वर्तमान आर्थिक परिदृश्य में चेकों के प्रयोग की संस्कृति को प्रोत्साहित करना एवं चेकों की विश्वसनीयता एवं स्वीकार्यता स्थापित करना आधुनिक व्यापारिक संव्यवहारों एवं धन के संव्यवहार में मुख्य आवश्यकता है।

    नतीजतन, 1881 के अधिनियम में बैंकिंग पब्लिक फाइनेन्शियल इन्स्टीट्यूशन एवं निगोशिएबल इनस्ट्रमेन्ट लॉज (संशोधन) अधिनियम, 1988 से संशोधित किया गया।

    संशोधित उपबन्धों का विस्तार से उल्लेख करते हुए उद्देश्य एवं प्रयोजन है-

    प्रथमतः चेकों के प्रयोग की संस्कृति को प्रोत्साहित करना एवं

    द्वितीयतः व्यापारिक व्यवहारों में चेक की विश्वसनीयता में सम्वृद्धि करना है।

    एन० ई० पी० सी० (नेपक) मेकान लि० बनाम मैग्मा लॉजिंग लिo के मामले में सुप्रीम कोर्ट का सम्प्रेक्षण था कि संविधि पर धारा 138 को स्थापित करने का उद्देश्य बैंकिंग गतिविधियों एवं संव्यवहारों में परक्राम्य लिखतों में विश्वास उत्पन्न करना है एवं बैंकिंग गतिविधियों को प्रभावीकता में वृद्धि करना एवं चेकों द्वारा व्यापारिक संव्यवहारों को करने में विश्वसनीयता सुनिश्चित करना है।

    पुनः सुप्रीम कोर्ट ने यह सम्प्रेक्षित किया है कि अधिनियम की धारा 138 एक संविदात्मक भंग को अपराध सृजित किया है और विधायिका का उद्देश्य बैंकिंग क्षमता में अभिवृद्धि और यह प्रयास करना है कि व्यापारिक एवं संविदात्मक सम्बन्धों में चेक का बाउंस न हो और व्यापारिक संव्यवहारों को चेक द्वारा करने में विश्वसनीयता बनाया जाए।

    अशोक यशवन्त बादवे बनाम सुरेन्द्र माधवराव निघोचकर के मामले में कोर्ट का यह सम्प्रेक्षण कि यह नवीन अध्याय परक्राम्य लिखतों का बैंकिंग कार्यवाहियों में क्षमता एवं व्यापारिक संव्यवहारों में विश्वसनीयता उत्पन्न करना प्रकट करता है। लेखीवाल के विरुद्ध धन को उगाही के लिए सिविल उपचार के होते हुए, धारा 138 लेखीवाल की ओर से बेइमानी का निवारण करता है कि कोई लेखीवाल बैंक में संरक्षित खाते में अपर्याप्त धन की दशा में चेक जारी न करे और पाने वाला या सम्यक् अनुक्रम धारक इस पर कार्यवाही करे।

    मे० मोदी सीमेन्ट लि० बनाम के० के० नन्दी के महत्वपूर्ण वाद में सुप्रीम कोर्ट अध्याय 17 "खातों में अपर्याप्त निधियों के कारण कतिपय चेकों के बाउंस की दशा में शास्तियाँ" जिसका प्रावधान धारा 138 से 142 तक किया गया है, का उद्देश्य बैंकिंग कार्यवाहियों में क्षमता का सम्वर्द्धन एवं चेकों द्वारा व्यापारिक संव्यवहारों को सुनिश्चित करना है।

    मे० डालमिया सीमेन्ट (भारत) लि० बनाम मे० ग्लैक्सौ ट्रेडर्स एण्ड एजेन्सी लि के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने यह धारित किया है कि अधिनियम की धारा 138 एक सिविल संव्यवहार को विधि द्वारा एक अपराध बनाना है और इस विहित कमी को विशेष उपबन्ध से अपर्याप्त धन के अभाव में चेक के बाउंस को कठोर दायित्व में निगमित किया गया है और यह पुनः सम्प्रेक्षित किया गया है कि इसके अधीन अनुध्यात किए गए व्यापारिक लिखतों को एक विशेषाधिकार प्रदान करना है कि किसी लिखत के अधीन आबद्धता का उन्मोचन नहीं किया जाता है तो उसके लिए विशेष शास्ति एवं प्रक्रिया का उपबन्ध करना है।

    विनय डेवन्ना नायक बनाम रायल सेवा सहकारी बैंक लि. के मामले में यह नियम स्थापित किया है कि धारा 138 का उद्देश्य बैंकिंग कार्यवाहियों में क्षमता में विश्वास उत्प्रेरित करना एवं व्यापारिक संव्यवहारों को करने में विश्वसनीयता उत्पन्न करना है एवं धारा 147 के प्रावधान को ध्यान में रखते हुए अपराधों की शमनीयता को सामान्यतया मना नहीं किया जा सकता है।

    विनियमित अपराध-परक्राम्य लिखत अधिनियम की धारा 139 के लक्ष्यों एवं प्रयोजनों में सुप्रीम कोर्ट ने एक अद्यतन वाद रंगप्पा बनाम मोहन, के मामले में यह सम्प्रेक्षित किया है कि यह सदैव ध्यान में रखना होगा कि धारा 138 के अधीन अपराध को दण्डनीय बनाने के पीछे विनियमित अपराध बनाने की मंशा है, क्योंकि चेकों का बाउन्स होना वृहद रूप में सिविल दोष है जिसका प्रभाव प्राविक रूप में प्राइवेट पक्षकारों में व्यापारिक संव्यवहारों को अन्तर्ग्रस्त करता है।

    दामोदर एस० प्रभु बनाम सईद बाबा लाल में सुप्रीम कोर्ट ने यह धारित किया कि हमें यह अवश्य स्मरण रखना चाहिए कि चेकों के बाउंस को अच्छी तरह से विनियमित अपराध के रूप में वर्णित किया जा सकता है कि लोक हित में इन लिखतों की विश्वसनीयता को सुनिश्चित करता है। इस अपराध का प्रभाव सामान्यतया प्राइवेट पक्षकारों के व्यापारिक संव्यवहारों तक सीमित होता है। यह भी सम्प्रेक्षित किया गया कि धारा 138 के अधीन जुर्माना अधिरोपित करना क्षतिपूर्ति प्रयोजनों को स्थापित करती है।

    सुप्रीम कोर्ट ने गोवा प्लास्ट (प्रा०) लि० में यह स्पष्ट किया है कि अधिनियम में धारा 138 को स्थापित किया गया है जिसके बैंकिंग कार्यवाहियों को दक्षता में विश्वास उत्पन्न हो एवं व्यापारिक संव्यवहारों में विश्वसनीयता स्थापित करना है। ये उपबन्ध जनता को चेक के माध्यम से संदाय की आबद्धता को बाउंस करने से रोकेगा।

    रंगप्पा बनाम मोहन के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने इसे स्पष्ट किया है कि उक्त उपबन्ध देश के बढ़ते हुए कारोबार, व्यापार, वाणिज्य एवं औद्योगिक क्रियाओं को विनियमित करने के लिए अन्तःस्थापित किया गया है और वित्तीय मामलों में अत्यधिक सतर्कता की वृद्धि के लिए कठोर दायित्व और लेनदारों का लेखीवाल के में विश्वास के रक्षोपाय के लिए जो किसी विकसित राष्ट्र के वित्तीय जीवन के लिए आवश्यक है।

    पुनः कोर्ट का सम्प्रेक्षण था कि-

    "यह अवश्य स्मरण रखना चाहिये कि धारा 138 में जो अपराध दण्डनीय बनाया गया है वह बाउन्सिंग का चेक बृहद रूप में सिविल दोष है जिसका प्रभाव निजी पक्षकारों में व्यापारिक संव्यवहारों तक ही सीमित होता है। अधिनियम की धारा 139 में आदेशित उपधारणा आवश्यक रूप में विधिक प्रवर्तनीय ऋण या आबद्धता को ही सम्मिलित करता है। यह वास्तव में खण्डनीय उपधारणा की प्रकृति का है एवं यह अभिव्यक्त के लिये सदैव खुला है कि वह ऋण एवं आबद्धता को सदैव विवादित कर सकता है। हालांकि इसमें कोई सन्देह नहीं है कि यहाँ पर प्रारम्भिक उपधारणा होती है जो परिवादी को सहयोग प्रदान करता है। अधिनियम की धारा 139 प्रतिकूल आभार खण्ड है जिसे लिखतों के विश्वसनीयता की संवृद्धि हेतु विधायिका के उद्देश्यों के लिए सम्मिलित किया गया है, जबकि धारा 138 चेकों के बाउंस की दशा में एक बलशाली आपराधिक उपचार विहित करती है एवं धारा 139 में विखण्डनीय उपधारणा एक तरीका है जिससे मुकदमे के दौरान असम्यक् विलम्ब को रोकना है।

    अधिनियम की धाराएं 138 से 142 तक के उपबन्ध चेकों के बाउंस को लागू करने के लिए अपर्याप्त पाए गए हैं। कथित परिस्थितियों में, विधायिका ने नवीन धाराएँ 143 से 147 तक परक्राम्य लिखत (प्रकीर्ण उपबन्धों एवं संशोधन) अधिनियम, 2002, जोड़ी गयी हैं जिसे 6 फरवरी, 2003 से प्रभावी बनाया गया है।

    उक्त संशोधन अधिनियम के उद्देश्यों एवं कारण के कतिपय महत्व हैं जो निम्नलिखित हैं-

    परक्राम्य लिखत अधिनियम, 1881 को बैंकिंग लोक वित्तीय संस्थानों एवं परक्राम्य लिखत विधियाँ (संशोधन) अधिनियम, 1988 से संशोधित की गई हैं जिसमें एक नया अध्याय 18 को अधिनियमित किया गया है, "खातों में अपर्याप्त निधियों के कारण कतिपय चेकों के बाउंस की दशा में शास्तियाँ" इन उपबन्धों को चेकों के प्रयोग की संस्कृति को प्रोत्साहित करना एवं लिखतों की विश्वसनीयता की सम्वृद्धि करना है। परक्राम्य लिखत अधिनियम, 1881 के वर्तमान उपबन्ध अर्थात् अध्याय 17 धाराएं 138 से 142 तक चेकों के बाउंस के लिए अपर्याप्त पाए गए। यही नहीं "अधिनियम में उपबन्धित दण्ड भी अपर्याप्त साबित हुए, यहाँ तक कि न्यायालयों के लिए विहित प्रक्रिया भी कठोर पाए गए। कोर्ट ऐसे मामलों को अधिनियम में विहित प्रक्रिया से समयबद्ध तरीके से शीघ्रतापूर्वक व्ययन करने में असमर्थ पाए गए।

    देश के अनेकों न्यायालयों में परक्राम्य लिखत अधिनियम, 1881 की धाराएं 138 से 142 से सम्बन्धित मामले बहुत अधिक संख्या में विचाराधीन पाए गए। इसे ध्यानगत रखते हुए एक कार्यकारी दल गठित किया गया जिसका उद्देश्य परक्राम्य लिखत अधिनियम, 1881 की धारा 138 का पुनर्विलोकन करना एवं इस धारा के प्रयोजनों को प्रभावी ढंग से प्राप्त करने हेतु आवश्यक एवं अपेक्षित बदलावों की अनुशंसा करना था।

    अनेकों संस्थाओं एवं संगठनों के प्रतिवेदनों के साथ कार्यकारों दल की अनुशंसा की सरकार ने रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया एवं अन्य विधि विशेषज्ञों द्वारा परीक्षण किया गया एवं एक विधेयक परक्राम्य लिखत संशोधन विधेयक, 2001 संसद में दिनाँक 24 जुलाई, 2001 को पारित किया गया।

    यह विधेयक स्टैण्डिंग कमेटी को सन्दर्भित किया गया जिसके द्वारा कतिपय संशोधनों के साथ लोक सभा में नवम्बर, 2001 को भेज दिया।

    स्टैण्डिंग कमेटी के अनुशंसा एवं प्रतिवेदनों के दृष्टिकोण से परक्राम्य लिखत अधिनियम, 1881 में निम्नलिखित संशोधन सुझाए गए-

    अधिनियम में विहित दण्ड एक वर्ष से दो वर्ष बढ़ाने

    पाने वाले द्वारा लेखीवाल को भेजी जाने वालो सूचना अवधि को 15 दिन से 30 दिन बढ़ाना।

    अधिनियम के अधीन कोर्ट को मामले को संज्ञान लेने की अवधि 1 माह को परित्याग करने का कोर्ट का स्वविवेक

    परिवाद के प्रारम्भिक साक्ष्य की विहित प्रक्रिया से मुक्ति

    कोर्ट द्वारा अभियुक्त या साथी को स्पीड पोस्ट या इम्पैनलड निजी कोरियरों में सूचना तामीली की प्रक्रिया विहित करना

    अधिनियम के अधीन मामलों के त्वरित व्ययन के लिए संक्षिप्त विचारण का प्रावधान करना

    अधिनियम के अधीन अपराधों को शमनीय बनाना

    धारा 141 के अधीन उन निर्देशकों को अभियोजन से अपवर्जित करना जो केन्द्रीय सरकार, राज्य सरकार या केन्द्र या राज्य सरकार के स्वामित्व या नियंत्रण में वित्तीय कार्पोरेशन किसी पद धारण करने से किसी कम्पनी के नामित निदेशक हैं

    यह उपबन्धित करना कि मजिस्ट्रेट जो मामले का विचारण कर रहा है, को एक वर्ष से अधिक एवं 5 हजार रुपये से अधिक जुर्माना देने की शक्ति

    परक्राम्य लिखत अधिनियम, 1881 को सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000 को इलेक्ट्रॉनिक चेक एवं संक्षेपित चेक के सम्बन्ध में प्रयोज्य बनाने के लिए उन उपान्तरों एवं संशोधनों के अधीन जिसे केन्द्रीय सरकार रिजर्व बैंक के परामर्श से अधिनियम के प्रयोजनों के लागू करने के लिए आवश्यक समझे, सरकारी गजट में अधिसूचना द्वारा कर सकेगी

    बैंकर्स बुक्स साक्ष्य अधिनियम, 1891 में दिए गए" बैंकर्स बुक्स" एवं "प्रमाणित कापी" की परिभाषा को संशोधित करने के लिए

    अध्याय 17 में अन्तःस्थापित नये उपबन्ध जब से अर्थात् 1 अप्रैल, 1989 से प्रवर्तन में आया है वस्तुत: आपराधिक न्याय पद्धति में सत्यता से वादों की बाढ़ आ गई है। देश के मेट्रोपोलिटन नगरों एवं व्यापारिक केन्द्रों पर, यह प्रकट होता है कि मजिस्ट्रेट कोर्ट का मुख्य कार्य पक्षकारों की तरफ से मुद्रा की वसूली हो गया है। धारा 138 के अधीन इतने अधिक संख्या में परिवाद आने लगे हैं जिससे कोर्ट के लिए इसे युक्तियुक्त समय में निपटाना असम्भव हो गया है एवं इससे कोर्ट के सामान्य आपराधिक कार्यों पर प्रतिकूल प्रभाव होने लगा है। एक अनुतोषीय उपाय की अपेक्षा आवश्यक था और विधायिका ने अधिनियम में पुनः संशोधन अधिनियम, 2002 एवं 2018 में संशोधन के द्वारा क्रमश: धारा 143 से 147 एवं 148 अन्तः स्थापित किया।

    इसके साथ ही इन संशोधन अधिनियमों के द्वारा कुछ महत्वपूर्ण संशोधन भी किया गया जो निम्नलिखित है : संशोधन अधिनियम 2002 द्वारा-

    धारा 6 में इलेक्ट्रानिक प्ररूप में चेक को जोड़ा गया

    धारा 143 से 147 अन्तःस्थापित किया गया

    धारा 138 के खण्ड (ख) में 15 दिन की अवधि को 30 दिन बढ़ाया गया

    धारा 138 में एक वर्ष के कारावास को दो वर्ष किया गया

    संशोधन अधिनियम 2015 (प्रभावी 15-6-2015) द्वारा-

    धारा 6 में स्पष्टीकरण 1 का प्रत्यास्थापन

    धारा 6 में स्पष्टीकरण 3 का अन्तःस्थापन

    धारा 142 को उपधारा (1) के रूप में पुनः संख्यांकित किया गया।

    धारा 142 में उपधारा (2) जोड़ा गया जिसमें कोर्ट की अधिकारिता विहित की गयी।

    धारा 142क जोड़ा गया जिसके अधीन लम्बित मामलों के अन्तरण को विधिमान्यकरण किया गया। संशोधन अधिनियम 2018 (प्रभावी 1-9-2018) द्वारा।

    धारा 143क अन्त:स्थापित किया गया जिसमें अन्तरिम प्रतिकर का प्रावधान किया गया है।

    धारा 148 अन्तःस्थापित किया गया जिसमें दोषसिद्धि के मामले में अपील करने पर संदाय का आदेश करने की शक्ति का उपबन्ध है। अब वर्तमान रूप चेक के बाउंस सम्बन्धी 17वें अध्याय में धारा 139 से धारा 148 तक के प्रावधान है।

    न्यायोचित बाउंस कब बैंक चेक का बाउंस कर सकेगा बैंकर्स अपने खातेदार (ग्राहक) के चेक का निम्नलिखित परिस्थितियों में बाउंस कर सकेगा-

    पर्याप्त निधि के अभाव में (धारा 31)

    जहाँ निधि का उपायोजन उचित रूप में चेक के संदाय में नहीं किया जा सकता (धारा 31)

    चेकों की कूटरचना

    चेक का कटा फटा होना

    कालबाधित (पुराना) या भावी तिथि के चेक

    तात्विक परिवर्तन वाले चेक (धारा 87 )

    जहाँ लेखीवाल के हस्ताक्षर में अन्तर है या कूटरचित है

    जहाँ चेक की धनराशि शब्दों एवं अंकों में भिन्न है (धारा 18)

    विशेष रेखांकन का एक से अधिक बार करना (धारा 127)

    जहाँ लेखीवाल ने चेक के संदाय को रोका है

    वाहक चेक को छोड़कर जहाँ पृष्ठांकन अनियमित है

    जहाँ चेक का उपस्थापन समुचित नहीं है, अर्थात् कार्यस्थान एवं कार्य दिवस के अतिरिक्त चेक का उपस्थापन

    गार्निशी आदेश पर अर्थात् जहाँ सरकार ने ग्राहक के खाते का संदाय रोका गया है

    ग्राहक की मृत्यु पर (संज्ञान होने की तिथि से)

    ग्राहक के पागल होने पर

    ग्राहक के दिवालिया होने पर

    संक्षेपित चेक की दशा में [धारा 89 (3) ]

    खाता बन्द होने की दशा में

    खाता ब्लाक करने की दशा में, इत्यादि

    चेक के बाउंस के अपराध की प्रकृति [ धारा 138]- अधिनियम की धारा 138 चेकों के बाउंस को अब दाण्डिक अपराध उपबन्धित करती है और यह धारा अपराध की शर्तें एवं दण्ड का उपबन्ध करती है।

    धारा 138 की प्रकृति को अनेक उच्च न्यायालयों ने एवं सुप्रीम कोर्ट ने दाण्डिक अपराध स्पष्ट किया है। योगेन्द्र प्रताप सिंह बनाम सावित्री पाण्डेय के अद्यतन मामले में सुप्रीम कोर्ट ने धारा 138 को दाण्डिक अपराध अन्तर्वलित करने वाला कहा है अत: यह एक दाण्डिक उपबन्ध है। इस मामले में यह भी कहा गया है कि धारा 142 तरीका एवं समय विहित करती है जिसके अन्तर्गत परिवाद धारा 138 के अधीन दाखिल किया जा सकता है।

    धारा 142 के उपबन्ध से यह स्पष्ट है कि धारा 138 के अधीन अपराध का विचारण परिवाद पर समन मामलों के समान होता है और पर शमनीय प्रकृति का अपराध है।

    चेक बाउंस के लिए कौन दायी है-एक बैंकर चेक का बाउंस निम्नलिखित दो मामलों में कर सकता है-

    लेखीवाल के खाते में अपर्याप्त निधि की दशा में, एवं

    लेखीवाल के खाते में पर्याप्त निधि होने की दशा में

    चेक के द्वारा ऊपरवाल (बैंक) को एक आदेश होता है कि वह उसके धारक को निश्चित धनराशि का भुगतान करे यह चेक के अधीन एक समादेश है जिसे बैंकर को आदरण करना है। यदि वह इसे बिना पर्याप्त कारण के आदरण नहीं करता है तो वह चेक के लेखीवाल के प्रति आबद्ध होगा।

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