NI Act में चेक बाउंस का केस लीगल लिमिटेशन में होना
Shadab Salim
26 April 2025 4:23 AM

विधिक अवधि के अन्तर्गत परिवाद-
धारा 142 का खण्ड (ख) यह उपबन्धित करता है कि धारा 138 के अधीन अभियोजन के लिए परिवाद एक माह के अन्दर उस तिथि से जब से धारा 138 के खण्ड (ग) के अधीन वाद हेतुक उत्पन्न होता है। इस धारा के सरल पाठन से यह स्पष्ट है कि एक सक्षम कोर्ट धारा 138 के अधीन अपराध का संज्ञान विहित अवधि (एक माह) के अन्दर लिखित परिवाद पर ही ले सकता है।
सदानन्द भादरन बनाम माधवन सुनील कुमाएँ, के वाद में सुप्रीम कोर्ट धारा 142 के अधीन खण्ड (ख) के अर्थ को स्पष्ट करने का अवसर मिला। यह ध्यान में रखने के लिए महत्वपूर्ण है कि 'वाद हेतुक' के सन्दर्भ में धारा 142 (ख) प्रतिबन्धित अर्थ देता है और उसमें यह केवल एक ही तथ्य को सन्दर्भ देता है जो वाद हेतुक के कारण को उत्पन्न करता है और वह है कि धारा 138 के खण्ड (ग) के प्रावधानों के अधीन दी गई सूचना की प्राप्ति की तिथि से 15 दिन के अन्दर संदाय करने में असफल होना, लेखीवाल को उसके द्वारा कारित अपराध के लिए अभियोजन का दायित्व उत्पन्न होता है और इसी तरह एक माह की अवधि की गणना धारा 142 के अधीन परिवाद दाखिल करने के लिए की जाएगी। उक्त दोनों धाराओं के संयुक्त अध्ययन, सन्देह की कोई गुंजाइश नहीं रह जाती है कि धारा 142 (ग) के अधीन वाद हेतुक केवल एक बार उत्पन्न होता है।
इस प्रकार धारा 138 (ग) एवं धारा 142 (ख) के संयुक्त पाठन का प्रभाव होता है कि (i) ये वाद हेतुक को केवल एक ही बार अनुज्ञा देते हैं, एवं (ii) हेतुक की कार्यवाही का अन्त अर्थात् परिवाद का एक माह के अवसान के वाद दाखिल करना उस तिथि से जब लेखीवाल उक्त चेक धनराशि को पाने वाले को संदाय करने में 15 दिन के अन्दर असफल रहता है। इण्डियन बैंक एसोसिएशन बनाम भारत संघ के मामले में कोर्ट को धारा 138 के अधीन संज्ञान लेने में सुप्रीम कोर्ट ने निम्नलिखित महत्वपूर्ण मार्गनिर्देशन दिया है। वे हैं-
मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट/जुडीशियल मजिस्ट्रेट (MM/JM) उस तिथि को जब अधिनियम की धारा 138 के अधीन परिवाद प्रस्तुत किया जाता है, परिवाद की जाँच करेगा, यदि परिवाद शपथपत्र के साथ है, और शपथपत्र एवं अभिलेख, यदि कोई हो, ठीक पाए जाते हैं, संज्ञान लेगा और समन जारी करने का निर्देश देगा।
एम०एम० जे० एम० को समन जारी करने में सिद्धांतवादी एवं वास्तविक पहुँच होनी चाहिए। समन समुचित पते के साथ डाक द्वारा साथ ही ई-मेल पते पर भेजा जाना चाहिए।
कोर्ट की समुचित मामले में अभियुक्त को सूचना भेजने में पुलिस या समीप के न्यायालयों की सहायता लेनी चाहिए। उपस्थिति के लिए सूचना एक संक्षिप्त तिथि पर निर्धारित की जानी चाहिए। यदि सूचना बिना तामीली के वापस हो, तो उस पर अविलम्ब तुरन्त की कार्यवाही की जानी चाहिए।
कोर्ट समन में इसका संकेत होना चाहिए कि यदि अभियुक्त मामले की प्रथम सुनवाई पर अपराध को शमनीय करने के लिए आवेदन करता है और यदि इसके लिए आवेदन किया जाता है, कोर्ट शीघ्रता से समुचित आदेश पारित कर सकता है।
कोर्ट अभियुक्त को निर्देशित करे, जब वह विचारण के दौरान अपनी उपस्थिति सुनिश्चित करने के लिए बन्धपत्र देने के लिए आता है एवं उससे धारा 251 दण्ड प्रक्रिया संहिता के अधीन अपने बचाव का अभिवाक् करे एवं साक्ष्य बचाव के लिए वाद को निर्धारित करे जब तक कि अभियुक्त द्वारा धारा 145 (2) के अधीन एक साक्षी को प्रतिपरीक्षा के लिए पुनः वापसी के लिए आवेदन किया जाता है।
सम्बन्धित कोर्ट इसे सुनिश्चित करे कि परिवादी की मुख्य परीक्षा, प्रतिपरीक्षा एवं पुनः परीक्षा तीन माह के अन्दर सम्पन्न हो जाय। कोर्ट को यह विकल्प है कि साक्षियों को कोर्ट में परीक्षा करने के स्थान पर उनसे शपथपत्र प्राप्त करे। परिवादी के साक्षी एवं अभियुक्त प्रतिपरीक्षा के लिये उपलब्ध रहे, जब कभी भी उन्हें कोर्ट द्वारा इस सम्बन्ध में निर्देश होता है।
धारा 142 के अधीन अपरिपक्व परिवाद-
अपरिपक्व वाद से अभिप्रेत है किसी वाद को धारा 142 के अधीन धारा 138 (ग) अधीन 15 दिन के अवसान के पूर्व वाद हेतुक उत्पन्न होने के पूर्व दाखिल करने से होता है। कोई भी परिवाद जो वाद हेतुक उत्पन्न होने की सम्भावना में धारा 138 के खण्ड (ग) के अधीन वाद हेतुक उत्पन्न होने के पूर्व किया गया है, अपरिपक्व परिवाद होता है।
अपरिपक्व परिवाद के सम्बन्ध में विधि को संक्षेप में कहा जा सकता है-
अपरिपक्व परिवाद प्रारम्भ में ही इन्कार करने योग्य नहीं होता है।
ऐसे परिवादों का संज्ञान इनकी परिपक्वता के पश्चात् लिया जा सकता है और न्यायालय-
वापस कर सकते हैं जिसे वाद हेतुक उत्पन्न होने के बाद दाखिल किया जाय, या
परिपक्वता अवधि तक प्रतीक्षा करें
प्रत्येक मामले में अपरिपक्व परिवाद में लिया गया संज्ञान गलत होगा।
अपरिपक्व परिवाद के सम्बन्ध में विभिन्न उच्च न्यायालयों के मतों में विभिन्नता है और यहाँ तक सुप्रीम कोर्ट का मत भी नरसिंह दास तपाडियाँ एवं साख इन्वेस्टमेन्ट एण्ड फाइनेन्सियल कंसलटेन्सी प्रा० लि० बनाम लायड रजिस्ट्रार के मामलों में भिन्न रहा है। परन्तु अब योगेन्द्र प्रताप सिंह के मामले में सुस्थिर हो गया है।
नरसिंह दास तपाडिया के मामले में सुप्रीम कोर्ट के खण्डपीठ ने "अपराधों का संज्ञान लेना" एवं "परिवादी द्वारा परिवाद दाखिल करना" में अन्तर स्थापित किया है। इस कोर्ट ने यह धारित किया है। कि हालांकि मजिस्ट्रेट को ऐसे मामले का संज्ञान लेने का वर्जन है, परन्तु परिवाद दाखिल करने में कोई वर्जन नहीं है एवं यह कि 15 दिनों के अवसान के पूर्व दाखिल किये गये परिवाद को आधार बनाया जा सकता है कि उस पर 15 दिन के अवधि के अवसान पर संज्ञान लिया जा सके।